Shani Dev

इन्द्रनीलद्युति: शूली वरदो गृध्रवाहन:।
बाणबाणासनधर: कर्तव्योऽर्कसुतस्तथा।।

अर्थात्–शनैश्चर की शरीर-कान्ति इन्द्रनीलमणि की-सी है। वे गीध पर सवार होते हैं और हाथ में धनुष-बाण, त्रिशूल और वरमुद्रा धारण किए रहते हैं।

दण्डनायक ग्रह शनिदेव

सूर्य समस्त ग्रहों के राजा हैं तो शनिदेव दण्डाधिकारी युवराज। भगवान शंकर ने शनिदेव को दण्डनायक ग्रह घोषित कर नवग्रहों में स्थान प्रदान किया। मनुष्य हो या देव, पशु हो या पक्षी, राजा हो या रंक अथवा माता हो या पिता–शनिदेव की दृष्टि में सब समान हैं। अपराध या गलती करने पर उनके कर्मानुसार दण्ड का निर्णय शनिदेव करते हैं। शनि के पिता सूर्यदेव ने जब उनकी माता छाया को प्रताड़ित किया तो शनि ने पिता का घोर विरोध किया और उन्हें भी पीड़ा दी।

ग्रहों में शनि का स्थान न्यायाधीश का है। न्यायालय में न्यायाधीश काला गाउन पहनते हैं, न्याय की देवी की आंखों पर काली पट्टी बंधी होती है; उसी तरह शनि काले वस्त्र धारण करते हैं।

शनिदेव के कुछ अन्य नाम हैं–मन्द, शनैश्चर, सूर्यसूनु, सूर्यज, अर्कपुत्र, नील, भास्करी, असित, छायात्मज आदि। शनि की दृष्टि में जो क्रूरता है वह इनकी पत्नी के शाप के कारण है।

शनिदेव इन कार्यों से होते हैं अप्रसन्न

  1. माता-पिता का अपमान,
  2. नौकरों के साथ दुर्व्यवहार,
  3. विकलांगों को सताना,
  4. भिखारियों को अपमानित करना,
  5. चोरी, रिश्वत व चालाकी से दूसरों का धन हड़पना,
  6. जुआ खेलना,
  7. किसी भी प्रकार का नशा करना,
  8. व्यभिचार करना,
  9. भ्रष्टाचार,
  10. झूठी गवाही,
  11. चींटी, कुत्ते व कौए को मारना।

शनि की साढ़ेसाती

एक राशि पर शनि ढाई वर्ष रहते हैं। जब शनि जन्मराशि से 12, 1, 2 स्थानों में हों तो साढ़ेसाती होती है। यह साढ़े सात वर्ष तक चलती है इसलिए साढ़ेसाती कहलाती है। शनि तीस वर्षों में सभी राशियों पर भ्रमण कर लेते हैं। अत: एक बार साढ़ेसाती आने पर व्यक्ति 30 वर्षों के बाद ही दुबारा शनि से प्रभावित होता है।

शनिदेव की पीड़ा से राजा बने रंक

‘जाको प्रभु दारुण दु:ख देहीं, ताकी मति पहले हरि लेहीं’ जिस व्यक्ति को शनिदेव को दण्ड देना होता है, पहले वे उसकी बुद्धि हर लेते हैं। जब पाडण्वों की जन्मपत्री में शनि की दशा आई तो शनिदेव ने द्रौपदी की बुद्धि भ्रमित करके दुर्योधन को कड़वे शब्द कहलवाए, परिणामस्वरूप पांडवों को वनवास मिला।

शनिदेव को द्यूतक्रीडा (जुआ खेलना) बिल्कुल पसन्द नहीं है। राजा नल द्यूतक्रीडा में अपना सम्पूर्ण राज्य हार गए और रानी दमयन्ती के साथ वन में दर-दर भटकने लगे। राजा नल ने शनिदेव से प्रार्थना की और उनके स्तोत्र-जप से अपना खोया राज्य पुन: प्राप्त किया।

राजा विक्रमादित्य पर जब शनि की दशा आई तो मोर का चित्र ही हार को निगल गया। राजा विक्रमादित्य को तेली के घर पर कोल्हू चलाना पड़ा।

राजा हरिश्चन्द्र को शनि की दशा में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं। उनका परिवार बिछुड़ गया और राजा को श्मशान में चाण्डाल की नौकरी करनी पड़ी।

क्यों चढ़ाते हैं शनिदेव पर तेल?

प्रकाण्ड विद्वान रावण ने परस्त्री का हरण किया, उससे उस पर भी शनि की दशा आयी। रावण इससे घबरा गया और उसने भगवान शिव से प्राप्त त्रिशूल से शनिदेव को घायल कर बंदीगृह में उलटा लटका दिया। लंका-दहन के समय जब हनुमानजी की दृष्टि शनि पर पड़ी तो उन्होने शनिदेव को मुक्त कर दिया। लेकिन उलटा लटका होने से शनि के शरीर में भयंकर पीड़ा हो रही थी और वह दर्द से कराह रहे थे। शनि के दर्द को कम करने के लिए हनुमानजी ने उनके शरीर पर तेल से मालिश की थी।  उसी समय शनि ने कहा था जो भी व्यक्ति श्रद्धाभक्ति से मुझ पर तेल चढ़ाएगा, उसकी सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। तभी से शनिदेव पर तेल चढ़ाने की परम्परा शुरु हुई। शनिदव ने हनुमानजी को वर दिया कि वे हनुमान-भक्तों को कभी कष्ट नहीं देंगे। श्रीराम-रावण युद्ध में शनि की दृष्टि पड़ने से ही रावण परिवार सहित नष्ट हो गया।

शनि की महादशा, साढ़ेसाती एवं ढैया प्राय: सभी प्राणियों के जीवन में आती है, जिसके लग्न में जैसा प्रभाव है, उसके अनुसार घटित होता भी है। इस समय को मनुष्य को मानसिक सन्तुलन न खोकर धैर्य से काटना चाहिए।

हनुमानजी की उपासना, सूर्य-उपासना, शनिचालीसा, शनिअष्टक व दशरथकृत शनि स्तुति का पाठ, पीपल की पूजा व नीलम व जमुनिया रत्न धारण करना व काले घोड़े की नाल से बनी अंगूठी पहनना, शनि के निमित्त दान करना व सबसे ऊपर अपना आचरण सर्वश्रेष्ठ बनाएं रखें तो शनिदेव कष्टों से मुक्ति देकर अपार धन-दौलत भी प्रदान कर देते हैं।

शनि के मन्त्र

  1. ॐ शं शनैश्चराय नम:।
  2. ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:।

ये शनि के मन्त्र हैं। जो भी मन्त्र सुविधाजनक लगे उसकी एक माला का जप शनिवार को करें।

शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए करें इस श्लोक का पाठ

नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छाया मार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।

अर्थ–जो नीले काजल के समान आभा वाले, सूर्य के पुत्र, यमराज के बड़े भाई तथा सूर्यपत्नी छाया और मार्तण्ड (सूर्य) से उत्पन्न हैं उन शनैश्चर को मैं नमस्कार करता हूँ।

शनिदेव का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को हुआ था इसीलिए शनिवार को पड़ने वाली अमावस्या शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए बहुत शुभ मानी जाती है।

शनि की ग्रह पीड़ा दूर करने के लिए ब्रह्माण्डपुराण में निम्न श्लोक दिया गया है–

सूर्यपुत्रो दीर्घदेहा विशालाक्ष: शिवप्रिय:।
मन्दचार: प्रसन्नात्मा पीडां हरतु मे शनि।।

अर्थात्–सूर्य के पुत्र, दीर्घ देह वाले, विशाल नेत्रों वाले, मन्दगति से चलने वाले, भगवान शिव के प्रिय तथा प्रसन्नात्मा शनि मेरी पीड़ा को दूर करें।

ज्योतिषशास्त्र में कहा गया है कि जो लोग पुराणों की कथा सुनते हैं, इष्टदेव की आराधना करते हैं भगवान के नाम का जप करते हैं, तीर्थों में स्नान करते हैं, किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाते हैं, सबका भला करते हैं, सदाचार का पालन करते हैं तथा शुद्ध व सरल हृदय से अपना जीवन व्यतीत करते हैं, उन पर अनिष्ट ग्रहों का प्रभाव नहीं पड़ता। बल्कि वही ग्रह उन्हें सुख प्रदान करते हैं।

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