iskcon mandir shri radha krishna

राधाजी श्रीकृष्ण की और श्रीकृष्ण राधाजी की आत्मा

श्रीराधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं तो श्रीकृष्ण उनके जीवनधन हैं। श्रीकृष्ण की समस्त चेष्टाएं श्रीराधा की प्रसन्नता हेतु हैं और राधा की अपूर्व निष्ठा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का प्राण है।

ब्रह्मवैवर्तपुराण (कृष्णखण्ड १४।५८-५९) में श्रीकृष्ण कहते हैं–’जो तुम हो वही मैं हूँ; हम दोनों में किंचित् भी भेद नहीं है। जैसे दूध में सफेदी, अग्नि में दाहिका शक्ति और पृथ्वी में गन्ध रहती है, उसी प्रकार मैं सदा तुममें रहता हूँ।’ श्रीकृष्ण ही राधा हैं और राधा ही श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों का प्रेम ही वंशी है।

व्रज के रसिक संतों के अनुसार श्रीकृष्ण नवकिशोर है तो श्रीराधा नित्यकिशोरी। श्रीकृष्ण रसिकशिरोमणि हैं तो राधा प्रेम-रसदात्री हैं। श्रीकृष्ण के श्रीअंग में श्रीकिशोरीजी की झलक बनी रहती है तथा किशोरीजी के कमनीय कलेवर में श्रीकृष्ण की छवि समायी रहती है। राधा-कृष्ण अभिन्न हैं। कृष्ण चन्दन हैं तो राधा उसकी सौरभ हैं। कृष्ण श्यामघन हैं तो राधा सौदामिनी हैं। श्यामसुन्दर प्रेमसिन्धु हैं तो श्यामा मधुर लहर हैं। यह युगल-तत्व  परस्पर इतना और ऐसा ओत-प्रोत है कि जो कभी भी एक-दूसरे से पृथक् नहीं हो सकता।

श्रीराधा के कृष्णमय बत्तीस नाम

भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार ने श्रीराधा के कृष्णमय नामों का वर्णन किया है जिनसे श्रीराधा के कृष्णमय भाव-स्वरूप का बोध होता है–

१. कृष्णप्राणाधिका–श्रीराधा श्रीकृष्ण को प्राणों से भी बढ़कर प्यारी हैं।

२. कृष्णप्रेमविनोदिनी–कृष्ण-प्रेम ही उनके मनबहलाव का साधन है।

३. श्रीकृष्णांगशुभध्यात्री– वे श्रीकृष्ण के अंगों का ही सदा शुभचिन्तन करती रहती हैं।

४. कृष्णानन्दप्रदायिनी–श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करना ही उनका स्वभाव है।

५. कृष्णस्याह्लादिनी–वे श्रीकृष्ण को आह्लादित करती हैं।

६. कृष्णध्यानपरायणा–श्रीराधा श्रीकृष्ण के ध्यान में ही तत्पर रहती हैं।

७. कृष्णसम्मोहिनी–वे श्रीकृष्ण को भली-भांति मोहित किए रहती हैं।

८. कृष्णानन्दप्रवर्धिनी–वे आनन्दरूप श्रीकृष्ण के आनन्द को कई गुना बढ़ा देती हैं।

९. कृष्णानन्दसदानन्दा–श्रीकृष्ण के आनन्द में ही सदा आनन्द मानती हैं।

१०. कृष्णकेलिसुखास्पदा–श्रीकृष्ण के केलिसुख की आधारभूता हैं।

११. कृष्णप्रेमाब्धिशफरी–श्रीकृष्ण के प्रेमरूपी पारावार में विहार करने वाली मछली हैं।

१२. कृष्णप्रेमतरंगिणी–श्रीकृष्ण-प्रेम की तरंगिणी हैं।

१३. कृष्णचित्तहरा–श्रीकृष्ण के चित्त को चुराने वाली हैं।

१४. कृष्णवन्द्या–वे श्रीकृष्ण की भी वन्दनीया हैं।

१५. कृष्णमुखी, हास्यमुखी–उनका मुख सदैव श्रीकृष्ण की ओर रहता है और उनके वदन पर हास्य की रेखा सदा खेलती रहती है।

१६. कृष्णकुतूहला–श्रीकृष्ण ही सदा उनके कौतुहल (उत्कण्ठा) के विषय बने रहते हैं।

१७. कृष्णकामा–श्रीकृष्ण ही उनकी कामना के एकमात्र विषय हैं।

१८. कृष्णप्रेममयी–वे श्रीकृष्णप्रेम का मूर्तिमान रूप हैं।

१९. काम्या–श्रीकृष्ण के लिए कामना का विषय बनी रहती हैं।

२०. कृष्णलीलाशिरोमणि–श्रीकृष्णलीला की मुकुटमणि हैं।

२१. कृष्णसंजीवनी–श्रीराधा श्रीकृष्ण के प्राणों के लिए संजीवनी बूटी हैं।

२२. कृष्णवक्ष:स्थलस्थिता–वे श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल में निवास करती हैं।

२३. कृष्णप्रेममदोन्मत्ता–वे कृष्ण-प्रेम के नशे में मतवाली हुई घूमती हैं।

२४. कृष्णप्रेमवती–वे श्रीकृष्ण-प्रेम की आश्रयभूता हैं।

२५. कृष्णसंयुक्तकामेशी–वे श्रीकृष्ण से सदा संयुक्त रहने वाली भगवती कामेश्वरी (त्रिपुरसुन्दरी) का ही दूसरा रूप हैं।

२६. श्रीकृष्णमहिषीश्रेष्ठा–वे श्रीकृष्ण की पत्नियों में श्रेष्ठ हैं।

२७. श्रीकृष्णप्रियवादिनी–वे श्रीकृष्ण के प्रति सदा मधुर वचन बोलती हैं।

२८. कृष्णशक्ति:, कांचनाभा–वे श्रीकृष्ण की ह्लादिनी शक्ति और सुवर्ण की-सी कान्ति से युक्त हैं।

२९. केलिकुंजनिवासिनी–श्रीराधा केलिकुंज (रासमण्डल) में निवास करती हैं।

३०. कृष्णप्रसाध्यमाना–श्रीराधा स्वयं श्रीकृष्ण द्वारा सजाई जाती हैं।

३१. कृष्णचित्तस्थिता–श्रीकृष्ण के मन में बसी रहती हैं।

३२. श्रीकृष्णप्रेमपरायणा–और तो क्या, वे श्रीकृष्ण के ही मधुर मनोहर प्रेम में सदा तत्पर रहती हैं।

भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार ने श्रीराधा के जिस स्वरूप के दर्शन किए, उसका सार है–

‘मेरी उन श्रीराधा के प्रेमराज्य में मलिन काम-भोग की लेशमात्र कल्पना भी नहीं है। रागरहित श्रृंगार है, मोहरहित पवित्र प्रेम है, निज-सुख-इच्छा से रहित ममता है, स्वादरहित सब खान-पान है, अभिमान से रहित अति मान है। मेरी वे साध्यस्वरूपा श्रीराधा नित्य तृप्त हैं और श्रीमाधव की पवित्रतम परमाराध्य हैं।’

नारदपांचरात्र में श्रीराधा के सम्बन्ध में कहा गया है–’जैसे श्रीकृष्ण ब्रह्मस्वरूप हैं तथा प्रकृति से सर्वथा परे हैं, वैसे ही श्रीराधा भी ब्रह्मस्वरूपा, माया व प्रकृति से परे हैं।’

राधा-राधा कहत हैं, जे नर आठो जाम।
ते भव सिँधु उलंघि कैं, बसत सदा ब्रजधाम।।

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