Bhagwan Krishna Shri Radha bansuri

संत किसी वेशभूषा का नाम नहीं है, वरन् मनुष्य के अंत:करण के भाव का नाम है । संत भगवान का हृदय हैं । जैसे संतों के धन भगवान हैं, ऐसे ही भगवान के धन संत हैं । जिस प्रकार बूढ़े मां-बाप अपनी छिपी सम्पत्ति अपनी विशेष प्रिय संतान को ही बताते और देते हैं; उसी प्रकार भगवान भी संतों पर विशेष कृपा करते हैं, उनके सामने अपना स्वरूप प्रकट कर देते हैं । आज के समय में ऐसे संत बहुत कम ही देखने को मिलते हैं और यदि हैं भी तो अपने-आप को गुप्त रखते हैं ।

हरि दुर्लभ नहीं जगत में, हरिजन दुर्लभ होय ।
हरि हेरयाँ सब जग मिले, हरिजन कहीं एक होय ।।

संत नागाजी का हठ और भगवान श्रीराधा-कृष्ण

गोस्वामी चतुरदासजी को ‘श्रीचतुरोनगनजी’ या ‘नागाजी’ के नाम से भी जाना जाता हैं । नागाजी वृन्दावन में निवास करते थे । ठाकुर श्रीबांकेबिहारीजी उनके हृदय में बस गये थे; इसलिए उन्होंने व्रजभूमि की उपासना हृदय में धारण की और दिन-रात भजन भाव में डूबे रहते थे ।

नागाजी आनन्द में मग्न होकर नित्य व्रज की परिक्रमा किया करते थे । प्रात:काल वृन्दावनधाम में विराजमान ‘श्रीगोविन्ददेवजी’ की मंगला-आरती के दर्शन करते, फिर मथुरा में आकर ‘श्रीकेशवदेवजी’ की श्रृंगार-आरती में सम्मिलित होते, उसके बाद वहां से चलकर बरसाना में ‘श्रीजी’ की राजभोग की आरती करके गोवर्धन में श्रीराधाकुण्ड होते हुए सायंकाल वृन्दावन लौटकर आते थे । इस प्रकार प्रतिदिन 36 कोस  (१ कोस = ३.१२ किलोमीटर) की यात्रा करते थे ।

एक दिन व्रज की यात्रा करते समय उनकी जटा कदम्बखण्डी की एक झाड़ी में उलझ गयी । बहुत प्रयत्न करने पर भी उनकी जटा झाड़ी में से नहीं सुलझी । तब नागाजी ने निश्चय किया कि ‘जिसने मेरी जटा उलझायी है, अब वही आकर इन्हें सुलझायेगा ।’

वहां गाय चरा रहे ग्वालों ने उनसे बहुत प्रार्थना की—‘बाबा आपकी जटा हम सुलझा देते हैं’, परन्तु नागाजी ने एक न सुनी और अपने निश्चय पर अड़े रहे कि ‘बस, अब तो वही आयेगा, तभी सुलझेगी ।’ मनुष्य जिससे सबसे ज्यादा प्रेम करता है, उसी पर अपना अधिकार समझ कर धौंस भी दिखाता है, बस यही हाल नागाजी का था । इसी प्रणयकोप (प्रेम में गुस्सा होना) में बहुत समय तक वह उस स्थान पर खड़े रहे । 

भक्त श्रीकृष्णगोपालाचार्यजी के शब्दों में—

प्रेम हू सब साधन कौ सार ।
भगवत् प्राप्ति प्रेम साधन तें,
होय प्रगट प्रभु हार ।।

भगवान भक्त के अपनेपन को देखते हैं । जैसे एक बच्चा जब मां को पुकारता है तो वह बालक की योग्यता, रूप-रंग को न देखकर उसके प्यार को देखकर तुरन्त गोदी में उठा लेती है; उसी प्रकार भक्त जब अपनी स्थिति से असंतुष्ट होकर भगवान को पुकारता है, तब भगवान उसको अपना प्रेम प्रदान कर देते हैं ।

नागाजी की प्रतिज्ञा देखकर निकुंजलीला के आराध्य भगवान श्यामसुन्दर अधीर हो उठे । वे वहां प्रकट हो गए और अपने सुकोमल करकमलों से जैसे ही वे नागाजी की जटा सुलझाने लगे, नागाजी ने उन्हें रोक दिया और पूछा—‘पहले आप अपना परिचय दीजिए कि आप कौन से कृष्ण हैं—व्रज के, वन के या निकुंज के ? हम तो निकुंजलीला के उपासक हैं ।’

ठाकुरजी ने कहा—‘बाबा ! मैं वही हूँ जिनकी तुम उपासना करते हो  ।’

नागाजी ने कहा—‘मैं कैसे विश्वास करुं कि तुम निकुंजलीला के श्रीकृष्ण हो । इसकी कोई गवाही देने वाला है ।’

ठाकुरजी ने कहा—‘जैसे तुम्हें विश्वास हो, मैं वही करुं, बताओ ।’

नागाजी ने कहा—‘यदि हमारी स्वामिनीजी श्रीराधा आकर कहें कि हां, ये निकुंज के ही श्यामसुन्दर हैं, तब हम मानेंगे ।’

इतने में स्वामिनीजी वृषभानुनन्दिनी श्रीराधा वहां पधारीं और उन्होंने नागाजी को विश्वास दिलाया कि ये ही निकुंज के श्यामसुन्दर हैं ।

अपने आराध्य श्रीराधाश्यामसुन्दर के दर्शन कर श्रीनागाजी ने उन्हें अपनी जटा सुलझाने की अनुमति दे दी ।

ठाकुरजी ने अपने चार हाथ प्रकट कर उनकी जटा सुलझा दीं ।

ऐसी हरि करत दास पर प्रीति,
निज प्रभुता बिसारि जन के बस, 
होत सदा यह रीति । (तुलसीदासजी)

अर्थात्—भगवान भक्त पर ऐसी प्रीति करते हैं कि अपनी प्रभुता भूल कर भक्त के वश हो जाते हैं, यह सदा की रीति है ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here