वन्दे वृन्दावनानन्दां राधिकां परमेश्वरीम्।
गोपिकां परमां श्रेष्ठां ह्लादिनीं शक्तिरुपिणीम्।।
श्रीराधा कौन हैं? श्रीराधा हैं–श्रीकृष्ण का सुख। श्रीराधा हैं–श्रीकृष्ण का आनन्द। भगवान का आनन्दस्वरूप ही श्रीराधा के रूप में अभिव्यक्त है। श्रीराधा न हों तो श्रीकृष्ण के आनन्दरूप की सिद्धि ही न हो। श्रीराधा चिदानन्द परमात्मा की मौज हैं, अन्तर का आह्लाद हैं, उसी आह्लाद की प्रकटरूपा श्रीराधा हैं। जैसे सूर्य से ताप, चन्द्र से शीतलता, जल से वीचि (लहर) अलग नहीं की जा सकती, उसी प्रकार श्रीकृष्ण से उनकी आह्लादिनी शक्ति पृथक् नहीं की जा सकती। वे ही श्रीराधा हैं।
श्रीगहवरवन कुंज भवन में बैठे श्याम मूंद युग अंखियां।
श्रीराधा पद ज्योति ध्यान में मत्त अकेले तहां न सखियां।
प्रियाचरण मधुरस में हरि के चित्त की वृत्ति भई मधुमखियां।
नंदलाल की इष्ट राधिका स्वामिनी वे ही हैं मम गतियां।।
श्रीकृष्ण सत्-चित् और आनन्दस्वरूप हैं। संतों ने सत् से वृन्दावनधाम, चित् से चित्स्वरूप भगवान की परम सहायिका योगमाया और आनन्द से श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा को माना है। कहने का तात्पर्य यह है कि वृन्दावनधाम (गोलोक) नित्य है, योगमाया नित्य है और श्रीराधिका नित्य हैं, जिनकी नित्य लीला सदैव होती रहती है। श्रीकृष्ण ब्रह्माण्ड-रचियता हैं तो श्रीराधा उनकी ऊर्जा हैं। राधाकृष्ण रूप में ही समस्त ब्रह्माण्ड व्याप्त हो रहा है।
श्रीराधा अनादि हैं। इनका प्राकट्य भी भगवान के प्राकट्य की भांति सदा दिव्य हुआ करता है। श्रीराधा भगवान श्रीकृष्ण की भांति ही नित्य सच्चिदानन्द-स्वरूपा हैं। भगवान श्रीकृष्ण की भांति ही समय-समय पर लीला के लिए आविर्भूत होती हैं। एक बार ये गोलोकधाम में श्रीकृष्ण के वामांग से प्रकट हुई थीं। उन्होंने ही फिर व्रजभूमि के अंतर्गत बरसाने (वृषभानुपुर में रावल ग्राम) में श्रीवृषभानुजी के घर कीर्तिदारानीजी की कोख से प्रकट होने की लीला की थी। श्रीराधा अयोनिजा थीं, माता के पेट से पैदा नहीं हुईं। उनकी माता ने अपने पेट में ‘वायु’ को धारणकर रखा था। उन्होंने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया; परन्तु वहां स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गयीं।
श्रीमद्देवीभागवत के अनुसार दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री–ये पांच प्रकृति हैं। उनमें सर्वशक्तिस्वरूपा दुर्गा, सर्वसम्पत्स्वरूपा लक्ष्मी, सर्वविद्यास्वरूपा सरस्वती, शुद्धसत्यस्वरूपा सावित्री तथा परमानन्दस्वरूपा राधा परिपूर्णतमा हैं। श्रीराधा पांच प्राणों की अधिदेवी होने से पांचवीं प्रकृति बतलायी गयी हैं। परमानन्दस्वरूपा ये श्रीकृष्ण की रासक्रीडा की अधिष्ठात्री देवी हैं, जो सभी सुन्दरियों में सुन्दरी हैं, श्रीकृष्ण के वामअंग से प्रकट होने से अर्धस्वरूपा हैं। ये निर्गुणा (प्राकृत गुणों से रहित), निराकारा (प्राकृत आकार से रहित), निर्लिप्ता, संतोष एवं हर्षरूपिणी हैं।
श्रीराधिकाजी स्वयं यशोदाजी से कहती हैं–’रा’ शब्द का अर्थ है–जिनके एक-एक रोमकूप में सम्पूर्ण विश्व (महाविष्णु, विश्व के प्राणी और सम्पूर्ण विश्व) भरे हैं एवं ‘धा’ शब्द धात्री (माता) का वाचक है। अत: मैं ही महाविष्णु, विश्व के सम्पूर्ण प्राणी तथा समस्त विश्व की धात्री (माता) ईश्वरी मूलप्रकृति हूँ।’
रासलीला में जब रासेश्वर श्रीकृष्ण रासेश्वरी के साथ अन्तर्धान हो गए तब युगलसरकार के पदचिन्हों को देखकर गोपियों ने ही श्रीकृष्ण के साथ गयी गोपी का ‘राधा’ नामकरण किया–’अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की वे ‘आराधिका’ (आराधन करने वाली राधिका) होंगी। इसीलिए उन पर प्रसन्न होकर हमारे प्यारे श्रीकृष्ण ने हमको छोड़ दिया है और उन्हें एकान्त में ले गए हैं।’ इसी कारण इनका नाम श्रीराधा प्रसिद्ध हुआ।
एक अन्य मत के अनुसार–गोलोक में जो रास के समय श्रीकृष्ण के समीप धावन करके पहुंची, वे राधा के नाम से प्रख्यात हुईं।
राधा श्रीकृष्ण की भक्ता हैं, प्रेमिका हैं, उपासिका-आराधिका हैं। श्रीराधा श्रीकृष्ण की शक्ति हैं, श्रीराधा भगवान की सम्पूर्ण ईश्वरी, हैं, सम्पूर्ण सनातनी विद्या हैं, श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं। एकान्त में चारों वेद इनकी स्तुति करते हैं। इनकी महिमा का ब्रह्माजी अपनी समस्त आयु में भी वर्णन नहीं कर सकते।
इनको गान्धर्वा, व्रजठकुरानी, श्रीराधामहारानी, किसोरीजी, लाड़िलीजी, स्वामिनीजी, नित्य-श्रीकृष्णवल्लभा, श्रीकृष्णात्मा, श्रीकृष्णप्राणस्वरूपा, श्रीकृष्णाराधनतत्परा, श्रीकृष्णाराध्या, सच्चिदानन्दघनरूपिणी, श्रीकृष्णात्मस्वरूपिणी, श्रीकृष्णानुगामिनी, परमतत्त्वाभिरामिणी, स्वेच्छाविलासिनी, दिव्याह्लादिनी, दिव्यलीलामयी, अखिलविश्वमोहनमोहिनी, नित्यरासेश्वरी, नित्यनिकुंजेश्वरी, श्रीकृष्णप्राणेश्वरी और वृन्दावनेश्वरी भी कहते हैं।
श्रीकृष्ण की आराधिका–श्रीराधिका
कृष्णेन आराध्यते इति राधा।
कृष्णं समाराधयति सदेति वा राधिका।।
श्रीकृष्ण जिनकी आराधना करते हैं, वे राधा हैं तथा जो सदैव श्रीकृष्ण की आराधना करती हैं, वे राधिका कहलाती हैं। श्रीराधा प्रेमभक्ति की प्रतीक हैं। श्रीकृष्ण की आराधिका शक्ति हैं। राधा-कृष्ण परस्पर एक-दूसरे की आराधना करते हैं। अत: ये दोनों ही परस्पर आराध्य और आराधक हैं।
ब्रह्माण्डपुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–’राधा की आत्मा सदा मैं श्रीकृष्ण हूँ और मेरी (श्रीकृष्ण की) आत्मा निश्चय ही राधा हैं। श्रीराधा वृन्दावन की ईश्वरी हैं, इस कारण मैं राधा की ही आराधना करता हूँ।’
श्रीराधा-कृष्ण–एक ही तत्त्व
राधाकापनी-उपनिषद् में कहा गया है–’जो ये राधा और जो ये कृष्ण रस के सागर हैं, वे एक ही हैं, पर खेल के लिए दो रूप बने हुए हैं।’
कृष्ण शक्तिमय, शक्ति राधिका चिन्मय एक तत्त्व भगवान।
नित्य अनादि अनन्त अगोचर अमल अनामय सत्य महान।।
त्रिगुणरहित भगवद्गुणमय शुचि सच्चिन्मय आनन्द शरीर।
लीलामय, लीला, लीला-रत, दो तनु दिव्य नित्य अशरीर।।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के कृष्णखण्ड में भगवान श्रीकृष्ण ने राधा से कहा है–’राधिके ! वास्तव में हम-तुम दो नहीं हैं; जो तुम हो, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही तुम हो। जैसे दूध में धवलता है, अग्नि में दाहिका शक्ति है, पृथ्वी में गन्ध है, उसी प्रकार मेरा-तुम्हारा अभिन्न सम्बन्ध है। सृष्टि की रचना में भी तुम्हीं उपादान बनकर मेरे साथ रहती हो। मिट्टी न हो तो कुम्हार घड़ा कैसे बनाये; सोना न हो तो सुनार गहना कैसे बनाए। वैसे ही यदि तुम न रहो तो मैं सृष्टिरचना नहीं कर सकता। तुम सृष्टि की आधाररूपा हो और मैं उसका अच्युत बीज हूँ।’
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीराधा को अपना देहार्ध तथा परम शक्तिरूप बताते हुए कहा है–’हे राधे ! गोलोक की भांति ही तुम गोकुल की भी राधा हो। तुम्हीं वैकुण्ठ की महालक्ष्मी और महासरस्वती हो। क्षीराब्धिशायी की प्रियतमा मर्त्यलक्ष्मी तुम्ही हो। धर्म की पुत्रवधू शान्ति के रूप में तुम्ही प्राणिमात्र की काम्य हो। भारत में कपिलभार्या भारती के रूप में तुम्हीं प्रतिष्ठित हो। सती द्रौपदी तुम्हारी ही छाया है। द्वारका में श्री की अंशभूता रुक्मिणी के रूप में तुम्हीं निवास करती हो। तुम्ही रामपत्नी सीता हो।’ (ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड)
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–’जैसे आभूषण शरीर की शोभा है, उसी प्रकार तुम मेरी शोभा हो। राधा के बिना मैं नित्य ही शोभाहीन केवल निरा कृष्ण (काला-कलूटा) रहता हूँ, पर राधा का संग मिलते ही सुशोभित होकर ‘श्री’ सहित कृष्ण–श्रीकृष्ण बन जाता हूँ। राधा के बिना मैं क्रियाहीन और शक्तिशून्य रहता हूँ; पर राधा का संग मिलते ही वह मुझे क्रियाशील (लीलापरायण), परम चंचल और महान शक्तिशाली बना देता है।’ जहां भी कृष्ण के साथ श्री का प्रयोग होता है, वहां श्रीराधाजी विद्यमान रहती हैं। श्रिया सहित: कृष्ण:–श्रीकृष्ण:। श्रीरूप तो श्रीराधाजी ही हैं।
राधा बिना अशोभन नित मैं,
रहता केवल कोरा कृष्ण।
राधा-संग सुशोभित होकर,
बन जाता हूँ मैं ‘श्री’कृष्ण।।
स्पष्ट है कि श्रीराधा श्रीकृष्ण की अविच्छिन्न शक्ति हैं। वे किसी भी रूप में कहीं भी अवतरित हों, यह शक्ति उनके साथ ही रहती है। श्रीवृषभानुकुमारी श्रीराधा आनन्दचन्द्र की कौमुदी है अर्थात् रसराज श्रीकृष्ण ही आनन्दरूप चन्द्रमा हैं और श्रीराधाजी उनकी ज्योत्सना हैं। श्रीनिम्बार्काचार्यजी के शब्दों में–
अंगे तु वामे वृषभानुजां मुदा,
विराजमानामनुरूपसौभगाम्।
सखीसहस्त्रै: परिसेवितां सदा,
स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम्।।
अर्थात्–भगवान श्रीकृष्ण के समान गुण और स्वरूपवाली एवं उनके वामांग में प्रसन्नतापूर्वक विराजमान सहस्त्रों सखियों द्वारा सेवित भगवान की दिव्य आह्लादिनी चिच्छक्त्ति एवं अपने अनन्य भक्तों को भुक्ति-मुक्ति आदि समस्त मनोवांछित कामनाओं को देनेवाली श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधिकाजी का हम स्मरण करते हैं।
श्रीराधा-प्रेम का स्वरूप
प्रेम अवनि श्रीराधिका प्रेम बरन नंदनन्द।
प्रेम वाटिका के दोऊ माली मालिन द्वन्द्व।।
श्रीराधा का प्रेम अनिर्वचनीय है। प्रेमभक्ति का चरम रूप श्रीराधाभाव है। प्रेम का जो सार है, वही राधा बन गया है। परम त्यागमय पवित्र प्रेम विकसित होकर जिस स्वरूप को प्राप्त होता है उसे ‘महाभाव’ कहते हैं। राधा-प्रेम का दूसरा नाम ‘महाभाव’ है। इसमें केवल ‘प्रियतम-सुख’ ही सब कुछ है। इनका स्वभाव है–श्रीकृष्ण की सारी कामनाओं को पूर्ण करना। ये इनके प्रेम का ही जादू है कि जो श्रीकृष्ण सर्वथा इच्छारहित हैं, वे इच्छा वाले बन जाते हैं, जिनको किसी वस्तु का अभाव नहीं, वह इनके प्रेमरस को प्राप्त करने के लिए मतवाले बन जाते हैं। श्रीकृष्ण की परम प्रेयसी सत्यभामाजी इच्छा करतीं हैं कि श्रीराधा जैसा सुहाग मुझे मिले। सौन्दर्य-माधुर्य और पातिव्रत्य में लक्ष्मी और पार्वती सबसे उत्तम मानी गयी हैं। ये दोनों भी इनके सौन्दर्य-माधुर्य की कामना करती हैं। लक्ष्मी और पार्वती दोनों में कामना है कि वे अपने पतियों की सेवा चाहती हैं, पर श्रीराधा में कोई-सी भी कामना नहीं है। अनुसूया-अरुन्धती पतिव्रता स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं पर वे भी श्रीराधा जैसा सतीत्व चाहतीं हैं। श्रीकृष्ण जगत् की सब चीजों को जानते हैं पर इन राधाजी के गुणों का वे भी पार नहीं पा सकते। श्रीराधा भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा हैं, उनके साथ सदा रमण करने के कारण ही ज्ञानी पुरुष श्रीकृष्ण को ‘आत्माराम’ कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी श्रीकालिन्दीजी के शब्दों में–’आत्माराम भगवान कृष्ण की आत्मा निश्चय ही श्रीराधाजी हैं।’
यह है श्रीराधा के स्वरूप का छोटा-सा वर्णन। ये केवल श्रीकृष्ण की आनन्दमूर्ति हैं। श्रीराधा के पद कमल हैं, जिनका पराग श्रीकृष्ण भ्रमररूप में ग्रहण करते हैं–
जयति जयति श्रीराधिके बंदौ पद अरविन्द।
चहत मुदित मकरन्द मृदु जेहि ब्रजचन्द मलिन्द।।
श्रीराधा और उनके नाम की महिमा
राधा राधा नाम को सपनेहूँ जो नर लेय।
ताको मोहन साँवरो रीझि अपनको देय।।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–उन राधा से भी उनका ‘राधा’ नाम मुझे अधिक मधुर और प्यारा लगता है। ‘राधा’ शब्द कान में पड़ते ही मेरे हृदय की सम्पूर्ण कलियां खिल उठती हैं। कोई भी मुझे प्रेम से राधा नाम सुनाकर खरीद सकता है। राधा मेरा सदा बंधा-बंधाया मूल्य है। राधा समस्त प्रेमीजनों की मुकुटमणि है। राधा के समान प्राणाधिक प्रिय दूसरा कहीं कोई नहीं है। वह सदा-सर्वदा मेरे वक्ष:स्थल पर निवास करती हैं।
श्रीराधा नाम की महिमा को श्रीकृष्ण ने इस प्रकार बताया है–’जिस समय मैं किसी के मुख से ‘रा’ सुन लेता हूं, उसी समय उसे अपनी उत्तम भक्ति-प्रेम दे देता हूं और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो वह दौड़कर श्रीहरि के धाम में पहुंच जाता है।’
‘रा’ शब्द का उच्चारण करने पर उसे सुनते ही माधव हर्ष से फूल जाते हैं और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो मैं प्रियतमा श्रीराधा का नाम-श्रवण करने के लोभ से उसके पीछे-पीछे चलने लगता हूं।’
सामवेद में ‘राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति बतायी गयी है। ‘राधा’ नाम के पहले अक्षर ‘र’ का उच्चारण करते ही करोड़ों जन्मों के संचित पाप और शुभ-अशुभ कर्मों के भोग नष्ट हो जाते हैं। ‘आकार’ के उच्चारण से गर्भवास (जन्म), मृत्यु और रोग आदि छूट जाते हैं। ‘ध’ के उच्चारण से आयु की वृद्धि होती है और आकार के उच्चारण से जीव भवबंधन से मुक्त हो जाता है। राधा नाम का ‘र’ श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों की भक्ति और दास्य प्रदान करता है। ‘आकार’ समस्त अभिलाषित पदार्थ और सिद्धियों की खान ईश्वर की प्राप्ति कराता है। ‘धकार’ का उच्चारण भगवान के साथ अनन्तकाल तक रहने का सुख, सारूप्य और उनका तत्वज्ञान प्रदान करता है। ‘आकार’ श्रीहरि की भांति तेजोराशि, दानशक्ति, योगशक्ति और श्रीहरि की स्मृति प्रदान करता है।
राधा देवी जगत्कर्त्री जगत्पालनतत्परा।
जगल्लयविधात्री च सर्वेशी सर्वसूतिका।। (बृहन्नारदीय पुराण)
अर्थात्–श्रीराधाजी जगत की रचना करने वाली, उसके पालन में तत्पर रहने वाली और प्रलय के समय संहार करने वाली हैं तथा सम्पूर्ण जगत की प्रसविनी (जननी) हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के भक्त को दास्य-रति प्रदान करने वाली एकमात्र ये ही हैं; क्योंकि सम्पूर्ण सम्पत्तियों में ये इस दास्यसम्पत्ति को ही सर्वश्रेष्ठ मानतीं हैं। इनके चरण-कमल के नख का दर्शन पाने के लिए ब्रह्माजी ने साठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी परन्तु वे स्वप्न में भी श्रीराधा का दर्शन प्राप्त नहीं कर सके। उसी तप के प्रभाव से ये वृन्दावन में प्रकट हुई हैं, जहां ब्रह्माजी को भी इनका दर्शन प्राप्त हो सका।
काहू के बल भजन को काहू के आचार।
व्यास भरोसे कुँवरि के सोवत पाँव पसार।।
श्रीराधा का स्वरूप
सामवेद मे श्रीराधा के ध्यान का वर्णन इस प्रकार है–परमेश्वरी श्रीराधा श्वेत चम्पा के समान आभा वाली हैं, शरत्कालीन चन्द्रमा के समान मुखवाली हैं, इनके श्रीविग्रह की कान्ति करोड़ों चन्द्रमाओं की प्रभा के समान है, ये शरद्ऋतु के खिले हुए कमल के समान नेत्रों वाली हैं, बिम्बाफल के समान ओष्ठवाली तथा स्थूल श्रोणीवाली हैं। इनकी दंतपक्ति कुंदपुष्पों की पंक्ति के समान है। इनके नितम्बदेश में करधनी सुशोभित है, इन्होंने दिव्य नील रेशमी वस्त्र धारण कर रखा है। मन्द-मन्द मुसकानयुक्त प्रसन्न मुखमण्डलवाली हैं। ये सदा बारह वर्ष की अवस्था वाली प्रतीत होती हैं, रत्नमय आभूषणों से अलंकृत हैं, भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए आतुर हैं। वे सहस्त्र-सहस्त्र गौरी की अपेक्षा भी अधिक गौरवर्णा हैं, तथापि श्रुतियों में वे श्यामा के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनके केशों में मल्लिका तथा मालती के पुष्पों की मालाएं लगी हैं। और अंगों में मोतियों की लड़ियां शोभा दे रही हैं। ये रासमण्डल के मध्य भाग में विराजमान हैं। इन्होंने अपने हाथों में वर तथा अभय मुद्राओँ को धारण कर रखा है। ये शांत स्वभाववाली तथा सदा शाश्वत यौवन से सम्पन्न हैं। ये रत्ननिर्मित सिंहासन पर विराजमान हैं। समस्त गोपियों की स्वामिनी हैं और भगवान श्रीकृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वेदों में भी इन परमेश्वरी राधिका का वर्णन हुआ है। इनका श्रीविग्रह मानो शोभा (श्री) का लहराता हुआ अनन्त सागर है।
श्रीकृष्ण से पहले राधा का नाम लेने का कारण
एक बार नारदजी ने भगवान नारायण से पूछा–’प्रभो! विद्वान पुरुष ‘राधाकृष्ण’ के नामोच्चारण में पहले ‘राधा’ का नाम लेते हैं, तत्पश्चात् ‘कृष्ण’ का नाम लेते हैं, ऐसा क्यों? भगवान नारायण ने कहा–’प्रकृति ही सारे संसार की माता है एवं पुरुष जगत्-पिता। माता का गौरव पिता से सौगुना अधिक है।’ शास्त्रों में भी राधाकृष्ण, सीताराम, गौरीशंकर आदि ही कहा गया है। इसीलिए कहा गया है कि पुरुषवाची शब्द के पहले प्रकृतिवाची शब्द का उच्चारण करना चाहिए।
श्रीराधा के सोलह नाम
राधा रासेस्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी।
कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया कृष्णस्वरूपिणी।।
कृष्णवामांगसम्भूता परमानन्दरूपिणी।
कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी।।
चन्द्रावली चन्द्रकान्ता शरच्चन्द्रप्रभानना।
नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च।।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, १७।२२०-२२२)
श्रीराधा के इन सोलह नामों की व्याख्या भगवान नारायण ने नारदजी को बताई थी जो कि इस प्रकार है–
राधा–ये निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करने वाली हैं। रासेस्वरी–रासेश्वर की प्राणप्रिया हैं, अत: रासेश्वरी हैं। रासवासिनी–रासमण्डल में निवास करने वाली हैं। रसिकेश्वरी–समस्त रसिक देवियों की सर्वश्रेष्ठ स्वामिनी हैं। कृष्णप्राणाधिका–श्रीकृष्ण को वे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं इसलिए उन्हें कृष्णप्राणाधिका कहा जाता है। कृष्णप्रिया–वे श्रीकृष्ण की परम प्रिया हैं या श्रीकृष्ण उन्हें परम प्रिय हैं अत: उन्हें कृष्णप्रिया कहते हैं। कृष्णस्वरूपिणी–ये स्वरूपत: श्रीकृष्ण के समान हैं। कृष्णवामांगसम्भूता–ये श्रीकृष्ण के वामांग से प्रकट हुई हैं। परमानन्दरूपिणी–ये भगवान की परम आनंदस्वरूपा आह्लादिनी शक्ति है, इसी से इनका एक नाम परमानन्दरूपिणी है। कृष्णा–ये श्रेष्ठ मोक्ष प्रदान करती हैं अत: कृष्णा हैं। वृन्दावनी–वृन्दावन उनकी मधुर लीलाभूमि है अत: इन्हें वृन्दावनी भी कहा जाता है। वृन्दा–ये सखियों के समुदाय की स्वामिनी हैं अत: वृन्दा कहलाती हैं। वृन्दावनविनोदिनी–इनके कारण समस्त वृन्दावन को आमोद (आनन्द) प्राप्त होता है। चन्द्रावली–उनका मुख पूर्ण चन्द्र के सदृश्य है इससे इनको चन्द्रावली कहते हैं। चन्द्रकान्ता–इनके शरीर पर अनन्त चन्द्रमाओं की-सी कांति जगमगाती रहती है, इसलिए ये चन्द्रकान्ता कही जाती हैं। शरच्चन्द्रप्रभानना–इनका मुखमण्डल शरत्कालीन चन्द्रमा के समान प्रभावान है। श्रीराधा के इन नामों से स्पष्ट है कि श्रीराधा भगवान श्रीकृष्ण की अभिन्न शक्ति हैं।
श्रीराधा के दिव्यगुण
श्रीचैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि श्रीराधिकाजी में अनन्त दिव्य गुण हैं, पर पच्चीस प्रधान गुण ऐसे हैं, जिनके कारण भगवान श्रीकृष्ण नित्य उनके वश में रहते हैं।
अनन्त गुण श्रीराधिकार, पंचिस प्रधान।
सेइ गुणेर वश हय कृष्ण भगवान।।
ये गुण हैं–(1) मधुरिमा (2) नित्यकिशोरावस्था (3) नेत्रों की चंचलता (4) निर्मल हास्य (5) हाथ-पैर आदि अंगों पर सुन्दर सौभाग्यरेखाओं वाली (6) मनोहारी श्रीअंग-सौरभ (अपनी अंग-सुगंध से श्रीकृष्ण को मोहित करने वाली) (7) संगीतशास्त्र में निपुणता (8) मधुरवाणी (9) परिहास-वाक्यों के प्रयोग में निपुणता (10) विनयशीलता (11) करुणापूर्ण (12) विदग्धता (13) कर्त्तव्यकुशलता (14) लज्जाशीलता (15) श्रीकृष्ण के प्रति गौरव-बुद्धि (16) धैर्यशालिनी (17) गम्भीरता (18) लीलामयता (19) परमोत्कर्ष महाभाव (त्यागपूर्ण प्रेम के लिए सदैव व्यग्र रहने वाली) (20) गोवंश के प्रति प्रेम की निवासस्थली (21) सारे ब्रह्माण्डों में जिनका यश व्याप्त है, ऐसी (22) गुरुजनों के स्नेह की पात्र (23) सखियों के प्रति प्रेम-परवशता (24) श्रीकृष्ण की प्रेयसियों में मुख्य (25) श्रीकृष्ण को सदा-सर्वदा अपने अधीन रखने की मधुर शक्ति।
श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा
’कृष्ण के आह्लादे, ताते नाम आह्लादिनी।’
चैतन्यचरितामृत के अनुसार राधा भगवान की आह्लादिनी शक्ति हैं। जिसके स्वरूप, सौंदर्य, सारस्य आदि से श्रीकृष्ण आह्लादित होते हैं और जो श्रीकृष्ण को आह्लादित करती हैं, वह शक्ति ह्लादिनी शक्ति है। उसी शक्ति के द्वारा उस सुख का आस्वाद वे स्वयं करती हैं। श्रीकृष्ण को आह्लादित करके स्वयं आह्लादित होती हैं। श्रीराधा श्रीकृष्ण को तथा भक्तजनों को आह्लादित करने के कारण आह्लादिनी शक्ति कहलाती हैं और सभी शक्तियों से श्रेष्ठ महाशक्ति हैं और महाभावरूपा हैं। इस आह्लादिनी शक्ति की लाखों अनुगामिनी शक्तियां मूर्तिमान होकर हर क्षण सखी, मंजरी, सहचरी और दूती आदि रूपों से श्रीराधाकृष्ण की सेवा किया करती हैं; श्रीराधाकृष्ण को सुख पहुंचाना और उन्हें प्रसन्न करना ही इनका कार्य है। इन्हीं को गोपीजन कहते हैं।
आनंद की अहलादिनी स्यामा अहलादिनी के आनंद स्याम।
सदा सरबदा जुगल एक मन एक जुगल तन बिलसत धाम।।
महारास में प्रकट हुए रसराज श्रीकृष्ण ने तरुणी स्वरूप धारण किया। वे एकाकी रमण नहीं कर सकते, अत: उन्होंने दूसरे की अभिलाषा की। तब दूसरे के अभाव में अपने को ही राधा स्वरूप में प्रकट कर रमण किया। परम दयालु भगवान भक्तवात्सल्यतावश राधा-माधव रूप से दो प्रकार के रूपधारी हुए। अर्थात उस गोपाल-तत्व से दो ज्योति प्रकट हुईं, एक गौरतेज तथा दूसरा श्यामतेज। गौरतेज के बिना श्यामतेज की उपासना करने से मनुष्य पाप का भागी होता है।
गौरतेजो बिना यस्तु श्यामतेज: समर्चयेत्।
जपेद्वा ध्यायते वापि स भवेत् पातकी शिवे।। (सम्मोहनतन्त्र)
नंदबाबा के घर जब पुत्ररूप में आह्लाद (आनन्द) का प्राकट्य हुआ तो आह्लादिनी (आनन्ददायिनी) का प्रकट होना भी निश्चित था। अत: बृषभानुजी के घर आह्लादिनी राधा का जन्म हुआ। आह्लादिनी के बिना आह्लाद आता ही नहीं। इसी से रसिकजन श्रीराधा को आनन्द देने वाली जानते हैं और वे ‘आह्लादिनी’ संज्ञा से प्रसिद्ध हुईं।
राधारानी देतीं प्रिय को पल-पल नया-नया आनन्द।
उस आनन्द से शत-शतगुण आनन्द प्राप्त करतीं स्वच्छंद।।
करुणामयी श्रीराधा
एक बार समस्त अवगुणों ने गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के पास जाकर प्रार्थना की कि–’हे भगवन् ! हम सभी सद्गुणों से तिरस्कृत होकर इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, कहीं भी हमारे रहने की जगह नहीं है। हम भी तो आपकी सृष्टि में आप से ही उत्पन्न हुए हैं, अत: हमें भी रहने के लिए कोई स्थान दीजिए।’ जब अवगुणों ने ऐसी प्रार्थना की तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें श्रीराधाजी की शरण ग्रहण करने को कहा। यह सुनकर अवगुणों ने श्रीकिशोरीजी (श्रीराधाजी) की शरण में जाकर प्रार्थना की। तब परम करुणामयी किसोरीजी ने कहा–’तुमने हमारी शरण ग्रहण की है। तुम्हारे बैठने के लिए कोई स्थान नहीं है तो आओ, हमारे अंगों में तुम्हें जहां-जहां अच्छा लगे, वहीं बैठ जाओ।’ करुणामयी श्रीराधा की यह बात सुनकर ‘घोर अंधकार’ रूपी दोष ने श्रीकिशोरीजी के केशों का आश्रय लिया, ‘कुटिलता’ ने उनकी भौंहों का, ‘राग’ ने होठों का, ‘भोलापन’ ने मुखारविन्द का, ‘चंचलता’ ने नेत्रों का, ‘कठिनता’ ने स्तनों का, ‘क्षीणता’ ने कटिप्रदेश का, ‘मन्दता’ (धीमी गति) ने श्रीराधाजी के चरणारविन्दों का आश्रय ग्रहण किया।
इस प्रसंग का भाव यह है कि जिन-जिन अवगुणों ने श्रीराधाजी के श्रीअंगों में स्थान ग्रहण किया, उन-उन अंगों की उनसे और भी अधिक शोभा बढ़ गयी और वे अवगुण सद्गुणों में परिवर्तित हो गये।
कृष्णमयी श्रीराधा
श्रीराधा स्वयं कृष्णमय थीं। उनके अंग-अंग एवं अन्तर्मन में भी श्रीकृष्ण का निवास था। श्रीराधा-कृष्ण अभिन्न हैं। यह युगल-तत्व परस्पर इतना और ऐसा ओत-प्रोत है कि कभी भी एक-दूसरे से पृथक् नहीं हो सकता। जैसे हाथ में दर्पण लेकर कोई व्यक्ति उसमें अपना मुख देखता है तो उसमें अपने नेत्र भी दिखाई देते हैं और उन नेत्रों में हाथ में दर्पण लिए वह व्यक्ति भी दिखायी देता है, ठीक उसी प्रकार श्रीकृष्ण के श्रीअंग में श्रीकिशोरीजी की झलक बनी रहती है तथा किशोरीजी के कमनीय कलेवर में श्रीकृष्ण की छवि समायी रहती है।
इस सम्बन्ध में एक कथा है–एक बार सूर्यग्रहण के अवसर पर समस्त व्रजवासी–नन्द, यशोदा, श्रीराधा एवं गोपियां कुरुक्षेत्र में स्नान के लिए गए। इधर द्वारकाधाम से श्रीकृष्ण भी अपनी समस्त पटरानियों व द्वारकावासियों के साथ कुरुक्षेत्र पहुंचे। रुक्मिणीजी को श्रीराधा के दर्शनों की सदा इच्छा रहती थी। रुक्मिणीजी आदि पटरानियों ने श्रीराधा का खूब आतिथ्य-सत्कार किया। रुक्मिणीजी श्रीराधा को रात्रि विश्राम के समय स्वयं अपने हाथों से सोने के कटोरे में मिश्री मिलाया हुआ गरम दूध पिलाया करती थीं। एक दिन विश्राम करते समय जब रुक्मिणीजी श्रीकृष्ण के चरण दबा रहीं थीं तो उन्हें श्रीकृष्ण के चरणों में छाले दिखे। वे आश्चर्य में पड़ गयीं और श्रीकृष्ण से छाले पड़ने का कारण बताने का अनुरोध करने लगीं। तब श्रीकृष्ण ने कहा–’श्रीराधा के हृदयकमल में मेरे चरणारविन्द सदा विराजमान रहते हैं; उनके प्रेमपाश में बंधकर वह निरन्तर वहीं रहते हैं। वे एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते। रुक्मिणीजी ! आज आपने उन्हें कुछ अधिक गर्म दूध पिला दिया है, वह दूध मेरे चरणों पर पड़ा जिससे मेरे चरणों में ये फफोले पड़ गए।’
श्रीराधिकाया हृदयारविन्दे
पादारविन्दहि विराजते मे। (श्रीगर्गसंहिता)
श्रीरुक्मिणी आदि समस्त पटरानियां श्रीराधा की अनन्य कृष्णभक्ति देखकर अत्यन्त प्रभावित हो गयीं और सभी पटरानियां आपस में कहने लगीं–’श्रीराधा की श्रीकृष्ण में प्रीति बहुत ही उच्चकोटि की है। उनकी समानता करने वाली भूतल पर कोई स्त्री नहीं है।’ इस प्रकार श्रीराधा के हृदय में कृष्ण और कृष्ण के हृदय में श्रीराधा का निवास है। श्रीराधा की भावना कृष्णमय थी। वे कहती हैं कि कृष्ण विरह में यदि मेरा तन पंचतत्त्वों में विलीन हो जाय तो मेरी इच्छा यह है कि मेरे शरीर का जलतत्त्व वृन्दावन के वापी-तड़ागों में विलीन हो जाए, मेरा अग्नितत्त्व उस दर्पण के प्रकाश में मिल जाए जिसमें मेरे प्रियतम अपना स्वरूप निहारते हों। पृथ्वीतत्व उस मार्ग में मिल जाए, जिस मार्ग से मेरे प्राणाधार आते-जाते हों; नन्दनन्दन के आंगन में मेरा आकाशतत्त्व समा जाय तथा तमाल के वृक्षों की वायु में मेरा वायुतत्त्व विलीन हो जाए। मैं विधाता से बार-बार प्रार्थना कर यही वर मांगती हूं।
मोक्षदायिनी श्रीराधा
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार भक्त पुरुष ‘रा’ शब्द के उच्चारणमात्र से परम दुर्लभ मुक्ति को पा लेता है और ‘धा’ शब्द के उच्चारण से वह श्रीहरि के चरणों में दौड़कर पहुंच जाता है। ‘रा’ का अर्थ है ‘पाना’ और ‘धा’ का अर्थ है ‘निर्वाण’ (मोक्ष)। भक्तों को ये निर्वाण मुक्ति प्रदान करती हैं। अत: इनका मात्र नाम-जप ही भवबाधा से पार लगा देता है। श्रीकृष्ण की प्राप्ति और मोक्षोपलब्धि दोनों ही श्रीराधाजी की कृपादृष्टि पर निर्भर हैं। कवि बिहारी के शब्दों में–
मेरी भवबाधा हरौ राधा नागरि सोइ।
जातन की झांईं परै स्याम हरित दुति होय।।
श्रीराधा के दिव्य शरीर की कान्ति पड़ने से इन्द्रनीलमणि के समान वर्ण वाले श्रीकृष्ण का शरीर भी गौर जान पड़ता है।
तत्सुख सुखिया श्रीराधा
श्रीराधा की मदीया भक्ति थी। इस मदीया भक्ति में भक्त का सब कुछ भगवान ही बन जाते हैं। स्वयं का रूप, स्वरूप, आकांक्षाएं, इच्छाएं सब आराध्य को समर्पित हो जाती हैं। अपना सुख कोई सुख नहीं, प्रियतम का सुख ही अपना सुख है। प्रियतम श्रीकृष्ण को यदि मथुरा में रहना प्रिय लगता हो, तो वे वहीं रहें। वृन्दावन कभी न आवें। मैं सारे कष्ट वेदना सहन कर लूंगी; मेरा सुख उनके सुख में विलीन है। यदि वे वहां प्रसन्न हैं तो यह वेदना भी सुखदायी बन जाएगी। यह था श्रीराधा का ‘तत्सुखे सुखित्वं’ भाव और भक्ति की अतिरेकता। इस भाव से सम्बन्धित एक कथा है–
श्रीराधा अपने अंत:पुर में पालित शुकों (तोतों) से श्रीकृष्ण का नाम उच्चारित करवाती थीं और स्वयं भी श्रीकृष्ण नाम-जप करती थीं। कुछ दिनों के बाद श्रीराधा ने कृष्ण के नाम के स्थान पर अपना नाम ‘बोलो राधे-राधे’ कहलवाना शुरु कर दिया। सभी सखियों को बहुत आश्चर्य हुआ लेकिन वे निरन्तर शुकों से श्रीराधे-राधे कहलवाती रहीं। जब उनकी अन्तरंग सखियों ने बार-बार ऐसा कहलवाने का कारण पूछा तो श्रीराधा ने बताया कि श्रीकृष्ण के नामोच्चारण से मुझे आत्मिक आनन्द मिलता था किन्तु श्रीराधे नाम से मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण को आनन्द आता है, अत: जिसमें श्रीकृष्ण का सुख निहित हो, वही मुझे प्रिय है। इस प्रकार श्रीराधा का तत्सुखसुखिया भाव अनन्य था।
रासेश्वरी श्रीराधा
श्रीराधा रासेश्वरी हैं। रासमण्डल के मध्यभाग में उनका स्थान है। वे रास की अधिष्ठात्री देवी हैं। रास की रसिका हैं।
रासेश्वरी श्रीराधा नित्यनिकुंजेश्वरी, नित्य किशोरी, रासक्रीड़ा तथा आनन्द की अधिष्ठात्री देवी हैं। वे सौन्दर्यसारसर्वस्व हैं। वे साक्षात् लीला-रूप हैं, क्रीडा-रूप हैं, आनन्द-रूप हैं। रासेश्वरी और सुरसिका इनका प्रसिद्ध नाम है। ये गोपीवेष में विराजती हैं। समग्र सौन्दर्य, ऐश्वर्य, माधुर्य, लावण्य, तेज, कान्ति, श्रीवैभव, और परमानन्द श्रीराधा में प्रतिष्ठित है।
नमस्ते परमेशानि रासमण्डलवासिनी।
रासेश्वरि नमस्तेऽस्तु कृष्णप्राणाधिकप्रिये।।
महारास में भी श्रीकिशोरीजी की आज्ञा पाकर ही भगवान श्रीकृष्ण उनके साथ रासमण्डल में पधारते हैं। महारास के राजभोग में प्रसाद पाते समय भी भगवान अपने करकमल से प्रथम ग्रास श्रीकिशोरीजी के मुखारविन्द में ही अर्पण करते हैं तथा पान का बीड़ा भी प्रथम श्रीकिशोरीजी को अर्पण करके ही आप अरोगते हैं। इस प्रकार ब्रह्मा आदि के भी सेवनीय श्रीकृष्ण स्वयं ही उनकी सेवा करते हैं।
त्यागमयी श्रीराधा
श्रीराधा इतनी त्यागमयी हैं, इतनी मधुर-स्वभावा हैं कि अनन्त गुणों की खान होकर भी अपने को प्रियतम श्रीकृष्ण की अपेक्षा से सदा सर्वसद्गुणहीन अनुभव करती हैं, पूर्ण प्रेमप्रतिमा होने पर भी अपने में प्रेम का अभाव देखती हैं; समस्त सौन्दर्य की मूर्ति होने पर भी अपने को सौन्दर्यरहित मानती हैं। वे अपने को सर्वदा हीन-मलिन ही मानतीं है। अत्यन्त पवित्र सहजता और सरलता की मूर्ति होने पर भी अपने में कुटिलता और दम्भ के दर्शन करती हैं। वे अपनी एक अन्तरंग सखी से कहती हैं–
सखी री ! हौं अवगुण की खान।
तन गोरी, मन कारी, भारी पातक-पूरन प्रान।।
नहीं त्याग रंचकहू मन में, भर्यौ अमित अभिमान।
नहीं प्रेम कौ लेस, रहत नित निज सुख कौ ही ध्यान।।
श्रीराधा के गुण-सौन्दर्य से मुग्ध होकर श्यामसुन्दर कभी यदि श्रीराधा की तनिक-सी प्रशंसा करने लगते हैं तो वे अत्यन्त संकोच में पड़कर लज्जा के मारे गड़-सी जातीं हैं। एक दिन श्रीराधाजी एकान्त में किसी महान भाव में निमग्न बैठी थीं। तभी उनकी एक सखी ने उनसे प्रियतम श्रीकृष्ण और उनका प्रेम प्राप्त करने का साधन पूछा। बस, श्रीकृष्णप्रेम के साधन का नाम सुनते ही श्रीराधाजी के नेत्रों से आँसुओं की धारा बह चली। वे बोली–’अरी सखी ! मैं क्या साधन बताऊँ। मेरे तन, मन, प्राण, धन, जन, कुल, शील, मान, अभिमान–सभी कुछ एकमात्र श्यामसुन्दर हैं। इस राधा के पास अश्रुजल को छोड़कर और कोई धन है ही नहीं जिसके बदले में श्रीकृष्ण को प्राप्त किया जाए। अत: परम सार का सार है कि श्रीकृष्ण प्रेम का मूल्य केवल पवित्र आंसुओं की धारा ही है।’ यह है उनके साधन का स्वरूप।
निश्चल, निश्छल, सर्वस्व समर्पित हृदय वाली श्रीराधारानी श्रीकृष्ण भक्ति की अविरल धारा हैं। यही कारण है कि जहां श्रीराधा हैं वहीं श्रीकृष्ण, जहां श्रीकृष्ण हैं वहीं श्रीराधा। श्रीराधा की महिमा दिखाते हुए एक कवि ने लिखा है–’राधा’ शब्द में यदि ‘र’ न होता तो क्या होता–
राधे कै रकार जो न होती राधेश्याम माहि।
मेरे जान राधेश्याम आधेश्याम रहते।।
श्रीराधा के असीम महिमामय तत्त्व और स्वरूप की, श्रीकृष्ण-प्रेम और विरह की व्याख्या साधारण मनुष्य के लिए संभव नहीं। बस यही कहा जा सकता है कि श्रीराधा जगज्जननी महाशक्ति एवं महामाया हैं। वे शक्तिमान श्रीकृष्ण की शक्ति हैं। श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। श्रीराधा सबकी आराध्या हैं, वे अचिन्त्य हैं। उनकी दुर्ज्ञेय महिमा को बस एकमात्र श्रीकृष्ण ही जानते हैं।
और कोई समझे तो समझे, हमको इतनी समझ भली।
ठाकुर नन्दकुमार हमारे, ठकुराइन वृषभानुलली।।
जय जय श्री राधे- राधेश्याम !
Radhe radhe..
श्रीहरिः शरणम्। जय श्री राधे राधे जी।
अद्वितीय भाव दर्शनम्। भाव-विभोर।
सादर श्रीकृष्ण रात्रि वन्दनम्।
Jay shri Radhakrishna🙏💓💓💓💓
radhey radhey
jai jai shri radhey krishna