अक्सर जब भी किसी त्यौहार जैसे होलिका-दहन हो या दीवाली पूजन या फिर रक्षाबंधन पर भाइयों को टीका करना हो, हम ‘भद्रा’ पर विचार करते हैं और भद्रा की समाप्ति पर ही वह मांगलिक कार्य करते और त्यौहार मनाते हैं । आखिर यह भद्रा कौन है और क्यों भद्रा में शुभ कार्य वर्जित हैं ?
भद्रा कौन है व कैसी है ?
भद्रा की उत्पत्ति कथा—भद्रा भगवान सूर्य नारायण और छाया की पुत्री हैं और शनि देव की सगी बहिन हैं । भद्रा का रंग काला, रूप भयंकर, लम्बे केश व दांत विकराल हैं । जन्म लेते ही वह संसार को ग्रसने दौड़ी, यज्ञों में विघ्न पहुंचाने लगी, उत्सवों और मंगल-कार्यों में उपद्रव करने लगी । उसके भयंकर रूप और उपद्रवी स्वभाव को देखकर कोई भी उससे विवाह करने को तैयार नहीं हुआ । सूर्य देव ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया तो भद्रा ने तोरण, मण्डप आदि सभी उखाड़ कर आयोजन को नष्ट कर डाला और सभी लोगों को कष्ट देने लगी । तब सूर्य नारायण ने भद्रा को समझाने के लिए ब्रह्माजी से प्रार्थना की ।
प्रजा के दु:ख को देखकर ब्रह्माजी ने भद्रा को समझाते हुए कहा—‘तुम बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि आदि चर करणों के अंत में सातवें करण के रूप में स्थित रहो । जो व्यक्ति तुम्हारे समय में यात्रा, गृह-प्रवेश, खेती, व्यापार, उद्योग और अन्य मंगल कार्य करे तो तुम उसमें विघ्न डालो । जो तुम्हारा आदर न करे, उसका कार्य ध्वस्त कर दो ।’
बाद में सूर्यनारायण ने अपनी पुत्री भद्रा का विवाह विश्वकर्मा के पुत्र विश्वरूप के साथ कर दिया ।
(करण पंचाग का पांचवा अंग है । प्रत्येक तिथि को दो भागों में बांटने के कारण इसे ‘करण’ कहते हैं । बव, बालव आदि सात करणों की एक महीने में बार-बार आवृत्ति होती है इसलिए ये चर करण कहलाते हैं। चर करण में सातवें करण विष्टि का नाम भद्रा है ।)
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार दैत्यों से पराजित देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शंकर के शरीर से गर्दभ (गधे) के समान मुख वाली, कृशोदरी (पतले पेट वाली), पूंछ वाली, मृगेन्द्र (सिंह) के समान गर्दन वाली, सप्त भुजा वाली, शव का वाहन करने वाली और दैत्यों का विनाश करने वाली भद्रा उत्पन्न हुई ।
मांगलिक कार्यों में भद्रा का त्याग क्यों किया जाता है ?
भद्रा ने ब्रह्माजी का आदेश मान लिया और वह काल के एक अंश के रूप में आज तक विद्यमान है । भद्रा प्राय: प्रत्येक द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी और द्वादशी-त्रयोदशी को लगी रहती है । भद्रा पांच घड़ी मुख में, दो घड़ी कण्ठ में, ग्यारह घड़ी हृदय में, चार घड़ी नाभि में, पांच घड़ी कटि में और तीन घड़ी पुच्छ में स्थित रहती है । जब भद्रा मुख में स्थित रहती है तब कार्य का नाश, कण्ठ में होने पर धन का नाश, हृदय में प्राण का नाश, नाभि में कलह, कमर में अर्थभ्रंश होता है किन्तु पुच्छ में भद्रा विजय और कार्यसिद्धि कराती है । इस प्रकार भद्रा का लगभग १२ घण्टे में से केवल १ घण्टा १२ मिनट का अंतिम समय शुभकारी होता है । इसलिए मांगलिक कार्यों में भद्रा का त्याग करना चाहिए ।
सूर्यनारायण की पुत्री और ब्रह्माजी द्वारा उपदेशित होने के कारण भद्रा संसार में पूज्य है । भद्रा की उपेक्षा से मनुष्य को विपरीत परिणाम भुगतने पड़ते हैं ।
रोग और व्याधि दूर करने वाले भद्रा के 12 नाम
- धन्या
- दधिमुखी
- भद्रा
- महामारी
- खराननना
- कालरात्रि
- महारुद्रा
- विष्टि
- कुलपुत्रिका
- भैरवी
- महाकाली
- असुराणां क्षयंकरी
भद्रा के इन बारह नामों का जो प्रात:काल उठकर स्मरण करता है, उसे किसी भी रोग का भय नहीं रहता, सभी ग्रह उसके अनुकूल हो जाते हैं और उसके कार्यों में कोई विघ्न नहीं होता है ।
भद्रा में कौन-से कार्य नहीं करने चाहिए ?
भद्रा में मंगल कार्य जैसे—यात्रा, रक्षाबंधन, विवाह, दाहकर्म आदि नहीं करने चाहिए । भद्रा में श्रावणी (सावन की पूर्णिमा को किया जाने वाला कर्म) और फाल्गुनी (होलिकादहन) का भी निषेध है क्योंकि श्रावणी-कर्म करने से राजा का नाश होता है और होलिकादहन से अग्नि का भय होता है ।
भद्रा में कोई शुभ कार्य हो गया हो तो उसका दुष्प्रभाव दूर करने के लिए भद्रा का प्रार्थना मन्त्र इस प्रकार से है—
छायासूर्यसुते देवि विष्टिरिष्टार्थदायिनि ।
पूजितासि यथाशक्त्या भद्रे भद्रप्रदा भव ।। (भविष्यपुराण)
भद्रा में कौन-से कार्य करने चाहिए ?
घोड़ा, भैंसा, ऊंट आदि को खरीदना, वध, बन्धन, विष, अग्नि, अस्त्र, छेदन व उच्चाटनादि कार्य भद्रा में करने से सिद्ध होते हैं ।
भद्रा का फल
—सोमवार और शुक्रवार की भद्रा कल्याणकारी,
—शनिवार की वृश्चिकी
—गुरुवार की पुण्यवती और
—शेष वारों की भद्रिका होती है ।
अत: सोमवार, गुरुवार और शुक्रवार की भद्रा का दोष नहीं होता है ।