भगवान श्रीकृष्ण का अवतार आनन्द-प्रधान अवतार है; इसलिए श्रीकृष्ण में आनन्द अधिक प्रकट हुआ है । वे लोगों के प्रेम व आसक्ति को अपनी ओर अधिक खींचते हैं । उनकी लीलाएं सभी मनुष्यों को सुख देने वाली हैं; इसीलिए उनकी लीलाओं को सुनना या पढ़ना ‘महामधुर ब्रह्मरस’ को पीने के समान माना गया है । जब हम लीला पढ़ते या सुनते हैं तो उस समय श्रीकृष्ण मन में प्रवेश कर जाते हैं और जगत मन से बाहर चला जाता है । इससे मन पवित्र हो जाता है; क्योंकि सारी अपवित्रता तो जगत में है ।
भगवान श्रीकृष्ण की योगी लीला
भगवान श्रीकृष्ण, श्रीराधा व उनकी सखियों की इस माधुर्यपूर्ण लीला का वर्णन ‘श्रीगर्ग-संहिता’ के माधुर्य-खण्ड के अध्याय ११ में किया गया है । ऐसी ही एक लीला का वर्णन पूज्य श्रीराधा बाबा द्वारा भी किया गया है ।
विभिन्न स्थानों व वर्गों की स्त्रियां भगवान के वरदान से व्रज में गोपी रूप में अवतरित हुईं । इनमें एक यूथ वैकुण्ठ में विराजने वाली देवी रमा की सखियों का और समुद्र से प्रकटित लक्ष्मीजी की सखियों का था; जो भगवान वैकुण्ठपति श्रीविष्णु के वरदान से व्रज में गोपी हुईं । लक्ष्मीजी की सखियां व्रज में छ: वृषभानु (नीतिवित्, मार्गद, शुक्ल, पतंग, दिव्यावाहन तथा गोपेष्ट) के घरों में कन्या रूप में उत्पन्न हुईं । ये सभी गोपियां श्रीराधा की सखियां थीं ।
जब श्रीकृष्ण ने धारण किया सिद्धयोगी का वेष
इन गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करते हुए माघ मास का व्रत किया । इस व्रत का उद्देश्य था—श्रीकृष्ण को प्रसन्न करना । गोपियों के व्रत को पूर्ण करने और उनके प्रेम की परीक्षा लेने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने सिद्धयोगी का वेष धारण किया और सायंकाल बरसाने में सरोवर के घाट पर उनकी प्रतीक्षा करने लगे । संध्याकालीन सूर्य की किरणों से सरोवर का जल झलमल-झलमल कर रहा था । सिद्धयोगी के वेष में श्रीकृष्ण व्याघ्रचर्म पहने, जटा का मुकुट बांधे, समस्त अंगों में विभूति रमाये हुए थे । ललाट पर विभूति से योगी का अद्भुत लावण्य और अनुपम सौंदर्य झर रहा था ।
कान्हा ने जोगी भेष बनायौ, बरसाने में अलख जगायौ ।
सिर जटाजूट छवि छाई, कानन मुद्रिका सुहाई ।
सब अंग भभूत रमाई, मृगछाला बगल दबाई ।।
योगीराज ने देखा कि श्रीराधा सखियों सहित घाट पर आ रही हैं । उन्होंने सोचा बिना ढोंग के काम नहीं चलेगा; इसलिए वे तुरंत आसन बिछाकर नेत्र मूंद कर बैठ गए मानो समाधिस्थ होने जा रहे हों । साथ ही तानपूरे पर अत्यंत मधुर स्वर में गाने लगे—
पिया तोहि नैनन ही में राखूँ,
भेंटूँ सकल अंग साँवल कूँ,
तेरे एक रोम की छबि पर,
जगत सत बार नाखूँ ।
घाट पर श्रीराधा और उनकी सखियां अपने कलसे में जल भर लौट रही थीं । तभी उनकी दृष्टि उस सिद्धयोगी पर पड़ी । वे उसका भजन सुनने को वहीं थोड़ी दूर मेंहदी की झाटियों से सट कर बैठ गईं ।
श्रीराधा ने सखियों से कहा—‘इतना रूप, ऐसा सौंदर्य, उस पर ऐसा भजन ! योग कैसे निभेगा ?’
ललिता सखी श्रीराधा से कहती हैं—‘तू तो भोली है । अरे, इसे निर्गुण भजन कहते हैं । वैरागी साधु ऐसे ही भजन गाते हैं । इस योगी का पिया और साँवल तुम्हारा श्यामसुन्दर नहीं है । यह तो अपने ब्रह्म की ज्योति का ध्यान करता है ।’
श्रीराधा ने हंसते हुए कहा—‘योगीराज ! यदि बाबाजी बने हैं तो वन में रहते और यदि वन में नहीं रहना था तो बाबाजी क्यों बने ? क्यों बरसाने की गलियों में और सरोवरों के घाटों पर घूम रहे हैं ? घर-घर घूमना तपस्वियों का काम नहीं है । योगियों की मुद्रा तो बड़ी शान्त होती है; परन्तु यह तो हमारी पायल की जरा-सी ध्वनि सुनकर झट से हमारी ओर देखने लगा । बड़ा चंचल है, हमें देखकर इन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए हैं ।’
थोड़ी देर में योगी का भजन समाप्त हो गया ।
उस अत्यंत सुन्दर योगी को देखकर आनन्द में डूबी सखियां आपस में कहने लगीं—‘यह योगी कौन है जिसकी कद-काठी बिल्कुल नंदनन्दन ले मिलती-जुलती है ? यह किसी राजा का पुत्र होगा जो किसी कारणवश घर से विरक्त होकर योगी बन गया है । यह तो कामदेव के समान सारे संसार का मन मोहने वाला है । इसके माता-पिता, पत्नी व बहिन इसके बिना जीवित कैसे होंगी ?’
श्रीराधा ने सखियों से कहा—‘पता नहीं क्यों, योगी मुझे बड़ा प्यारा लग रहा है । इसकी ओर मेरा मन बरबस खिंचता चला जा रहा है । तुम पूछो तो सही कि यह कहां रहता है ?’
सभी सखियां उस योगी के पास आकर पूछने लगीं—‘योगी बाबा ! तुम्हारा नाम क्या है ? तुम कहां रहते हो ? तुमने कौन-सी सिद्धि पाई है ? हमें यह सब बताओ ?’
सिद्धयोगी ने कहा—‘मैं योगेश्वर हूँ और सदा मानसरोवर हिमालय में निवास करता हूँ । मेरा नाम स्वयंप्रकाश है ।’
श्रीराधा ने हंसते हुए कहा—‘तुम्हारी आंखें कहती हैं कि तुम्हारे मन में कुछ चाह है, शायद भोग की चाह है और वेष वैराग्य का है तुम्हारा ! इस पर तुम्हारा क्या कहना है ?’
योगी ने कहा—‘यह वृषभानु राजा की लाड़िली है, राजपुत्री है । तो भला, मन में अभिमान क्यों न हो; इसीलिए योगी की परीक्षा लेती है ।’
तपसिन को अन्त न पानौ,
मत जोग खिलौना जानों,
हम तन साधैं मन मार,
करैं बीन कें वनफल कौ आहार,
हैं ज्ञान सुमन बलिहारी,
हम जोग जगत व्यौपारी,
है प्रेम को भाव हमारौ,
व्रज में बसि होय निस्तारौ ।।
सखियों ने कहा—‘महाराज ! आप रुष्ट हो गए क्या ? आपके लिए कोई भोजन आदि लायें ।’
योगी ने कहा—‘नहीं, योगी भी कहीं रुष्ट होते हैं । मैं अपनी शक्ति से सदा बिना खाये-पीये ही रहता हूँ । तुम लोगों ने सुना होगा, जिस प्रकार का अन्न खाया जाता है, वैसी बुद्धि बनती है । यहां तक कि परोसने वाले के मन में जो विचार होता है, उसके परमाणु का भी प्रभाव खाने वाले पर पड़ता है ।’
सखियों ने पूछा—‘अगर इतनी तपस्या करते हो, तो कोई सिद्धि मिली ?’
योगी ने कहा—‘परमहंस जो आत्म-साक्षात्कार करते हैं, मैं उसी की सिद्धि के लिए जा रहा हूँ । मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो चुकी है ।’
एक सखी बोली—‘उससे क्या होता है ?’
योगी ने कहा—‘मैं भूत, भविष्य और वर्तमान—तीनों कालों की बात जानता हूँ ।’
यह सुनते ही सब सखियां एक स्वर में बोलीं—‘महाराज ! आप कोई मंत्र-तंत्र भी जानते हो ?’
श्रीकृष्ण ने कहा—‘मन्त्र-विद्या द्वारा उच्चाटन, मारण, मोहन, स्तम्भन तथा वशीकरण भी जानता हूँ ।’
सखियों ने कहा—‘योगी बाबा ! आप तो बड़े बुद्धिमान हो । यदि तुम्हें तीनों कालों की बात मालूम हैं तो बताओ, हमारे मन में क्या है ?’
सिद्धयोगी ने कहा—‘यह बात तो आप लोगों के कान में कहने योग्य है अथवा तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं सब लोगों के सामने ही कह दूँ । तुम सब तो किसी पुरुष का ध्यान कर रही हो ।’
सखियां बोली—‘योगीजी ! तुम सचमुच योगेश्वर हो, तुम्हें तीनों कालों का ज्ञान है । यदि तुम्हारे वशीकरण मन्त्र से वे तुरंत यहां आ जाएं, जिनका कि हम मन-ही-मन चिन्तन करती हैं, तब हम मानेंगी कि तुम सर्वश्रेष्ठ योगी हो; लेकिन एक बात बताओ, तुम किसी को भी बुला सकते हो ?’
सिद्धयोगी बोले—‘हां, मनुष्य, देवी, देवता, जिसको कहो उसी को बुला दूँ; क्योंकि सत्पुरुषों की कही बात झूठ नहीं होती है, यद्यपि यह कार्य बहुत दुर्लभ है । काम तो कठिन है, पर आप आंख बंद कर लो तो हम उसे बुला देंगे और जब हम ताली बजाएं तब तुम सब आंखें खोलना ।’
सब सखियों ने कहा—‘ठीक है ।’
सभी सखियों ने अपनी आंखें मूंद लीं ।
तब भगवान श्रीकृष्ण योगी का रूप छोड़ कर नंदनन्दन के रूप में प्रकट हो गए और ताली बजाने लगे । सखियों ने आंखें खोलकर देखा तो सामने नंदनन्दन खड़े मुसकरा रहे थे ।
पहले तो वे आश्चर्यचकित रह गईं फिर योगी का प्रताप जानकर आनन्द में डूब गईं और कहने लगीं—‘यह योगी बड़ा विचित्र है, जो श्रीकृष्ण के रूप में बदल जाए । ऐसे योगियों के दर्शन बड़े भाग्य से मिलते हैं ।’श्रीमद्भागवत में कहा गया है–’प्यारे कृष्ण ! आपकी एक-एक लीला मनुष्यों के लिए परम मंगलमयी और कानों के लिए अमृतस्वरूप हैं । जिसे एक बार उस रस का चस्का लग जाता है, उसके मन में फिर किसी दूसरी वस्तु के लिए लालसा ही नहीं रह जाती है ।’