भगवान से प्रेम का खेल इतना सरस होता है कि इसमें भाग लेने के लिए उनके वे परिकर भी पृथ्वी पर शरीर धारण करते हैं जो संसार के आवागमन से मुक्त हैं । प्रेमी भक्त और प्रेमास्पद प्रभु दोनों ही इस संसार रूपी क्रीड़ास्थल को अपने लीला-रस से सराबोर कर देते हैं क्योंकि भगवान की लीला का जो रस पृथ्वी पर है वह वैकुण्ठ में भी नहीं है । ऐसी ही एक लीला भगवान रंगनाथ (विष्णु) और उनकी पत्नी भूदेवी (आण्डाल) की है । कुछ लोग उन्हें महालक्ष्मी या तुलसी का अवतार मानते हैं ।

महान वैष्णव विष्णुचित्त

दक्षिण भारत में कावेरी नदी के तट पर एक गांव में महान वैष्णव विष्णुचित्त हुए जिन्हें पेरि-आलवार कहा जाता है । उन्होंने भगवान की सेवा में पुष्प व तुलसी के लिए एक सुन्दर बगीचा लगाया था । उस बगीचे में मन्दिर बनाकर उन्होंने भगवान की स्थापना की और स्वयं भी फूल व तुलसी की माला बनाकर भगवान की सेवा करते हुए वहीं रहते थे ।

एक दिन प्रात:काल जब वह तुलसी वन सींच रहे थे, तुलसी क्यारी में उन्हें एक सुन्दर नवजात कन्या दिखाई दी । उन्होंने कन्या को भगवान नारायण के चरणों के रखकर कहा—‘प्रभो ! यह तुम्हारी सम्पत्ति है, तुम्हारी ही सेवा के लिए यह आई है, इसे अपने चरणकमलों में स्थान दो ।’

मूर्ति से आवाज आई—‘इस लड़की का नाम ‘कोदई’ रखो और अपनी पुत्री की तरह इसका पालन करो ।’

कोदई  का अर्थ है—फूलों के हार के समान कमनीय । इसी कोदई को जब आगे चलकर भगवान श्रीरंगनाथ ने अपनाया तो ये ‘रंगनायकी’‘आण्डाल’ के नाम से जानी गयीं ।

भूदेवी का अवतार हैं कोदई

भगवान ने स्वप्न में विष्णुचित्त को कन्या के बारे में बताते हुए कहा—‘वाराहावतार में जब मैंने पृथ्वी का उद्धार किया तब पृथ्वीदेवी ने मुझसे पूछा कि ‘आपको किस तरह की पूजा सबसे प्रिय है ?’ उस समय मैंने उनसे कहा—‘मुझे नाम-कीर्तन और पत्र-पुष्प-फल और तोय (जल) की पूजा सबसे प्रिय है । मेरी उस बात को हृदय में धारण कर पृथ्वी इस कन्या के रूप प्रकट हुई है । यदि तुम इस कन्या की सेवा करते रहोगे तो अवश्य परमपद को प्राप्त कर सकोगे ।’

वह कन्या जब बोलने लगी, तब उसके मुख से ‘विष्णु’ के अतिरिक्त कोई दूसरा नाम निकलता ही नहीं था । बड़ी होने पर वह भगवान के भजन गाते हुए फूलों के हार गूंथती । विष्णुचित्त उसकी बनायी माला लेकर भगवान श्रीरंगनाथ को चढ़ा आते ।

भगवान रंगनाथ

एक दिन विष्णुचित्त उसे भगवान के धाम के बारे में बता रहे थे । उन्होंने कहा—‘दक्षिण में कावेरी के तट पर भगवान श्रीरंगनाथ का वास है । राजा इक्ष्वाकु के यज्ञ की पूर्ति के लिए भगवान विष्णु यहां स्वयं प्रकट हुए । भगवान के दर्शन हो जाने पर इक्ष्वाकु ब्रह्माजी की आज्ञा से अयोध्या में तप करने लगे । प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने को कहा तो इक्ष्वाकु ने कहा—‘भगवान विष्णु का यहीं अवध में अवतार हो और वे रंगनाथजी के रूप में उनके कुलदेव रहें ।’

लंका विजय के बाद श्रीराम के साथ विभीषण भी अयोध्या आए । जब वे लंका वापिस जाने लगे तो उन्होंने श्रीराम से कोई वस्तु देने के लिए कहा । श्रीराम ने उन्हें श्रीरंगनाथजी की प्रतिमा दी । जब विभीषण कावेरी तट पर आए तब वे किसी काम में लग गए । दुबारा मूर्ति उठाने पर श्रीरंगनाथजी ने लंका जाना अस्वीकार कर दिया । विभीषण ने वह मूर्ति वहीं स्थापित कर दी और स्वयं पूजा-अर्चना के लिए नित्य लंका से यहां आया करते थे ।

भगवान रंगनाथ की प्रेम-पुजारिन आण्डाल

सयानी होने पर आण्डाल भगवान रंगनाथ को अपने पति के रूप में भजने लगी । भगवान के प्रेम में वह इतनी सुधबुध खो देती कि भगवान के लिए गूंथे हुए हार को स्वयं पहनकर दर्पण के सामने खड़ी हो जाती और अपनी सुन्दरता की प्रशंसा करते हुए कहती—‘क्या मेरा सौंदर्य मेरे प्रियतम को आकर्षित कर सकेगा ?’ आण्डाल भगवान के प्रेम में मतवाली रहती ।

भगवत्प्रेम बड़ी ही मीठी व मादक मदिरा है, जिसने इसका एक प्याला भी चढ़ा लिया, वह मस्त हो गया, धन्य हो गया । आनन्द ही उसका घर हो जाता है जिसमें वह सदा विहार करता रहता है ।

एक दिन मन्दिर के पुजारी ने विष्णुचित्त को यह कहकर माला लौटा दी कि इसमें मनुष्य के सिर का बाल लगा है । यह सुनकर विष्णुचित्त को बहुत दु:ख हुआ । दूसरे दिन भी पुजारी ने विष्णुचित्त से कहा कि तुम्हारी माला कुछ मुरझायी हुई है । विष्णुचित्त ने सोचा जरुर इसमें कुछ रहस्य है । जब वे इसका कारण ढूंढ़ने में लगे थे, तभी उनकी दृष्टि परदे के पीछे खड़ी आण्डाल पर पड़ी जो भगवान के लिए बनाए गए हार को पहनकर दर्पण के सामने खड़ी होकर भगवान से बातें कर रही थी । वे चिल्ला कर बोले—‘तू पागल तो नहीं हो गयी है जो भगवान के लिए बनाए गए हारों को स्वयं धारण कर जूठा कर रही है ।’

भगवान को पूर्ण समर्पण पसन्द है

भगवान भक्त के अपनेपन को देखते हैं । जब भक्त भगवान को पुकारता है, तब भगवान उसको अपना प्रेम प्रदान कर देते हैं । आण्डाल अपने को भगवान के चरणों में पूर्ण समर्पित कर चुकी थी । आण्डाल का पूर्ण व मधुर समर्पण भला भगवान को अंगीकार क्यों न होता ? उन्होंने तो भक्त के प्रेम में शबरी के जूठे बेर खाए, विदुरपत्नी के हाथ के केले के छिलके ही स्वीकार कर लिए ।

प्रेम के कारण शबरी के फल, खाए प्रभु ने बहुत बखान ।
दुर्योधन-घर त्याग सुमेवा, विदुर का केला छिलका पान ।।
मत यह सब झूठ समझना, ‘श्रीरमण’ प्रेमवश करना ।
पर प्रेम-पन्थ मत तजना, प्रभु प्रेमरूप साकार हैं ।। (श्रीजानकीरामाचार्यजी)

भगवान रंगनाथ ने रात्रि में विष्णुचित्त को स्वप्न में आदेश दिया—‘मुझे कोदई की पहनी हुई माला धारण करने में विशेष सुख मिलता है, इसलिए तुम मुझे वही हार चढ़ाया करो ।’ इसी से आण्डाल का नाम पड़ गया—‘चूडिक्को डुत्तनाच्चियार’ अर्थात् पहनकर देने वाली देवी ।

आण्डाल की भगवान रंगनाथ के प्रति कान्त भावना

विष्णुचित्त को आण्डाल का भगवान के प्रति निश्चल प्रेम समझ आ गया । अब वे उसकी धारण की गयीं मालाओं को ही भगवान को निवेदन करने लगे । धीरे-धीरे आण्डाल को भगवान का वियोग असह्य हो गया । उसकी आंखों में, हृदय में, प्राणों में, रोम-रोम में श्रीरंगनाथजी ही छाए हुए थे ।

प्रेम-पीर अति ही विकल, कल न परत दिन-रैन ।
सुन्दर श्याम सरूप बिन, ‘दया’ लहत नहिं चैन ।।

वह दहाड़ मारकर रोती हुई कहती—‘सीता की सुधि लेने के लिए तुमने समुद्र में पुल बनवाया और रावण को मारकर उसे अयोध्या ले आए, शिशुपाल का वध कर रुक्मिणी को अपनाया, द्रौपदी, गज, गणिका और गोपियों की टेर सुनी, मेरी ही बार इतना बिलम्ब क्यों कर रहे हैं ?’

आण्डाल की मधुर भाव की उपासना चरम पर पहुंच गयी । वह सदा अपने शरीर से ऊपर उठी रहती । वह रहती तो बगीचे में थी किन्तु उसका मन वृन्दावन में विचरता रहता । वह गोपियों के साथ खेलती और मिट्टी के घरोंदे बनाती । इतने में ही श्रीकृष्ण आकर उसके घरोंदे को ढहा देते और हंसने लगते । रास्ता चलने वालों से पूछती—‘क्या तुमने मेरे कमलनयन को देखा है?’ कोयलों से अपने प्रियतम का पता पूछती और अपने-आप ही अपने प्रश्नों का उत्तर देती हुई कहती—‘हां, देखा क्यों नहीं है ? वह तो वृन्दावन में गोपियों के साथ बांसुरी बजा रहा है ।’

भगवान में भी प्रेम की भूख

एक दिन जब उसकी विरह-व्यथा असीम हो गयी, तब भगवान रंगनाथ ने मन्दिर के पुजारियों व विष्णुचित्त को स्वप्न में दर्शन देकर कहा—‘मेरी प्रियतमा आण्डाल को मेरे पास ले आओ, मैं उसका पाणिग्रहण करुंगा ।’ दूसरे दिन मन्दिर से आण्डाल व विष्णुचित्त को लेने के लिए पालकियां आईं । शंख-ध्वनि होने लगी, ढोल बजने लगे ।

भगवान से विवाह

प्रेम में मतवाली होकर जैसे ही आण्डाल ने मन्दिर में प्रवेश किया, वह भगवान की शेषशय्या पर चढ़ गयी । चारों ओर दिव्य प्रकाश फैल गया और लोगों के देखते-ही-देखते आण्डाल सबके सामने भगवान श्रीरंगनाथ में विलीन हो गयी । प्रेमी और प्रेमास्पद एक हो गए और आण्डाल अब ‘रंगनायकी’ बन गयी ।

दक्षिण के वैष्णव मन्दिरों में आज भी भगवान रंगनाथ और रंगनायकी के विवाह का उत्सव हर साल मनाया जाता है । आण्डाल को ‘दक्षिण भारत की मीरा’ कहा जाता है ।

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