surya dev bhagwan

भगवान के माहात्म्य और प्रभाव का तथा शास्त्रों का ज्ञान जैसा भीष्म पितामह को था वैसा कहीं ओर देखने को नहीं मिलता । महाभारत का एक पर्व ‘दान पर्व’ के नाम से प्रसिद्ध है, जो उन्होंने युधिष्ठिर को सुनाया था ।

इसमें युधिष्ठिर भीष्म पितामह से पूछते हैं—‘श्राद्ध-कर्म तथा अन्य अवसरों पर जो छाता और जूते का दान करने की परम्परा चली आ रही है, उसे किसने चलाया तथा इसका क्या रहस्य है, बताने की कृपा करें ।’

पितरों के निमित्त जूता और छाता दान करने का कारण

श्राद्ध-कर्म में और मनुष्य की मृत्यु के बाद एकादशाह श्राद्ध (ग्यारहवें दिन) और शय्यादान में छाता और जूता दान करने की प्रथा है । इसका कारण यह है कि यमलोक का मार्ग अत्यन्त कष्टप्रद है । वहां ग्रीष्म ऋतु की-सी तपन और निरन्तर भीषण वर्षा होती रहती है । मार्ग बालू और कांटों से भरा है । यममार्ग में प्रेत की छाते से ग्रीष्म के ताप और वर्षा से रक्षा होती है । जूते (उपानह) मार्ग के कांटों से उसकी रक्षा करते हैं ।

ग्रीष्म ऋतु में छाता और जूता दान करने की प्रथा कैसे शुरु हुई ?

भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा—‘ग्रीष्म ऋतु में छाता और जूता क्यों दान दिया जाता है ? इसका कारण महर्षि जमदग्नि और भगवान सूर्य के एक प्रसंग से पता चलता है ।’

एक बार भृगु ऋषि के पुत्र महर्षि जमदग्नि धनुष चलाने का अभ्यास कर रहे थे । वे बार-बार धनुष पर बाण रख कर चलाते और दूर गए उन बाणों को उनकी पत्नी रेणुका लाकर दिया करती थीं ।

ज्येष्ठ का महीना था । प्रचण्ड गर्मी पड़ रही थी, धूप बहुत तेज थी । भूमि गर्म तंदूर की तरह भभक रही थी । बाण चलाने का अभ्यास करते-करते दोपहर हो गई । रेणुकाजी वृक्षों की छाया के नीचे-नीचे चलकर जातीं, बीच-बीच में जलते हुए पैरों के तलवों और सिर को ठण्डा करने के लिए वृक्ष के नीचे कुछ देर खड़ीं हो जातीं, तब कहीं जाकर बाण बीन कर महर्षि को लाकर देती थीं । 

एक दिन बाण बीन कर लाने में देर होने पर महर्षि ने पूछा—‘तुम्हारे आने में इतनी देर क्यों हुई ?’

तब रेणुकाजी ने तेज धूप के कारण सिर और पैर जलने की बात बताई । इस पर महर्षि जमदग्नि सूर्यदेव पर क्रोधित हो गए और बोले—‘जिसने तुम्हें कष्ट पहुंचाया है, उस सूर्य को मैं आज ही अपने बाणों की अस्त्राग्नि से गिरा दूंगा ।’

ऐसा कह कर वे अपने दिव्य धनुष पर बहुत-से बाणों को रख कर सूर्य की ओर मुंह करके खड़े हो गए । उन्हें युद्ध के लिए तैयार देखकर सूर्यदेव भयभीत हो गए । वे ब्राह्मण का वेष धारण कर महर्षि के पास आए और बोले—‘सूर्य ने आपका क्या अपराध किया है ? सूर्यदेव तो आकाश में स्थित होकर अपनी किरणों द्वारा वसुधा का रस खींचते हैं और बरसात में उसे पुन: बरसा देते हैं । वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है और अन्न ही जीवों का प्राण है । औषधियां, लताएं, पत्र-पुष्प आदि सूर्य की कृपा से ही उत्पन्न होते हैं । भला सूर्य को गिराकर आपको क्या लाभ मिलेगा ?’

सूर्यदेव के द्वारा इस तरह प्रार्थना करने पर भी महर्षि का क्रोध शान्त नहीं हुआ । वे ब्राह्मण के वेष में सूर्यदेव को पहचान गए । सूर्यदेव महर्षि के तेज को देखकर भयभीत हो गए और उनके शरणागत हो गए ।

तब महर्षि ने कहा—‘शरणागत की रक्षा करना महान धर्म है, उसके वध से पाप होता है, अत: सूर्यदेव तुम्हीं कोई उपाय सोचो, जिससे तुम्हारे तीव्र ताप से रक्षा हो सके ।’

भगवान सूर्य ने महर्षि को शीघ्र ही छाता और जूता (उपानह)—ये दो वस्तुएं प्रदान कीं और कहा—‘यह छत्र मेरी किरणों का निवारण करके मस्तक की रक्षा करेगा और ये जूते पैरों को जलने से बचाएंगे । आज से ये दोनों वस्तुएं जगत में प्रचलित होंगी और पुण्य के अवसरों पर इनका दान अक्षय फल देने वाला होगा ।’

इस प्रकार छाता और जूता—इन दोनों का प्राकट्य और लगाने व पहनने की प्रथा सूर्यदेव ने ही शुरु की ।

ग्रीष्म ऋतु में विशेषकर ज्येष्ठ और आषाढ़ मास में छाता और जूता दान करने का विशेष पुण्य है । छाता व जूता दान करते समय इन मन्त्रों को पढ़ना चाहिए—

छाता दान का मन्त्र

इहामुत्रातपत्राणं कुरु मे केशव प्रभो ।
छत्रं त्वत्प्रीतये दत्तं ममास्तु च सदा शुभम् ।।

अर्थात्—हे केशव ! यह छत्र मैंने आपकी प्रसन्नता के लिए दिया है, यह मेरे लिए इस लोक तथा परलोक में धूप से रक्षा करने वाला हो, इसके दान से मेरा सदा कल्याण-मंगल होता रहे ।

जूता दान का मन्त्र

उपानहौ प्रदत्ते मे कण्टकादिनिवारणे ।
सर्वमार्गेषु सुखदे अत: शान्तिं प्रयच्छ मे ।।

अर्थात्—कांटों आदि से पैरों की रक्षा करने तथा सभी मार्गों में सुख प्रदान करने वाले ये जूते मेरे द्वारा दान में दिए गए हैं, ये मुझे शान्ति प्रदान करें ।

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