sant eknath puja shri krishna bhagwan

कभी-कभी भगवान को कोई भक्त इतना प्यारा हो जाता है कि उसका संग-साथ पाने के लिए वे भक्त की सेवकाई भी करने लगते हैं । जहां कहीं प्रेम देखते हैं, सारे नियम-कायदे भूलकर, मर्यादाएं तोड़कर परमात्मा अपने प्रेमी भक्तों के सेवक बन जाते हैं और संसार को सेवा का विलक्षण पाठ पढ़ाते हैं ।

ऐसे कई भक्तों के उदाहरण हमें देखने को मिलते है जिनके सेवक भगवान बने । कभी वे सखूबाई बनकर उसकी जगह खम्भे से बंधने को आ जाते हैं तो कभी उगना बनकर कवि विद्यापति की चाकरी करते हैं । ऐसा ही एक प्रेरणादायी प्रसंग महाराष्ट्र के संत एकनाथ के जीवन चरित्र में भी देखने को मिलता है—

ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई ।
भगत हेतु लीलातनु गहई ।। (राचमा १।१४४।७)

सेवक खण्डिया बन श्रीकृष्ण करते रहे एकनाथजी की सेवा

पैठण में भगवान के परम भक्त एकनाथ हुए । एकनाथजी सारा दिन अविरत प्रभु-सेवा और भजन करते रहते थे, सो वे थक जाते थे । उनकी ऐसी अविराम सेवा से प्रभु दयार्द्र हो गये । वे सोचने लगे—मेरा भक्त मेरे लिए कितना श्रम करता है, बेचारा थक कर चूर हो जाता है । चलो, मैं उसकी कुछ सहायता करुं, उसका श्रम कुछ कम कर दूं ।

यह सोचकर भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण का रूप रचा और एकनाथ के पास आकर बोले—‘भाई ! मुझे अपना सेवक रख लोगे क्या ?’

एकनाथ बोले—‘मुझे सेवक की जरुरत ही क्या है ? मैं तो अपना सारा दिन प्रभु की सेवा और स्मरण में ही बिताता हूँ ।’

भगवान बोले—‘मैं तुम्हें ठाकुरजी की सेवा करने में सहायता करुंगा ।’

एकनाथ बोले—‘जैसी तेरी इच्छा, हां तेरा नाम क्या है ?’

भगवान ने कहा—‘खण्डिया’ ।

‘तुलसीदास चन्दन घिसे, तिलक लेत रघुबीर’ वाली बात उल्टी हो गई । जिसे चन्दन का तिलक लगाया जाता था, वह स्वयं ही चन्दन घिसने लगे । यह है भक्ति की महिमा ।

गीता (६।३०) में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों (प्राणियों) में मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता है ।’

एकनाथजी सब प्राणियों में भगवान को देखा करते थे—‘वासुदेव सर्वम्’ । भगवान से सच्चा प्रेम होने के लिए सब प्राणियों में प्रभुदृष्टि होना आवश्यक है । समस्त प्राणियों में भगवान का रूप देखते हुए सबसे नि:स्वार्थ प्रेम करना और फल की इच्छा के बिना उनकी सेवा करना ही सच्ची भगवान की सेवा है । 

एक बार द्वारका से एक ब्राह्मण एकनाथजी से मिलने आया और कहने लगा—‘धन्य है आपकी कृष्ण-भक्ति, जो भगवान ने आप पर ऐसी अद्भुत कृपा बना रखी है । आप अपने सेवक खण्डिया के दर्शन करवाकर मेरा भी जीवन कृतार्थ करें ।’

एकनाथजी कुछ समझ न सके और बोले—‘हां खण्डिया पानी लाने बाहर गया है, अभी आता ही होगा, लेकिन आपको उससे मिलने की ऐसी उत्कण्ठा क्यों है ?’

ब्राह्मण ने कहा—‘मैं वर्षों से श्रीकृष्ण के दर्शन पाने की इच्छा से उनकी उपासना कर रहा हूँ । पिछले दिनों भगवान ने स्वप्न में मुझे बतलाया कि अभी मैं तुम्हें द्वारका में दर्शन नहीं दे सकता । लेकिन मनुष्य रूप में तुम मेरे दर्शन करना चाहते हो तो पैठण जाओ, वहां मेरे भक्त एकनाथ के यहां मैं पिछले बारह वर्षों से खण्डिया के रूप में सेवक का कार्य कर रहा हूँ । इसलिए श्रीकृष्ण के दर्शन की लालसा से मैं यहां आया हूँ ।’

यह सुनकर एकनाथजी अवाक् रह गये । अपने सेवक खण्डिया में उन्हें कभी भगवान का अहसास नहीं हुआ । 

खण्डिया के वापिस आने पर ब्राह्मण ने उन्हें भक्ति-भाव से साष्टांग प्रणाम किया तो श्रीकृष्ण उसके सामने प्रकट हो गये । पर उसी क्षण खण्डिया अन्तर्ध्यान हो गया और फिर न लौटा ।

एकनाथजी को तब अहसास हुआ—खण्डिया कोई सेवक नहीं है, वरन् उसके रूप में मेरे नाथ श्रीकृष्ण ही थे लेकिन मुझसे उन्होंने यह कपट क्यों किया ? मैं उन्हें क्यों नहीं पहचान सका ? यह सोचकर वह बहुत शोकाकुल हो गए और भगवान से करुण प्रार्थना करने लगे ।

भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये और बोले—‘एकनाथ ! मैं संत के संग रहने का जो अपार सुख है, उसे लूटना चाहता था, संत की सेवा करने में जो आनन्द है, उसमें मैं अपने-आप को भूलना चाहता था । इसलिए मैंने जानबूझकर तुम्हारी स्मृति पर पर्दा डाल दिया था । यदि मैं ऐसा न करता तो तुम्हारे संग और सेवा का लाभ कैसे मिलता ?  तुम्हें विस्मरण हुआ पर उस विस्मरण में मैं ही कारण था ।’

एकनाथजी समझ गए—‘भगवान का स्मरण ज्ञान है तो उनको भूल जाना (विस्मरण) भगवान का प्रेम है ।’

भक्त से ही भगवान की भगवत्ता प्रकट होती है । भगवान यदि भक्त के रूप-अवस्था को न अपनाएं तो वे अपनी भगवत्ता को अनुभव नहीं कर सकते हैं । भगवान ही भक्त बनकर अपने लिए उनके प्रेम का आनन्द उठाते हैं ।

मनुष्य की प्रत्येक नस-नस में भगवान की सत्ता है । फिर भी इस बात को भूलकर मनुष्य साधना-भक्ति द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयास करता है । भगवान हमें दिखाई नहीं देते या हमारे पास नहीं है—इस धारणा को हटाना है, और यह भगवान ही हटा सकते हैं । इसलिए हम उन्हीं से प्रार्थना करनी चाहिए—

‘भगवान ! आप सर्वत्र होते हुए भी क्यों अपने आप को छिपाये हुए हो, जैसे भी आप हैं, वैसे ही दर्शन मुझे दीजिए ।’

प्रार्थना से द्रवित होकर भगवान भक्त के सर्वांग में उदय होने लगते हैं जिसका लक्षण है कि सारा तन-मन-प्राण उन्हीं के प्रेम में डूब जाता है, नेत्रों से अश्रु गिरने लगते हैं और मुख से राम, कृष्ण, हरि या ‘मां मां’ की पुकार होने लगती है । इससे भक्त और भगवान दोनों को ही प्रसन्नता होती है ।

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