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रक्षाबन्धन का पर्व श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को मनाया जाता है । इस पर्व को मनाने की परम्परा कैसे शुरु हुई, इस सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है—

रक्षाबन्धन पर्व बनाने की परम्परा कैसे शुरु हुई ?

प्राचीनकाल में एक बार बारह वर्षों तक देवासुर-संग्राम होता रहा जिसमें देवताओं की हार हुई । असुरों ने स्वर्ग पर आधिपत्य कर लिया । दु:खी, पराजित और चिन्तित इन्द्र देवगुरु बृहस्पति के पास गये और शोकाकुल होकर बोले—

‘इस समय न तो मैं यहां ही सुरक्षित हूँ और न ही यहां से कहीं निकल ही सकता हूँ । ऐसी दशा में मेरा युद्ध करना ही अनिवार्य है, जबकि युद्ध में हमारी पराजय ही हुई है ।’

देवराज इन्द्र और देवगुरु बृहस्पति की सब बातें इन्द्राणी सुन रही थीं । उन्होंने इन्द्र से कहा—‘कल श्रावण शुक्ल पूर्णिमा है । मैं विधानपूर्वक रक्षासूत्र तैयार करुंगी, उसे आप स्वस्तिवाचनपूर्वक ब्राह्मणों से बंधवा लीजिएगा । इससे आप अवश्य विजयी होंगे ।’

दूसरे दिन इन्द्र ने रक्षाविधान और स्वस्तिवाचनपूर्वक रक्षाबन्धन कराया जिसके प्रभाव से इन्द्र की विजय हुई । तभी से रक्षाबन्धन का पर्व मनाया जाने लगा ।

प्राचीनकाल में रक्षासूत्र कैसे बनाया जाता था ?

एक सूती या रेशमी पीला वस्त्र लेकर उसमें पीली सरसों, सोना, केसर, चन्दन, अक्षत (चावल) और दूर्वा रखकर बांध लिया जाता था । फिर पृथ्वी लीप कर उस पर कलश स्थापना करके उस पर एक पात्र में रक्षासूत्र रखकर उसकी पूजा की जाती थी उसके बाद ब्राह्मण से रक्षासूत्र बंधवाया जाता था ।

रक्षासूत्र बांधने का मन्त्र

पुरुषों को ब्राह्मण से रक्षासूत्र दाहिने हाथ में बंधवाना चाहिए जबकि स्त्रियों को बांये हाथ में । रक्षासूत्र बांधते समय ब्राह्मण को इस मन्त्र को पढ़ना चाहिए—

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: ।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ।।

आज भी कई घरों में रक्षाबन्धन के दिन ब्राह्मणों से रक्षासूत्र बंधवाने का रिवाज है । इसके बांधने से पूरे वर्ष भर परिवार में पुत्र-पौत्रादि सब सुखी रहते हैं । 

नंदरानी यशोदा ने अपने लाल श्रीकृष्ण को रक्षासूत्र कैसे बंधवाया, जानें इस पद से–

रक्षा बांधन को दिन आयो ।
गर्गादि सब देव बुलाये लालहि तिलक बनायो ।।
सब गुरुजन मिल देत असीस चिरजियो ब्रजरायो ।
बाढै प्रताप नित या ढोटा को परमानंद जस गायो ।।

घर में स्थापित भगवान को कैसे बांधे रक्षासूत्र

इस दिन घर पर स्थापित भगवान को भी रोली से टीका कर राखी बांधनी चाहिए और उन्हें मिठाई अर्पित कर धूप-दीप से आरती करनी चाहिए । इसका भाव यह है कि हमने इस रक्षासूत्र को बांधकर अपनी व परिवार की रक्षा का भार प्रभु आपको सौंप दिया है, अब आप जैसा चाहें करें—

सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में ।
है जीत तुम्हारे हाथों में, है हार तुम्हारे हाथों में ।।

रक्षासूत्र का आधुनिक रूप है राखी

आजकल रक्षासूत्र का स्थान राखियों ने ले लिया है जिसे रक्षाबन्धन के दिन बहनें भाइयों की कलाई पर बांधती हैं । 

रक्षाबन्धन का अर्थ है रक्षा का भार जिसका तात्पर्य है कि मुसीबत में भाई बहन का साथ दे या बहन भाई का साथ दे । द्रौपदी ने भगवान कृष्ण को अपनी धोती का चीर (कच्चा धागा) बांधा था और मुसीबत पड़ने पर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा की । कौरवों की सभा में दु:शासन जब द्रौपदी का चीरहरण कर रहा था तो द्रौपदी लज्जा और भय से पुकार उठी—

गोविन्द द्वारिकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय ।
कौरवै: परिभूतां मां किं न जानासि केशव ।।

तुरन्त ही द्रौपदी की आर्त-पुकार सुनकर श्रीकृष्ण का वस्त्रावतार हो गया । दु:शासन आदि कौरव रजस्वला द्रौपदी की साड़ी खींचते-खींचते हार गये पर उसे भरी सभा में नग्न नहीं कर पाये । इसी प्रकार प्रत्येक भाई को राखी के महत्व को समझना चाहिए ।

रक्षाबन्धन पर क्यों की जाती है श्रवणकुमार की पूजा ?

इस दिन घरों में मातृ-पितृ भक्त श्रवणकुमार की याद में सोना या सोन रखे जाते हैं फिर उनका रोली-चावल से पूजन कर लड्डू या सिवई या मीठे चावल का भोग लगाया जाता है और उन पर राखी लगाई जाती है । ‘सोन पूजा’ को मनाने का कारण यह है कि जब अज्ञान से राजा दशरथ के बाण से श्रवणकुमार की मृत्यु हो गयी तो राजा दशरथ ने उसके माता-पिता को आश्वासन दिया कि श्रावणी के दिन सभी सनातनी लोग श्रवण पूजा करेंगे । इसीलिए रक्षाबंधन के दिन सर्वप्रथम रक्षासूत्र श्रवणकुमार की याद में ‘सोन’ को अर्पण करते हैं । 

रक्षाबन्धन के पूजन के समय भद्रा नहीं होनी चाहिए  ।

इस दिन जिनका यज्ञोपवीत हो गया है, वे पुराना जनेऊ बदलकर नया जनेऊ धारण करते हैं ।

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