योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरुपिणे।
संसारसर्पदष्टं यो विष्णुरातममूमुचत्।। (श्रीमद्भागवत १२ । १३ । २१)
अर्थात्–‘हम उन योगिराज ब्रह्मस्वरूप श्रीशुकदेवजी को नमस्कार करते हैं, जिन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण सुनाकर संसार-सर्प से डसे हुए राजर्षि परीक्षित को मुक्त किया।’
श्रीशुकदेवजी के जन्म की कथा
महात्मा शुकदेव भगवान वेदव्यास के पुत्र हैं। श्रीमद्भागवत के प्रधान वक्ता श्रीशुकदेवजी हैं। वे शिव स्वरूप हैं। भगवान शंकर शुकदेवजी का स्वरूप धारण कर प्रकट हुए हैं। भगवान शंकर वैराग्य के स्वरूप हैं, इसलिए शुकदेवजी जन्म से ही निर्विकार हैं।
इनके जन्म के सम्बन्ध में अनेक कथाएं मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वाटिका के तप का परिणाम बताया जाता है तो कहीं व्यासजी की तपस्या के फलस्वरूप भगवान शंकर का वरदान बताया जाता है। भागवतशास्त्र की रचना करने के बाद व्यासजी को चिंता हुई कि–’यह शास्त्र मैं किसे दूँ?’ मैंने इसकी रचना समाज के कल्याण के लिए की हैं। इस शास्त्र का प्रचार वही कर सकता है जो अतिशय विरक्त हो। संसार के किसी पदार्थ के प्रति कोई राग न हो ऐसा जन्म से वैरागी कौन मिल सकता है। कोई योग्य पुत्र हो तो ज्ञान उसे दे दूँ, जिससे वह जगत का कल्याण कर सके। इस विचार के कारण वृद्धावस्था में व्यासजी को पुत्र की इच्छा हुई। व्यासजी ने शंकरजी की आराधना की। शंकरजी के प्रसन्न होने पर व्यासजी ने कहा–’भगवन् ! समाधि में जो आनन्द आप पाते हैं, उसी आनन्द को जगत को देने के लिए आप मेरे घर में पुत्र रूप में पधारिए।’ व्यासजी की इच्छा शिवजी ने स्वीकार कर ली। शिवकृपा से व्यासपत्नी वाटिकाजी गर्भवती हुईं और शुकदेवजी का जन्म हुआ।
एक अन्य कथा के अनुसार जब इस पृथ्वी पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधाजी का अवतरण हुआ तब गोलोक से श्रीराधाजी का क्रीडाशुक (पालतू तोता) भी इस पृथ्वी पर आया। उसी समय भगवान शंकर भगवती पार्वती को अमर-कथा सुना रहे थे। पार्वतीजी बीच-बीच में हुँकारी भर रही थीं। परन्तु कथा सुनते हुए कुछ समय बाद पार्वतीजी को नींद आ गई। संयोगवश शुक (तोता) भी वहां बैठकर कथा श्रवण कर रहा था। जब पार्वतीजी सो गयीं तब उस शुक ने बीच-बीच में हुँकारी भरना शुरु कर दिया। इसलिए शंकरजी को पार्वतीजी के सो जाने का पता नहीं चला। और वे अनवरत कथा सुनाते रहे। इस प्रकार उस शुक ने पूरी कथा सुन ली। जब पार्वतीजी जागीं तो उन्होंने शंकरजी से कहा–’प्रभो, मैंने इस वाक्य के बाद से कथा नहीं सुनी है क्योंकि मुझे नींद आ गई थी।’ शंकरजी के आश्चर्य की सीमा न रही। उन्होंने वहां उपस्थित अपने गणों से कहा–’आखिर कथा के बीच में कौन हुँकारी भर रहा था? शीघ्र पता लगाओ।’ गणों ने वृक्ष पर बैठे शुक की ओर इशारा किया, तब शंकरजी उसको मारने के लिए त्रिशूल लेकर दौड़ पड़े। वह शुक दौड़कर व्यासजी के आश्रम में आया और जम्हाई लेती हुई उनकी पत्नी के मुख में सूक्ष्म रूप बनाकर प्रवेश कर गया। शंकरजी ने व्यासजी से कहा कि मैं वाटिका का त्रिशूल से संहार करना चाहता हूँ। व्यासजी ने कहा–’इसका अपराध क्या है?’ तब शंकरजी ने कहा–’इसके मुख में प्रविष्ट शुक ने ‘अमर कथा’ सुन ली है।’ व्यासजी हँसते हुए बोले–’तब तो ये अमर हो गया।’ भगवान शंकर वापिस लौट गए।
यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। कथा के प्रभाव से गर्भ में ही इन्हें वेद, पुराण, उपनिषद् और दर्शन का ज्ञान हो गया था। माता के उदर में आने पर भी योग के प्रताप से ये बारह वर्ष तक गर्भ से बाहर ही नहीं निकले कि कहीं उन पर माया का प्रभाव न पड़ जाए। जब व्यासजी ने दिव्यदृष्टि से इन्हें देखकर पूछा कि तुम बाहर क्यों नहीं आते? तब श्रीशुकदेवजी ने कहा–’मुझे सांसारिक माया घेर लेगी। हाँ, यदि भगवान श्रीकृष्ण आकर यह आश्वासन दें कि मुझ पर माया का प्रभाव नहीं होगा, तब मैं बाहर प्रकट हो जाऊँगा।’ देवर्षि नारद की प्रार्थना से भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर आश्वासन दिया कि जन्म लेने पर भी माया उनको स्पर्श नहीं करेगी, तभी वे गर्भ से बाहर आए। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने माता-पिता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिए वन की राह ली। न तो उनका नाल काटा गया और न जातकर्म-संस्कार ही हुआ था। अपने परम सुन्दर तेजोमय पुत्र को उत्पन्न होते ही वन में जाते देखकर पुत्र-स्नेहवश व्यासजी इनके पीछे ‘हा पुत्र ! हा पुत्र’ ! कहते हुए जाने लगे।
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु-
स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि।।
अर्थात्–‘जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था, लौकिक-वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे–’बेटा ! बेटा !’ उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया। ऐसे सबके हृदय में विराजमान श्रीशुकदेवमुनि को मैं नमस्कार करता हूँ।’
श्रीशुकदेवजी समस्त जगत को अपना स्वरूप ही समझते थे, अत: उनकी ओर से वृक्षों ने कहा–’महाराज ! आप ज्ञानी हैं और पुत्र के पीछे पड़े हैं। पिताजी मेरे पीछे नहीं, परमात्मा के पीछे पड़िए।’ श्रीशुकदेवजी ने वृक्षों द्वारा बोध दिया है–’कौन किसका पिता और कौन किसका पुत्र? वासना पिता बनाती है और वासना ही पुत्र बनाती है।’ जीव का ईश्वर के साथ सम्बन्ध ही सच्चा है। ऐसा ज्ञान देकर श्रीशुकदेवजी वन में जाकर समाधिस्थ हो गए।
श्रीशुकदेवजी का जीवन भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। व्यासजी की हार्दिक इच्छा थी कि श्रीशुकदेवजी श्रीमद्भागवत का अध्ययन करें पर वे मिलते ही नहीं थे। श्रीशुकदेवजी निवृत्तिपरायण एवं ब्रह्मनिष्ठ थे। वेदव्यासजी ने जब ध्यान से देखा तो उन्हें मालूम हुआ कि श्रीशुकदेवजी के अन्त:स्थल में पहले से ही भागवत-संस्कार विद्यमान हैं। उनके पुत्र श्रीशुकदेवजी का चित्त केवल भगवान के गुणों पर ही खिंच सकता है क्योंकि पूर्वजन्म में वे भगवान शंकर के मुख से अमर-कथा सुन चुके हैं। इससे यदि मैं इन्हें श्रीमद्भागवत के श्लोक सुनाऊँ, तो उन्हें सुनकर वे अवश्य आकृष्ट हो जायेंगे। श्रीव्यासजी ने श्रीमद्भागवत की कृष्णलीला के व श्रीकृष्ण की दयालुता के दो श्लोक बनाकर अपने शिष्यों को रटा दिये और वन में जहां श्रीशुकदेवजी समाधिस्थ थे, वहां जाकर वे शिष्य उन श्लोकों का मधुर गायन करने लगे। वे श्लोक हैं–
बर्हापीडं नटवरवपु: कर्णयो: कर्णिकारं,
बिभ्रद् वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै-
र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति:।। (श्रीमद्भागवत १० । २१ । ५)
अर्थात्–‘श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं। उनके सिर पर मयूरपिच्छ है और कानों पर कनेर के पीले-पीले पुष्प; शरीर पर सुनहला पीताम्बर और गले में पाँच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी वैजयन्ती माला है। रंगमंच पर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नट का-सा क्या ही सुन्दर वेष है। बाँसुरी के छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहे हैं। उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्ति का गान कर रहे हैं। इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिह्नों से और भी रमणीय बन गया है।’
अहो बकी यं स्तनकालकूटं
जिघांसयापाययदप्यसाध्वी।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम।। (श्रीमद्भागवत ३ । २ । २३)
अर्थात्–‘पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्ण को मार डालने की नियत से उन्हें दूध पिलाया था, उसको भी भगवान ने वह परम गति दी जो धाय को मिलनी चाहिए। उन भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें।’
इन श्लोकों में श्रीकृष्ण की अनुपम रूपमाधुरी व दयालुता ने श्रीशुकदेवजी के हृदय को पिघला दिया और उनकी समाधि भंग हो गई। उन्होंने मुनिकुमारों से पूछा–’इन श्लोकों को आप लोगों ने कहां से सीखा?’ मुनिकुमारों ने कहा–’गुरू वेदव्यासजी से।’ यह सुनकर श्रीशुकदेवजी भगवान वेदव्यास के पास आए और उनसे श्रीमद्भागवत के अठारह हजार श्लोकों का अध्ययन किया। अध्ययन के पश्चात् व्यासजी ने इन्हें राजा जनक से ज्ञान प्राप्त करने के लिए कहा क्योंकि बिना गुरु के ज्ञान सुदृढ़ एवं स्पष्ट नहीं होता। पिता की आज्ञा मानकर श्रीशुकदेवजी पैदल ही जनकपुर के लिए चल दिए।
जनकपुर में श्रीशुकदेवजी की परीक्षा
श्रीशुकदेवजी अनेक पर्वतों, वनों, नदियों को पार कर उत्तराखण्ड से पैदल ही जनकपुर पहुँचे। जब वे सीधे राजमहल में जाने लगे तो द्वारपालों ने उन्हें डांटकर रोक दिया। वे वहीं तपती धूप में खड़े रहे। रास्ते की थकावट, द्वारपालों द्वारा किए गए तिरस्कार और तेज धूप से भी उन्हें कोई कष्ट नहीं हुआ। फिर द्वारपालों ने श्रीशुकदेवजी को राजमहल की दूसरी ड्यौढ़ी पर ले जाकर बिठा दिया, वहां भी वह चुपचाप बैठकर आत्मचिंतन करने लगे। थोड़ी देर बाद राजमंत्री आए और श्रीशुकदेवजी को अंत:पुर से लगे प्रमदावन में ले गए। वहां श्रीशुकदेवजी को अकेला छोड़कर राजमंत्री चले गए। राजमंत्री के जाते ही वस्त्राभूषणों से सुसज्जित अनेक तरूणियां दौड़कर श्रीशुकदेवजी के पास आयीं। श्रीशुकदेवजी को स्वादिष्ट भोजन कराकर वे नाचने-गाने लगीं। परन्तु श्रीशुकदेवजी अपने चिंतन में इतने मग्न थे कि उन तरूणियों की सेवा से न तो वे हर्षित हुए और न ही क्रोधित। सायंकाल में उन स्त्रियों ने एक स्वर्णजड़ित पलंग जिस पर कोमल बिछौना बिछा था, श्रीशुकदेवजी को सोने के लिए दिया। पहले तो श्रीशुकदेवजी ने हाथ-पैर धोकर संध्या की और फिर वे आसन पर बैठकर ध्यान करने लगे। रात्रि के प्रथम पहर में उन्होंने निद्रा ली और चौथे प्रहर में उठकर नित्य-कर्म में लग गए। स्रियों से घिरे रहने पर भी वे निर्विकार, शान्त और अपने कर्तव्य में लगे रहे।
ज्ञान का वही अधिकारी है, जो सुख-दु:ख, हर्ष-शोक आदि से प्रभावित न होता हो। श्रीशुकदेवजी की परीक्षा पूरी हुई। तिरस्कृत होकर धूप में बैठना तथा सम्मान के साथ स्रियों से सेवित होना–दोनों उनके लिए एक-जैसे थे। प्रात:काल राजा जनक पुरोहितों के साथ वहां आए। श्रीशुकदेवजी का उन्होंने पूजन किया और फिर श्रीशुकदेवजी के तत्त्वज्ञान सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देकर उनको संतुष्ट किया।
परमहंस शुकदेवजी के स्वरूप का वर्णन
श्रीशुकदेवजी व्यासपुत्र हैं। वे अवधूत वेशधारी हैं। नग्न दिगम्बर हैं। उनकी वासना समाप्त हो गयी है। पूर्ण निर्वसन हैं। उन्हें देह का भान नहीं है। वे योगी, समदर्शी व भेदभाव रहित हैं। वे किसी से कोई अपेक्षा न रखते हुए स्वेच्छा से पृथ्वी पर विचरते हैं। वे वर्ण और आश्रमों के बाह्यचिह्नों से रहित, एकमात्र परमात्मा में ही स्थित रहते हैं। शुकदेवजी गंगा-तट पर विचरण करते हैं। अति सुन्दर देवकन्याएं गंगाजी में स्नान कर रही हैं। शुकदेवजी की आँखें खुली हैं, पर उन्हें मालूम ही नहीं हो रहा कि कोई स्त्री स्नान कर रही है। उन्हें यह अहसास ही नहीं हो रहा कि मैं पुरुष हूँ। खुली आँखों से उन्हें जगत नहीं वरन् सर्वत्र परमात्मा श्रीकृष्ण ही दिखाई दे रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चे उनके पीछे भाग रहे हैं, यह सोचकर कि यह कोई नंगा जा रहा है। कोई रेत, पत्थर भी फेंक रहा है। वे मूढ़, गूंगे और जड़ के समान विचरण करते रहते हैं। इस तरह श्रीशुकदेवजी तो श्रीकृष्ण के ध्यान में देह को ही भूल गए हैं। ऐसी स्थिति ही परमहंसों की होती है।
इस सम्बन्ध में श्रीमद्भागवत में एक कथा है–
व्यासजी जब संन्यास के लिए वन की ओर जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करने वाली स्त्रियों ने नंगे शुकदेवजी को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परन्तु वस्त्र पहने हुए व्यासजी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन लिए थे। इस आश्चर्य को देखकर जब व्यासजी ने उन स्त्रियों से इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि–’आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है इससे हमने लज्जा की, परन्तु आपके पुत्र की शुद्ध दृष्टि में यह भेद नहीं है। उनके सामने हम लोगों को इसी से लज्जा नहीं आई।’ स्रियों की बात सुनकर व्यासजी आश्रम को लौट गए; क्योंकि जिसमें इतनी अभेद-दृष्टि है, उसे समझाकर लौटाया नहीं जा सकता।
राजा परीक्षित को जब श्रीशुकदेवजी गंगाजी के तट पर भगवद् ज्ञान देने के लिए पधारे, तब उनकी अवस्था सोलह वर्ष की थी। उनके सभी अंग अत्यन्त सुन्दर थे। बड़े-बड़े नेत्र, ऊँची नाक, सुन्दर भौंहें, कपोल, कंधे, भुजाएं, चरण, जंघा आदि सभी अत्यन्त सुकुमार थे। गला तो मानो सुन्दर शंख ही था। हँसली ढकी हुई, उभरी व चौड़ी छाती, नाभि भँवर के समान गहरी, व पेट पर त्रिवली (तीन रेखाएं) बड़ी ही सुन्दर दिखाई देती थीं। वे आजानबाहु (लंबी-लंबी भुजाओं वाले) थे। उनके हाथ घुटनों तक पहुँच रहे थे। मुख पर घुँघराले बाल बिखरे हुए थे। दृष्टि नाक के अग्र भाग पर स्थिर थी। दिगम्बर वेष में भी वे देवता के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। श्रीकृष्ण के ध्यान में रहने से उनका शरीर प्रभु के श्रीअंग जैसा श्याम हो गया है। चित्त को चुराने वाले शारीरिक सौंदर्य, श्याम वर्ण और मधुर मुस्कान से वे सदैव मनोहर जान पड़ते थे। अत्यन्त प्रखर बुद्धि शुकदेवजी महात्माओं, ब्रह्मर्षियों और देवर्षियों के भी आदरणीय थे। जब वे ऋषियों की सभा में आए तो चारों ओर प्रकाश छा गया। ऋषियों को आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे कि सूर्यनारायण तो कहीं धरती पर नहीं आ गए। फिर उन्होंने देखा कि नहीं, नहीं, ये तो महान परमहंस पधारे हैं।
गंगातट पर राजा परीक्षित के पास श्रीशुकदेवजी का आगमन
राजा परीक्षित को विश्वास हो गया कि ये मेरी मृत्यु को सुधारने आए हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने ही मेरे मरण को सुधारने के लिए इन्हें प्रेरणा दी है। जब राजा परीक्षित राजमहल में विलासी जीवन व्यतीत कर रहे थे तब शुकदेवजी नहीं पधारे। पर आज जब सब कुछ छोड़कर परमात्मा के लिए गंगा-तट पर जा बैठे हैं तो श्रीशुकदेवजी बिना निमन्त्रण आये हैं। जिन्हें लंगोट तक की जरूरत नहीं, जो आँख उठाकर किसी की तरफ देखते तक नहीं–ऐसे शुकदेवजी को कौन निमन्त्रण दे सकता है? वे तो भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से आए हैं। जब जीव योग्य बनता है; सद्-शिष्य बनता है, तब परमात्मा उसे सद्गुरू के दर्शन करवाते हैं। साधारण लोग मृत्यु का नाम सुनकर घबड़ा जाते हैं, परन्तु महापुरुषों की यही विशेषता होती है कि वे मृत्यु का भी आलिंगन करते हैं। परीक्षित ने भी अपनी मृत्यु की उपस्थिति से बड़ा लाभ उठाया और जगत से ममता तोड़कर गंगा किनारे सात दिन के अनशन का निश्चय कर संत-महात्माओं का सत्संग करने लगे। बाह्यदृष्टि से देखा जाए तो राजा परीक्षित के लिए यह बड़ा कठिन समय था। परन्तु अन्तर्दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है कि यह घटना उन पर और सारे संसार पर भगवान की महती कृपा थी, क्योंकि इसी घटना के कारण श्रीमद्भागवत-जैसा महापुराण संसार को प्राप्त हो गया। इन्होंने इस परमहंससंहिता का सप्ताह-पाठ राजा परीक्षित को सुनाया, जिसके प्रभाव से परीक्षित भगवान के मंगलधाम को गए। क्या करने के लिए भगवान क्या करते हैं–इस प्रश्न का उत्तर तो केवल भगवान ही जानते हैं, हमें तो केवल फल देखकर ही आनन्दित होते रहना चाहिए।
श्रीशुकदेवजी का अनुपम दान–श्रीमद्भागवत
राजा परीक्षित भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्धी, कृपापात्र भक्त एवं वात्सल्यभाजन थे। उनमें दिव्यदृष्टि स्वाभाविक थी। जिस शरीर की ब्रह्मास्त्र से दग्ध होने पर मृत्यु नहीं हो सकी थी (महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने परीक्षित की माता उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर परीक्षित को जीवनदान दिया था), उसकी मृत्यु किसी अन्य निमित्त से नहीं हो सकती थी। अत: परीक्षित को ही निमित्त बनाकर केवल द्वापर के लिए ही नहीं, सदा के लिए भगवान ने श्रीमद्भागवत के रूप में वाड़्मय-अवतार ग्रहण किया। राजा परीक्षित ने भगवान की प्रेरणा से जगत के हित के लिए, समस्त मृत्युग्रस्त प्राणियों के उद्धार के लिए श्रीशुकदेवजी से अनेक प्रश्न किए। परीक्षित के प्रश्नों के उत्तर में श्रीशुकदेवजी ने वेदों के सार को अपने अनुभव के रस से युक्त करके सारे जगत को वितरित किया। श्रीशुकदेवजी का वही अनुपम दान श्रीमद्भागवत के नाम से विख्यात है। यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का परिपक्व फल है, श्रीशुकदेवरूप शुक (तोते) के मुख का संयोग होने से अमृतरस से परिपूर्ण है (यह प्रसिद्ध है कि तोते का काटा हुआ फल अधिक मीठा होता है)। यह रस-ही-रस है–इसमें न छिलका है न गुठली। यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलास और वैकुण्ठ में भी नहीं है। श्रीमद्भागवत के दर्शन, स्पर्श, स्मरण, अध्ययन एवं श्रवण से मनुष्य का अंत:करण शुद्ध हो जाता है और वह परमात्मा के मार्ग का अनुसरण करने लगता है।
श्रीशुकदेवजी के राधानाम से प्रेम के सम्बन्ध में एक कथा आती है कि श्रीशुकदेवजी श्रीराधाजी के महल में ही लीलाशुक (तोते) के रूप में रहते थे और उनकी लीला के दर्शन में मुग्ध रहते थे। राधानाम का उच्चारण करते ही श्रीशुकदेवजी इतने भावमुग्ध हो जाते कि उनको छ: महीने की मूर्च्छा-समाधि लग जाती और आगे की कथा बन्द हो जाती जबकि राजा परीक्षित के जीवन के केवल सात दिन ही शेष रह गए थे। इसलिए श्रीमद्भागवत-ग्रन्थ में श्रीशुकदेवजी ने कहीं भी राधानाम का स्पष्ट उच्चारण नहीं किया है–
श्रीराधानाममात्रेण मूर्च्छा षाण्मासिकी भवेत्।
नोच्चारितमत: स्पष्टं परीक्षिद्धितकृन्मुनि:।।
श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेवजी ने श्रीराधा का नामोच्चारण क्यों नहीं किया है? इसके सम्बन्ध में ब्रज के एक रसिक संत श्रीव्यासदेवजी का एक पद है–
परमधन श्रीराधा नाम अधार।
जाहि स्याम मुरली में टेरत सुमिरत बारम्बार।।जंत्र मंत्र औ बेद तंत्र में सबै तार का तार।
श्रीसुकदेव प्रगट नहिं भाख्या जानि सार कौ सार।।कोटिक रूप धरे नंदनन्दन तऊ न पायौ पार।
‘व्यासदास’ अब प्रगट बखानत डारि भार में भार।।
अभिप्राय यह है कि श्रीराधाजी का नाम तारक का भी तारक एवं श्रीकृष्ण नाम से भी गोपनीय है; क्योंकि श्रीराधानाम भगवान श्रीकृष्ण के जीवन का भी आधार और आत्मा हैं।
श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेवजी ने जगह-जगह पर भगवान के नाम की अद्भुत महिमा गाई है। वे कहते हैं कि भगवान के सभी नाम मंगलमय हैं। विवश होकर, छींकते, गिरते-पड़ते, छलपूर्वक भी मनुष्य उनके उच्चारण अथवा श्रवण करने से अशेष कर्मबन्धन को अनायास काट डालता है। जब अपने पुत्र के नामोच्चारण से भगवन्नामोच्चारण हो जाने से अजामिल जैसा अधम प्राणी भगवान के धाम को चला गया तो जो निरन्तर भगवन्नाम का उच्चारण करते रहते हैं, उनकी महिमा कौन कह सकता है।
ध्रुव की माता सुनीति उसे शुकदेवजी का उदाहरण देते हुए भगवन्नाम-जप करने का परामर्श देती है–
सुक सनकादि मुकुत विचरत तेउ भजन करत अजहूँ।
अर्थात्–शुकदेवजी जीवनमुक्त हैं, सनकादि भी जीवनमुक्त हैं; वे विरक्त होकर प्राय: सर्वत्र विचरण करते रहते हैं तथापि भजन का परित्याग नहीं करते।
श्रीशुकदेवजी की वंदना करते हुए कहा गया है–
‘श्रीशुकदेवजी अपने आत्मानन्द में ही निमग्न थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थिति से उनकी भेद-दृष्टि सर्वथा निवृत हो चुकी थी। फिर भी मुरलीमनोहर श्यामसुन्दर की मधुमयी, मंगलमयी, मनोहारिणी लीलाओं ने उनकी वृत्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत के प्राणियों पर कृपा करके भगवत्तत्त्व को प्रकाशित करने वाले इस महापुराण का विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी के चरणों में नमस्कार करता हूँ।’ (श्रीमद्भागवत)
ॐ नमो भगवतय जो श्री मद भागवत को सुनता उस मनुष्य नहीं चेतना आति और उसको प्रभु भगति प्राप्त करता है
जय श्री कृष्णा
શ્રીમદ ભાગવત એ ભારતીય સંસ્કૃતિનો અમર ગ્રંથ છે. ભગવાન જ્યારે શ્રીધામ સિધાવ્યા ત્યારે તેમનું સમગ્ર હ્રુદય જે આ ભાગવતજી માં પધરાવ્યું. છે.,જેને વેદ વ્યાસે રચ્યું અને ભગવદ શુકજી ચાખીને પવિત્ર અને સ્વાદિષ્ટ બનાવ્યું. ઓમ નમો ભગવતે વાસુદેવાય !!
thanku i reed all story about sukdev goswami.
2015-12-17 22:17 GMT+05:45 Aaradhika :
> Archana Agarwal posted: “योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरुपिणे।
> संसारसर्पदष्टं यो विष्णुरातममूमुचत्।। (श्रीमद्भागवत १२ । १३ । २१)
> अर्थात्–‘हम उन योगिराज ब्रह्मस्वरूप श्रीशुकदेवजी को नमस्कार करते हैं,
> जिन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण सुनाकर संसार-सर्प से डसे हुए राजर्षि
> परीक्षि”
Vasudev kutumbakam….,
very nice please keep this up !! hari bol ! mataji pls kya aap bata sakti he ki dhruv ki mata ne dhruv ko shukdevji ke bare me kaise bataya kyonki shri shukdevji to pichle dwapar me prakat hue he jo parashara aur satyavati ke putra vyasji ke pitra he ? hare krishna !
इहै कह्यो सुत! बेद चहूँ।
श्रीरघुबीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ ॥ १ ॥
जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।
सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तेउ भजन करत अजहूँ ॥ २ ॥
जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।
हरि-पद-पंकज पाइ अचल भइ,करम-बचन-मनहूँ ॥ ३ ॥
करुनासिंधु,भगत-चिंतामनि,सोभा सेवतहूँ।
और सकल सुर,असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ ॥ ४ ॥
सुरुचि कह्यो सोइ सत्य तात अति परुष बचन जबहूँ।
तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ ॥ ५ ॥
Thanks for your valuable comment. This ‘pad’ is from Vinyawali by Tulsidasji for removal of your doubt.
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Shrimat Bhagwat Puraan Kathaa marane ki kalaa sikhaati hai log jeewan bhar paap me lage rahate hai or mar jaate hai fir apne karmo ke adhaar per dharati per naya janma lekar aatee hai or fir vahio karate jo ve anaant janmo tak karate aa rahe hai unke liye is kathaa ka raspaan karane se mukti mil jaati hai or jeev jan or mratyu ke bandhan se mukt ho jaataa hai Fir unhe dubaaraa janm lene ki jarurat nahi hoti or vo godhaam ko jaataa hai
Sri Hari, jai ho jai ho
thanks
Aap ko hoti koti Naman
Hindi ka
Archana Agarwal Ji
इस तरह की सरल जानकारी और भारतीय के पास आनी चाहिए ऐसा प्रयास हो ।