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भगवान शिव और पार्वती के परिहास में छिपा जगत का कल्याण

’पार्वती! तुम अपने पिता हिमाचल की तरह पत्थर-दिल प्रतीत होती हो। तुम्हारी चाल में भी पहाड़ी मार्गों की तरह कुटिलता है। ये सब गुण तुम्हारे शरीर में हिमाचल से ही आए प्रतीत होते हैं।’ शिवजी के इन वचनों ने पार्वतीजी की क्रोधाग्नि में घी का काम किया। उनके होंठ फड़कने लगे, शरीर कांपने लगा।

देवाधिदेव भगवान शिव और जगदम्बा पार्वती का विवाहोत्सव

पर्वतराज हिमालय ने सब प्रकार की लौकिक-वैदिक विधियों को सम्पन्न करके हाथ में जल और कुश लेकर कन्यादान का संकल्प किया। पर्वतराज हिमालय ने हंसकर शिवजी से कहा--’शम्भो! आप अपने गोत्र का परिचय दें। प्रवर, कुल, नाम, वेद और शाखा का प्रतिपादन करें।’ नाम पूछे जाने पर वर का नाम ‘शिव’ बताया गया, पर इनके पिता का नाम पूछने पर सब चुप हो गए। कुछ समय सोचने के बाद ब्रह्माजी ने कहा कि इनका पिता मैं ‘ब्रह्मा’ हूँ और पितामह का नाम पूछने पर ब्रह्माजी ने ‘विष्णु’ बताया। इसके बाद प्रपितामह का नाम पूछने पर सारी सभा अत्यन्त मौन रही। अंत में मौन भंग करते हुए शिवजी स्वयं बोले कि सबके प्रपितामह तो हम ही हैं।

अलबेले भगवान शिव और उनका अनोखा घर-संसार

जिनका ऐसा अद्भुत वेष हो और गृह पालन की सामग्री--बूढ़ा बैल, खटिये का पाया, फरसा, चर्म, भस्म, सर्प, कपाल--इतनी कम हो, तो भभूतिया बाबा शंकर के घर बड़ी मुसीबत रहती है जगज्जननी को। गृहस्वामी के पांच मुख, बच्चे गजानन और षडानन, सवारी के लिए बुड्ढा बैल, खाने के लिए भांग-धतूरा, रहने के लिए सूनी दिशाएं, खेलने के लिए श्मशान और आभूषणों के लिए फुफकारते सर्प। ऐसी स्थिति में यदि मां अन्नपूर्णा न होतीं तो भोलेबाबा की गृहस्थी चलती कैसे?