radha krishna dancing bansuri

परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण का वाम अंग ही श्रीराधा का स्वरूप है । ये ब्रह्म के समान ही गुण और तेज से सम्पन्न हैं; इसीलिए इन्हें परावरा, सारभूता, परमाद्या, सनातनी, परमानन्दरूपा, धन्या, मान्या और पूज्या कहा जाता है । 

तुम समरथ सर्वज्ञ किशोरी
जानत हो घट घट की ।
महाशक्ति महामाया तुम हो
छाया नागरनट की ।।

व्रज की ठकुरानी श्रीराधा हैं; इसलिए वहां श्रीकृष्ण से अधिक श्रीराधा की महिमा है । व्रज में सभी जगह ‘जय श्रीकृष्ण’ की गूंज सुनाई पड़ती है; परन्तु चार स्थान ऐसे भी हैं, जहां सभी लोग ‘जय श्रीराधे’ कहते हैं । ये चार स्थान हैं–

१. रावलग्राम जहां श्रीराधा का जन्म हुआ (जन्मभूमि)

२. बरसाना, माता-पिता की भूमि (क्रीडाभूमि)

३. राधाकुण्ड (लीलाभूमि) वनभ्रमणभूमि

४. श्रीधाम वृन्दावन जो श्रीकृष्ण का श्रीधाम हैं ।

जैसे करोड़ों सूर्यों के उदय होने पर जुगनू का कहीं पता ही नहीं चलता है; वैसे ही यह श्रीराधा के अप्रतिम माधुर्य का अद्भुत प्रभाव है कि उनके सामने भगवान की ऐश्वर्य शक्ति भी काम नहीं करती है । इसीलिए व्रज में श्रीराधा के सामने श्रीकृष्ण का चतुर्भुज रूप (ऐश्वर्यत्व) नहीं ठहरता है; तो कंस की तो बिसात ही क्या थी ?

श्रीराधा के अद्भुत ऐश्वर्य के सामने कंस कैसे पौरुष्यहीन हो गया ?

पूर्वजन्म में कंस कालनेमि असुर था, जिसने भगवान विष्णु से युद्ध किया था । कृष्णावतार में कंस के रूप में उसने दिग्विजय की थी । कंस ने सारे संसार के असुरों को तिनके की तरह तोड़ कर उनका कचूमर निकाल कर अपनी सेवा में नियुक्त कर लिया था । लेकिन व्रज की लाड़ली किसोरी श्रीराधिका के दृष्टिपात मात्र से ही उस कंस का समस्त बल, पौरुष्य और तेज पराभव को प्राप्त हो गया । 

इससे सम्बन्धित एक बहुत सुंदर प्रसंग ‘रसीली ब्रजयात्रा’ नामक ग्रंथ में दिया गया है—

ब्रजवासियों के अनुसार श्रीराधा के अद्भुत माधुर्य और ऐश्वर्य के कारण कंस का आतंक कभी भी वृषभानुपुर (बरसाना) तक न पहुंच सका । एक बार कंस ने विचार किया कि मैं ब्रज में जाकर नंदबाबा और वृषभानु जी को ही समाप्त कर दूँ । यह सोच कर वह जाव ग्राम तक आया । जैसे ही उसने ‘किशोरी कुण्ड’ को पार करने का प्रयास किया, वह एक स्थूलकाय (मोटी) स्त्री के रूप में परिवर्तित हो गया । 

पास ही श्रीराधा और ललिता आदि सखियां कुण्ड में क्रीडा कर रही थीं । उन्होंने एक अजनबी मोटी स्त्री को देखा तो ललिता सखी ने उससे पूछा—‘अरी ! मोटल्ली कहां से आई है ?’

श्रीराधा को देखते ही कंस का बल और तेज पराभूत हो गया । लज्जा के कारण वह कुछ कह न सका । स्थूल नितम्बों वाली मोटी स्त्री रूप हो जाने से वह मथुरा की ओर भागने में भी असमर्थ हो गया । अत: बस वहीं हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया ।

मोटी स्त्री बने कंस ने विनय करते हुए कहा—‘श्रीराधे ! मैं आपकी शरण में हूँ, मुझे क्षमा कर दो ।’

सखियां समझ गईं कि ये कोई अनजान स्त्री किसी गलत इरादे से हमारे ब्रज में आई है । 

ललिता सखी ने कहा—‘यहां हाथ जोड़ने से काम नहीं चलेगा, चल, गोबर थाप । हमारे राजा वृषभानु के यहां लाखों गैया हैं । बहुत गोबर होता है । थोड़ा काम करेगी तो शरीर की स्थूलता भी कम हो जाएगी ।’

ऐसा कहा जाता है कि गोपियों ने कंस से छह महीने तक खूब गोबर थपवाया ।

कंस का बल कैसा था ?

कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस जिसने जरासंध के हजार हाथियों के बराबर बल वाले ‘कुवलयापीड’ हाथी को एक झटके में उठा कर फेंक दिया हो, ऐरावत हाथी को सूंड़ से उठाकर कई योजन दूर उछाल दिया हो, भगवान विष्णु के धनुष की सौ बार प्रत्यंचा चढ़ाई हो, देवताओं को भी पराजित करने वाले अघ, अरिष्ट, नरक, प्रलम्ब, भौम, धेनुक, तृणावर्त, बक आदि दैत्यों को पराजित कर जिसने अपनी सेवा में रख लिया हो, जरा कल्पना कीजिए, एक स्त्री बन कर गोबर थापे, उसे कैसा लगेगा ।

भगवान ने कहा है कि मैं किसी का अहंकार टिकने नहीं देता । अहंकारी व्यक्ति सदैव अपनी ही प्रशंसा करता है । दूसरे लोग चाहे कितने ही बड़े क्यों न हों, उसे अपने से बौने ही लगा करते हैं । इस तरह अहंकार व्यक्ति के अज्ञान और मूर्खता का परिचायक है ।

कंस का अहंकार मिट्टी में मिल गया । उसे समझ आ गया कि ब्रज की ठकुरानी और अधीश्वरी तो श्रीराधा ही हैं, यहां मेरी कोई दाल नहीं गलेगी । अत: एक दिन कंस ने गिड़गिड़ाते हुए श्रीराधा से कहा—‘स्वामिनी जू ! अब तो मुझ पर दया करो ।’

श्रीराधा की आज्ञा से ललिता सखी ने कहा—‘जा सर (किशोरी कुण्ड) में स्नान करके पार चली जा और फिर कभी भूल करके भी इधर मत आना ।’

जैसे ही कंस ने सरोवर में स्नान किया, वह पुन: पुरुष रूप को प्राप्त हो गया और फिर वहां से ऐसा नौ-दो-ग्यारह हुआ कि कभी मुड़ कर बरसाने की ओर नहीं देखा ।

श्रीराधा की ऐसी अद्भुत ऐश्वर्य शक्ति थी कि कंस के असुर बरसाने की सीमा से बहुत बच कर रहते थे; क्योंकि उनके मन में भय लगा रहता था कि यदि हम भी सखी बन गए तो गोपियां हमसे भी न जाने कब तक गोबर थपवाएंगी ।

ऐसा था श्रीकिसोरी जी का ऐश्वर्य 🌹

भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रीराधा को उनकी महिमा बताते हुए कहा है—

‘जैसे दूध में धवलता, अग्नि में दाहिकाशक्ति और पृथ्वी में गंध होती है, उसी प्रकार श्रीराधा में मैं नित्य व्याप्त हूँ । जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता तथा जैसे सुनार सोने के बिना आभूषण तैयार नहीं कर सकता; उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टिरचना में समर्थ नहीं हो सकता । तुम सृष्टि की आधारभूता हो और मैं बीजरूप हूँ । जब मैं तुमसे अलग रहता हूँ, तब लोग मुझे ‘कृष्ण’ (काला-कलूटा) कहते हैं और जब तुम साथ हो जाती हो तब वे ही लोग मुझे ‘श्रीकृष्ण’ (शोभाशाली कृष्ण) कहते हैं । राधा के बिना मैं क्रियाहीन  व शक्तिहीन रहता हूँ; पर राधा का संग मिलते ही वह मुझे परम चंचल व लीलापरायण और परम शक्तिशाली बना देती है ।

श्रीराधा तुम्हीं श्री हो, तुम्हीं सम्पत्ति हो और तुम्हीं आधारस्वरूपिणी हो । मेरा अंग और अंश ही तुम्हारा स्वरूप है । तुम मूलप्रकृति ईश्वरी हो । शक्ति, बुद्धि और ज्ञान में तुम मेरे ही तुल्य हो ।’

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