मूसा है सवारी का अजब खूब बे-नजीर (अनुपम),
क्या खूब कान पंजे और दुम है दिल पजीर (मोहित करने वाली)।
खाते हैं मोतीचूर के, चंचल बड़ा शरीर,
दुख-दर्द को हरे हैं, दिल को बंधावें धीर।
हर आन ध्यान कीजिये सुमिरन गनेशजी,
देवेंगे रिद्धी-सिद्धि अन-धन गनेशजी।।(भक्तकवि ‘नजीर’)
श्रीगणेश मूषकवाहन व मूषक-चिह्न की ध्वजा वाले हैं। श्रीगणेश का शरीर विशालकाय है किन्तु उनका वाहन मूषक बहुत छोटा होता है। ऊपरी तौर पर यह बात देखने में बहुत हास्यास्पद लगती है पर इसका बहुत गहन अर्थ है। श्रीगणेश परमब्रह्म की ज्ञानमयी व वांग्यमयी शक्ति का रूप हैं। परमात्मा न तो हल्का है न भारी। वह अणु से भी अणु हैं और महान से भी महान हैं। उसका सभी शरीरों में वास है। प्रत्येक देवता के वाहन-आयुध आदि देवता का ही तेजरूप होता है।
प्रत्येक युग में श्रीगणेश का वाहन बदलता रहता है। कृतयुग में उनका वाहन सिंह, त्रेता में मयूर, द्वापर में आखु-मूषकवाहन और कलियुग में वे घोड़े पर आरुढ़ रहते हैं।
श्रीगणेश के मूषक वाहन सम्बन्धी कथाएं
गणेशपुराण के अनुसार–एक बार कौंच नामक गन्धर्व इन्द्रसभा में गायन कर रहा था। गाते समय उसे खांसी आई और उसने सभागार के गवाक्ष (खिड़की) से नीचे थूक दिया। नीचे इन्द्र की राजधानी अलकापुरी के रास्ते से मुनि वामदेव जा रहे थे, वह थूक उन पर गिरा। कौंच गन्धर्व को देखकर उन्हें बहुत क्रोध आया और उन्होंने उसे ‘मूषक’ होने का शाप दे दिया। भयभीत गन्धर्व ने मुनि से क्षमा-प्रार्थना की। तब मुनि ने कहा–’तू देवदेव गजानन का वाहन होगा, तब तुम्हारा दु:ख दूर हो जाएगा।’
कौंच गन्धर्व अत्यन्त विशालकाय व भयानक मूषक बनकर पाराशर ऋषि के आश्रम में रहने लगा। चूहा अपने स्वभाव के अनुसार आश्रम की वस्तुओं को कुतरने लगा। उसने अपने उपद्रव से आश्रम के बर्तन, वस्त्र, वृक्ष व उपयोगी वस्तुएं नष्ट कर दीं।
पाराशर ऋषि सोचने लगे कि इस विपत्ति से त्राण पाने के लिए मैं क्या करुं, कौन मेरा यह दु:ख दूर करेगा?
मूषक से परेशान पाराशर ऋषि ने अपनी व्यथा गजानन को बतलाई। ऋषि को मूषक के कष्ट से मुक्त करने के लिए गणेशजी ने उस मूषक पर अपना पाश फेंका। उस तेजस्वी पाश ने मूषक को बांध लिया और खींचकर गजानन के सम्मुख प्रस्तुत किया। पाश में बंधे मूषक ने जब श्रीगणेश का दर्शन किया तो उसे ज्ञानोदय हुआ।
भयभीत मूषक श्रीगणेश की स्तुति करने लगा–
‘आप सम्पूर्ण जगत के स्वामी, जगत के कर्ता, हर्ता और पालक हैं। ब्रह्मादि देवताओं के लिए अगम्य और मुनि-मन-मानस-मराल दयामय देव हैं। अब आप मुझ पर दया करें।’
मूषक की स्तुति सुनकर श्रीगणेश प्रसन्न हो गए और बोले–’अब तू मेरी शरण में आ गया है तो निर्भय हो जा और कोई वर मांग ले।’ पर अहंकारी मूषक ने श्रीगणेश से कहा–’मुझे आपसे कुछ नहीं मांगना। आप चाहें तो मुझसे वर मांग सकते हैं।’ श्रीगणेश ने तुरंत कहा–’तू मेरा वाहन बन जा।’ दयावश गणेशजी ने उसे अपनी सेवा में स्थान दे दिया। उसी दिन से ‘मूषक’ उनकी सवारी बन गया। मूषक गजानन के भार से दबकर अत्यन्त कष्ट पाने लगा। उसे लगा कि मैं चूर्ण-विचूर्ण हो जाऊंगा। तब उसने श्रीगणेश से प्रार्थना की–’प्रभो! आप इतने हल्के हो जाएं कि मैं आपका भार वहन कर सकूं।’ मूषक का गर्व नष्ट हो गया और गजमुख उसके वहन करने योग्य हल्के हो गए।
एक अन्य कथा के अनुसार सौभरि ऋषि अपनी पत्नी मनोमयी के साथ सुमेरु पर्वत पर आश्रम में रहते थे। एक बार जब ऋषि समिधा लेने वन में गए तब कौंच नामक गन्धर्व कामातुर होकर वहां आया और उसने ऋषि-पत्नी का हाथ पकड़ लिया। उसी समय सौभरि ऋषि वहां आ गए और उन्होंने गन्धर्व को शाप देते हुए कहा–’दुष्ट! तूने चोर की तरह आकर मेरी पत्नी का हाथ पकड़ा है, इस कारण तू मूषक होकर धरती के नीचे और चारों ओर चोरी के द्वारा अपना पेट भरेगा।’
गन्धर्व के द्वारा क्षमा मांगने पर ऋषि ने कहा–’मेरा शाप व्यर्थ नहीं होगा; द्वापर में महर्षि पाराशर के यहां देवदेव गजानन पुत्ररूप में प्रकट होंगे। तू उनका वाहन बन जायेगा। तब देवगण भी तुम्हारा सम्मान करने लगेंगे।’ तब से मूषक श्रीगणेश का वाहन बन गया।
श्रीसम्पूर्णानन्द ने अपनी पुस्तक ‘गणेश’ में लिखा है–’श्रीगणेश का गजमुखासुर दैत्य से युद्ध हुआ था। उसमें उनका एक दांत टूट गया। उन्होंने टूटे हुए दांत से दैत्य पर ऐसा प्रहार किया कि वह घबराकर चूहा बनकर भागा, पर गणेशजी ने उसे पकड़ लिया। उसी समय से वह दैत्य उनका वाहन बन गया।
गणेशजी का वाहन मूषक ही क्यों?
इस सम्बन्ध में विद्वानों ने अलग-अलग तर्क दिए हैं–
- श्रीगणपति के वाहनरूप में स्थित मूषक अन्तर्यामी ब्रह्म का प्रतीक हैं। मूषक घर के भीतर घुसकर सब चीजों को मूसा करता (खाता है) है, पर घर के लोग न उसे जानते हैं और न बिल में होने के कारण देख पाते हैं। अन्तर्यामी ब्रह्म भी सृष्टि के सभी पदार्थों में अदृश्यरूप से स्थित है, वही सब प्राणियों के हृदय में निवास कर सभी को गति दे रहे हैं। वह सभी के शरीर में स्थित होकर मूषक की तरह चुपचाप सभी भोगों को भोगा करते हैं। किन्तु मायाग्रस्त अहंकारी जीव इसे नहीं जानता। वह स्वयं को ही भोक्ता समझता है। मनुष्य के हृदयकमल में निवास करने वाला ईश्वर ही वास्तव में सब भोगों का भोक्ता है। मूषक भी घर के भीतर पैठ बनाकर चीजें चुराया करता है परन्तु घर के मालिक को इसका पता नहीं चलता। अत: मूषक का गजानन का वाहन बनना औचित्यपूर्ण है।
- बुद्धि और विद्या के अधिष्ठाता गणेश का वाहन मूषक विवेकपूर्ण बुद्धि, प्रतिभा एवं मेधा का प्रतीक है। मूषक का काम किसी भी वस्तु को कुतरकर उसके अंग-प्रत्यंग का विश्लेषण कर देना है। अत: मूषक विश्लेषणात्मक (मीमांसाकारिणी) बुद्धि का प्रतीक है। ऐसी बुद्धि होने पर ही व्यक्ति की मेधा का विकास व सत्-असत् का ज्ञान होता है।
- मूषक का स्वभाव वस्तु को कुतर कर उसका विश्लेषण कर देना है। वह यह नहीं देखता कि वस्तु नई है या पुरानी–बिना कारण ही उन्हें काट डालता है। अत: मूषक तार्किक (विश्लेषणकारी) बुद्धि का प्रतीक है। इसी प्रकार कुतर्की लोग भी यह नहीं सोचते कि कोई बात कितनी हितकर या सुन्दर है, वे उसे चूहे की भांति काट डालते हैं। श्रीगणेश बुद्धि के देवता हैं। अत: उन्होंने कुतर्करूपी मूषक को वाहन रूप से अपने नीचे दबा रखा है। अत: उसका गजानन का वाहन बनना उचित है।
- मूषक कामभावना का प्रतीक है। कामातुर चित्त में देवता का वास नहीं होता। अाध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन प्रथम शर्त है। अत: श्रीगणेश के उपासक के लिए मन में छिपी हुई मूषक के समान काम भावनाओं पर नियन्त्रण बहुत आवश्यक है।
- शक्ति और सिद्धि पाने के लिए कामशक्तिरूपी मूषक को वाहन बनाना होगा, उस पर नियन्त्रण करना होगा। अत: गणपति के उपासक के लिए मूषकवत् मन में छिपी सभी कामवृत्तियों पर नियन्त्रण पाना अत्यन्त आवश्यक है।
- मूषक बिल में रहने वाला अन्धकार का जीव है, अर्थात् वह अज्ञानमयी शक्तियों का प्रतीक है जो ज्ञान और प्रकाश से डरती हैं। अत: गणपति के उपासक को अंधकार में छिपकर रहने वाली व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को हानि पहुंचाने वाली शक्तियों को नियन्त्रण कर जीवन के सभी पहलुओं को ज्ञान के प्रकाश से पूर्ण करना होगा। मूषकवाहन निरन्तर जागरुक रहने एवं सर्वत्र ज्ञानपूर्ण रहने का संदेश देता है।
अहो मूषकवाहन हो देव देखिले गहन।
महाविघ्नविध्वंसन हो गणराज।। (संत मोरया गोसावी)
हे मूषकवाहन ! मैंने बहुत बड़े देव देखे हैं, किन्तु महाविघ्नों का विध्वंस करने वाला गणराज तू ही है।
Main apka hriday se abhari hun ki aap ne is katha ko bhakti me prerit karne ke liye likha hai. Dhaniya hai aap. Jai shri krishna
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास॥
प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥
जय जय सियाराम
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