सदा सुखानन्दमयं जले च समुद्रजे इक्षुरसे निवासम्।
द्वन्द्वस्य यानेन च नाशरूपं गजाननं भक्तियुतं भजाम:।। (गजाननस्तोत्र)
अर्थात्–जो सदा सुखानन्दरूप हैं; समुद्र के जल में तथा इक्षुरस में निवास करते हैं और जो अपने यान द्वारा द्वन्द्व का नाश करने वाले हैं, उन गजानन का हम भक्तिभाव से भजन करते हैं।
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेशोत्सव की शुरुआत में गणेशभक्त गणपति की प्रतिमा को अपने घर लाते हैं, उनका आह्वान करते हैं, पूजन करते हैं और अंत में अगले बरस जल्दी आने का आश्वासन लेकर समुद्र में उसका विसर्जन कर उन्हें उनके लोक भेज दिया जाता है। यहां पर यह प्रश्न उठता है कि श्रीगणेश प्रतिमा का समुद्र में विसर्जन क्यों किया जाता है और उनका दिव्य लोक कौन-सा है?
श्रीगणेशलोक कहलाता है ‘स्वानन्दधाम’
गणेशपुराण के उपासनाखण्ड में श्रीगणेश के निवासस्थल को उनका ‘स्वानन्दधाम’ कहा गया है जो आनन्द से परिपूर्ण है। भगवान श्रीगणेश आनन्दमय हैं, सच्चिदानन्दरूप हैं। श्रीगणेश अपने भक्तों के पापों और विघ्नों को नष्ट करके उनको आनन्द प्रदान करते हैं। उनके नाम से ही मनुष्य के दोष जलने लगते हैं और कालरूप कलि कांपने लगता है; इसीलिए उनके धाम को ‘स्वानन्दधाम’ कहा जाता है।
‘शिवशक्ति कृत गणाधीश स्तोत्र’ में कहा गया है कि श्रीगणेश स्वानन्दलोक के वासी और सिद्धि-बुद्धि के प्राणवल्लभ हैं–‘स्वानन्दवासिने तुभ्यं सिद्धिबुद्धिवराय च’।
पूर्णानन्द गणेश अपने स्वानन्दधाम में निवास कर समस्त लोक का मंगल करते रहते हैं। गणेशलोक को ‘दिव्य लोक’ भी कहते हैं।
इक्षुरस के समुद्र में है श्रीगणेशलोक
श्रीगणेशलोक इक्षुसागर (ईख के रस के समुद्र) में नवरत्नमय द्वीप पर स्थित है। भगवान श्रीगणेश ने अपनी कामदायिनी शक्ति द्वारा इस लोक का निर्माण किया है। इस लोक का विस्तार पांच हजार योजन है। शीतल, मन्द, सुगन्धित वायु यहां सदा बहती रहती है। यहां की भूमि सुवर्णमय और रत्नमय है। रत्नों की प्रभा से सारी भूमि अरुण दिखाई देती है। यहां देवताओं के मन्दिर भी गुजामुक्तामणियों, रत्नों और हीरों के बने हैं। गणेशलोक का हर वृक्ष कल्पवृक्ष है। गणेशसहस्त्रनाम में श्रीगणेश को ‘चिन्तामणिद्वीपपति:’ और ‘कल्पद्रुमवनालय:’ कहा गया है, जिसका अर्थ है श्रीगणेशलोक चिन्तामणि (सभी कामनाओं को पूर्ण करने की सामर्थ्य रखने वाला रत्न) से बना है और कल्पद्रुमवनालय का अर्थ है श्रीगणेश कल्पवृक्ष के उपवन में निवास करने वाले हैं।
सहस्त्रदल कमल पर बनी महापीठ पर विराजते हैं श्रीगणेश
इक्षुसागर में एक विशेष प्रकार के चन्द्रमा के समान कांतिवाला सहस्त्रदल कमल है जिसकी कर्णिका के ऊपर एक सुन्दर पीठ (मंच) है। उस मंच पर भगवान श्रीगणेश बालरूप में शयन करते हैं। जैसे क्षीरसागर में भगवान नारायण शयन करते हैं वैसे ही श्रीगणेश इक्षुरस के समुद्र में शोभायमान हैं। सिद्धि-बुद्धि अत्यन्त भक्तिभाव से उनके चरणों की सेवा करती रहती हैं। सामवेद, शास्त्र व पुराण मूर्तिमान होकर उनका स्तुतिगान करते रहते हैं–
गानं करोति शास्त्राणि मूर्तिमन्ति स्तुवन्ति तम्।
पुराणानि च सर्वाणि वर्णयन्त्यस्य सद्गुणान्।। (गणेशपुराण)
भगवान श्रीगणेश का श्रीअंग विशालकाय, अत्यन्त कोमल और तपाये हुए सोने के रंग का है। उनकी बड़ी-बड़ी आंखें और एक दांत है।
एकदन्तं महाकायं तप्तकांचनसंनिभम्।
लम्बोदरं विशालाक्षं वन्देऽहं गणनायकम्।।
उनके मस्तक पर कस्तूरी-तिलक शोभित है। उन्होंने मुकुट, कुण्डल और दिव्य माला व परिधान धारण कर रखे हैं। उनके शरीर पर दिव्य गंध का लेप लगा है व मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट है। श्रीगणेश के चरणों में ध्वज-पताका व वज्र चिह्न अंकित है। तेजोवती और ज्वालिनी नाम की दो शक्तियां उस शय्या के सम्मुख सदैव विराजमान रहती हैं।
गणेशलोक की प्राप्ति केवल भक्ति से ही संभव
गणेशलोक में रहने वाले भक्तों को ‘गणेश-दूत’ कहा जाता है और उनका स्वरूप श्रीगणेश के समान हैं। गणेशलोक में रहने वालों को सुख-दु:ख, जरा-मृत्यु, शीत, क्लेश, स्वेद (पसीना), तन्द्रा (नींद), क्षुधा (भूख), तृषा (प्यास) आदि नहीं सताते हैं। गणेश-भक्तों का गुणगान सामवेद सदा करते रहते हैं। ऋद्धि-सिद्धि सदैव उनके मनोरथ पूरा करती रहती हैं।
श्रीगणेश और उनके लोक का ध्यान मनुष्य की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। परन्तु इस लोक की प्राप्ति किसी दान-व्रत, जप, यज्ञ आदि से नहीं होती है। दु:ख और मोहमाया से रहित यह गणेशलोक केवल श्रीगणेशभक्ति व कृपा से ही मिलता है।
श्रीगणेश के चिन्तन से मन को बड़ी शान्ति व तृप्ति मिलती है और मनुष्य संसार यात्रा को सफलता से पार कर लेता हैं।
सर्वविघ्नविनाशाय सर्वकल्याणहेतवे।
पार्वतीप्रियपुत्राय गणेशाय नमो नम:।।