देवताओं की गणेश आराधना

माघ शुक्ल चतुर्थी पर विशेष

सनकादि-सूरज-चंद खड़े आरती करें,
औ शेषनाग गंध की ले धूप को धरें।
नारद बजावें बीन इंदर चंवर ले ढरें,
चारों मुखन से अस्तुति ब्रह्माजी उच्चरें।।
जो जो शरन में आया है कीना उसे सनाथ,
भौ-सिंध से उतारा है दम में पकड़ के हाथ।
ये दिल में ठान अपने और छोड़ सब का साथ,
तू भी ‘नजीर’ चरनों में अपना झुका दे माथ।।

‘हे गणपते! तुम्हारे बिना कोई भी कर्म नहीं किया जाता।’ (ऋग्वेद (१०।११२।९)

ब्रह्माण्ड में होने वाले छोटे-बड़े सभी कार्यों व घटनाओं की सिद्धि के लिए श्रीगणेश की अर्चना का सहारा अनिवार्यरूप से लेना पड़ता है। गणेशजी परमात्मा के अवतार हैं। विघ्नों को दूर करने तथा सिद्धि और सफलता प्रदान करने के लिए भगवान ने ही श्रीगणेश का रूप धारण किया है। गणपत्यथर्वशीर्ष में कहा गया है— ‘त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि’ अर्थात् गणेशजी प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं।

संसार में श्रीगणेश सर्वोच्च सिंहासन पर प्रतिष्ठित हैं

पंचदेवों (विष्णु, शिव, सूर्य, देवी एवं गणेश) की उपासना पंचभूतों (पृथ्वी, आकाश, अग्नि, वायु एवं जल) से जुड़ी है। भगवान शिव पृथ्वीतत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी पार्थिवपूजा का विधान है। भगवान विष्णु आकाशतत्त्व के अधिपति होने से उनकी शब्दों द्वारा स्तुति का विधान है। देवी अग्नितत्त्व का अधिपति होने के कारण उनका अग्निकुण्ड में हवन के द्वारा पूजा की जाती है। सूर्य वायुतत्त्व के अधिपति होने के कारण उनका नमस्कार आदि से पूजा का विधान है। श्रीगणेश जलतत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी सबसे पहले पूजा का विधान है क्योंकि सृष्टि के आदि में एकमात्र जल ही विद्यमान था। इसी से श्रीगणेश सभी देवी-देवताओं के परम आराध्य, अग्रपूज्य व अनादि देव हैं।

मनुष्य ही नहीं देवता और ऋषि-मुनि भी कार्यसिद्धि के लिए करते हैं गणपति की आराधना

‘त्रिपुर पर विजय प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर ने, छल से बलि को बांधने के लिए भगवान विष्णु ने, चौदह भुवनों की रचना के लिए ब्रह्माजी ने, पृथ्वी को अपने मस्तक पर धारण करने के लिए भगवान शेष ने, महिषासुर के वध के लिए देवी पार्वती (दुर्गा) ने, सिद्धि प्राप्त करने के लिए सिद्धेश्वरों ने तथा विश्वविजय करने के लिए कामदेव ने जिनका ध्यान किया, वे भगवान गणपति हमारी रक्षा करें।’

स्वानन्दलोक के वासी, गणों के अधिपति, शिव व पार्वती के लाड़ले लाल, सिद्धि-बुद्धि के प्राणबल्लभ, स्कन्द के बड़े भाई, देवताओं के रक्षक, विष्णु आदि देवताओं के कुलदेवता भगवान श्रीगणेश सबके पूजनीय हैं। किसी भी कार्य के आरम्भ में सर्वप्रथम श्रीगणेश का पूजन करना आवश्यक माना जाता है। जो कोई इसका पालन नहीं करता, उसके कार्य में निश्चित विघ्न पड़ता है। जब-जब शिव-विष्णु-सूर्यादि देवताओं ने गणेशजी की अग्रपूजा नहीं की, तब-तब उन्हें अपने कार्य में विफल होना पड़ा। गणेशजी की शरण लेने के बाद ही उन्हें सिद्धि और कीर्ति की प्राप्ति हुई।

—भगवान श्रीराम ने अपने विवाह में अपने हाथों से बड़े प्रेम से गणेशजी की पूजा की थी।

‘आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।’ (मानस १।३२२।१ छन्द)

—भगवान शंकर और पराम्बा पार्वती ने अपने विवाह के समय सबसे पहले गणेशजी की पूजा की।

मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि।। (मानस १।१।१००)

—गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने इष्टदेव श्रीसीताराम की प्राप्ति के लिए भगवान गणेश की वन्दना की–

गाइये गनपति जगबंदन।
संकर-सुवन भवानी-नंदन।।
और अंत में उनसे वर मांगा–
मांगत तुलसिदास कर जोरे।
बसहिं राम सिय मानस मोरे।। (विनयपत्रिका)

श्रीरामदरबार के प्रथम द्वारपाल श्रीगणेश हैं। द्वारपाल की अनुमति के बिना रामदरबार में प्रवेश पाना कठिन है। यही कारण है कि तुलसीदासजी ने विनयपत्रिका में सबसे पहले गणेश वन्दना की।

ब्रह्माजी ने सृष्टिकार्य में आने वाले विघ्नों के नाश के लिए गणेशजी की थेऊर (जिला पूना)  में स्थापना कर पूजा की थी।

—भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ दैत्यों को मारने के लिए सिद्धटेक (अहमदनगर) में गणेशजी का पूजन किया था। द्वापर में व्यासजी ने वेदों का विभाजन निर्विघ्न सम्पन्न करने के लिए भगवान विष्णु द्वारा स्थापित इस गणेश मूर्ति की पूजा की थी। देवताओं और ऋषि-मुनियों ने इस मूर्ति का नाम ‘सिद्धविनायक’ रखा। भगवान विष्णु का यह तपक्षेत्र सिद्धाश्रम के नाम से प्रसिद्ध हैं।

श्रीराधा ने शाप के सौ वर्ष पूर्ण होने पर सिद्धाश्रम में ही श्रीकृष्ण प्राप्ति की कामना से श्रीगणेश का पूजन-स्तवन किया था।

—शिवजी गणेशजी की पूजा किए बिना ही त्रिपुरासुर को मारने गए; किन्तु उन्हें स्वयं ही पराजित होना पड़ा।

त्रिपुरासुर वध में सफल नहीं होने पर शंकरजी ने राजनगांव (जिला पूना) में श्रीगणेश का स्तवन किया और त्रिपुरासुर का वध किया। इस स्थान को मणिपूर-क्षेत्र कहते हैं।

पार्वतीजी ने लेह्याद्रि (जिला पूना) में गणेशजी को पुत्ररूप में पाने के लिए तपस्या की थी।

आदिशक्ति देवी ने ‘विन्ध्याचल क्षेत्र’ में आकर गणेशजी की प्रसन्नता के लिए तप किया, तब कहीं जाकर वे महिषासुर का वध कर सकीं।

—आदिकल्प के आरम्भ में ॐकार ने वेदों के साथ मूर्तिमान होकर प्रयाग (उत्तरप्रदेश) में गणपति की स्थापना व आराधना की थी। यह ॐकार गणपतिक्षेत्र है।

—‘गणानां त्वा गणपतिं हवामहे’  ऋग्वेद की इस ऋचा के मन्त्रद्रष्टा ऋषि गृत्समद ने महड़ (जिला कुलाबा) में  वरदविनायक की स्थापना कर प्रखर उपासना की थी।

—तारकासुर से युद्ध में पहले शिवपुत्र स्कन्द (कार्तिकेयजी)  विजय प्राप्त नहीं कर सके। फिर पिता के आदेश पर उन्होंने  वेरुल (जिला औरंगाबाद) में गणेशजी की स्थापना कर आराधना की और तारकासुर का वध किया। यह ‘लक्ष-विनायक’ नाम से जाने जाते हैं।

—गौतम ऋषि के शाप से छूटने के लिए देवराज इन्द्र ने कलम्ब (जिला यवतमाल) में चिन्तामणि गणेश की स्थापना कर पूजन किया था जिससे वे सभी चिन्ताओं से मुक्त हुए।

—महापाप, संकष्ट और शत्रु नामक दैत्यों के संहार के लिए देवताओं और ऋषियों ने अदोष (नागपुर) में गणपति की स्थापना कर तपस्या की थी। भगवान वामन ने भी राजा बलि के यज्ञ में जाने से पहले यहां गणेश की आराधना की थी। ये ‘शमी-विघ्नेश’ नाम से प्रसिद्ध हैं।

—अमृत-मंथन के समय जब अथक प्रयास के बाबजूद अमृत नहीं निकला, तब देवताओं ने कुम्भकोणम् (दक्षिण भारत) में श्रीगणेश की स्थापना करके पूजा की थी।

मंगल-ग्रह ने पारिनेर में तपस्या करके गणेशजी की आराधना की थी इसलिए इसे मंगलमूर्ति क्षेत्र कहते हैं।

चन्द्रमा ने गंगा मसले (जिला परभणी) में गणेशजी की आराधना की थी, अत: यह स्थान भालचन्द्र गणेश-क्षेत्र कहलाता है।

यमराज ने माता के शाप से छूटने के लिए नामलगांव (मराठावाड़)  में आशापूरक गणेशजी की मूर्ति स्थापित कर आराधना की थी।

भगवान दत्तात्रेय ने राक्षस-भुवन (बीड़) में विज्ञान गणेश की स्थापना कर अर्चना की थी, अत: यह विज्ञान-गणेशक्षेत्र कहलाता है।

—पद्मालय में कार्तवीर्य (सहस्त्रार्जुन) और शेषजी ने गणेशजी की आराधना की थी।

बल्लाल नामक वैश्य बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर पाली (जिला कुलाबा) में श्रीगणेश प्रकट हुए इसलिए इसे बल्लाल-विनायक क्षेत्र भी कहते हैं।

—सिन्दूरासुर का वध करने के बाद गणेशजी ने राजूर (जिला औरंगाबाद) में राजा वरेण्य को ‘गणेशगीता’ का उपदेश किया था। ये ‘ज्ञानदाता गणेश’ कहलाते हैं।

कश्यप ऋषि ने अपने आश्रम में गणेशजी की स्थापना कर आराधना की थी।

भक्तों की पुकार पर अनलासुर के नाश के लिए विजयपुर में श्रीगणेश प्रकट हुए थे।

—मयदानव द्वारा निर्मित त्रिपुर के असुरों ने जलेशपुर में गणेशजी की स्थापना कर पूजन किया था।

—सिद्धिदाता मयूरेश्वर गणपति की स्थापना उनके अनन्य भक्त मोरया गोसावी ने मोरेश्वर (जिला पूना)  में की थी। भगवान गणपति का यह सबसे प्रधान व जाग्रत पीठ है। इसे पृथ्वी पर गणपतिजी का स्वानन्दधाम कहते हैं। यहां के देवता हैं मयूरेश्वर। यहीं पर समर्थ गुरु रामदास एवं तुकारामजी ने श्रीगणेश की उपासना की थी।

—शकुन्तला के धर्मपिता महर्षि कण्व ने टिटवाला (जिला थाना) में गणेश प्रतिमा स्थापित की और पिता की आज्ञा से शकुन्तला ने गणेशव्रत लिया जिससे उसे राजा दुष्यन्त पति रूप में प्राप्त हुए। ये गणेश विवाहविनायक कहलाते हैं।

हमारा जीवन विघ्नबाधा रहित हो तथा हमें चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति सरलता से हो जाए इसके लिए हमें विधिवत् गणेश उपासना करनी चाहिए।

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