नमस्ते गणनाथाय गणानां पतये नम:।
भक्तिप्रियाय देवेश भक्तेभ्य: सुखदायक।।
अर्थात्–भक्तों को सुख देने वाले देवेश्वर! आप भक्तिप्रिय हैं तथा गणों के अधिपति हैं; आप गणनाथ को नमस्कार है।
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रदर्शन निषेध है। इस दिन चन्द्रमा के दर्शन से चोरी, मिथ्या कलंक और व्यभिचार का पाप लगता है। एक बार श्रीकृष्ण ने नारदजी से कहा–’हे देवर्षि! मुझे अकारणवश बार-बार दोष लग रहा है। मुझे चिन्तामुक्त कीजिए। नारदजी ने कहा–’हे देव! आप पर जो कलंक (स्यमन्तक मणि चुराने का) लगा है, उसका कारण मैं जानता हूँ। आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रमा के दर्शन किए हैं, इसीलिए आपको बार-बार कलंकित होना पड़ रहा है। स्वयं गणेशजी ने सबसे सुन्दर रूप पर घमण्ड करने वाले चन्द्रमा को शाप दिया है कि आज के दिन जो लोग तुम्हारा दर्शन करेंगे उन्हें व्यर्थ ही समाज में निन्दा सहन करनी पड़ेगी। श्रीकृष्ण ने नारदजी से उस कथा का वर्णन करने को कहा जिसमें अमृत को बरसाने वाले चन्द्रमा को गणेशजी ने शाप दिया था।
श्रीगणेश द्वारा चन्द्रदेव को शाप देने की कथा
गणेशपुराण की एक कथा के अनुसार एक बार कैलास पर लोकपितामह ब्रह्मा कर्पूरगौर शिवजी के पास बैठे हुए थे। उसी समय देवर्षि नारद एक अत्यन्त सुन्दर व स्वादिष्ट फल लेकर वहां आए और उन्होंने वह फल उमापति शिव को भेंट कर दिया। उस सुन्दर फल को पिता के हाथों में देखकर षडानन और गजानन दोनों ही उसे मांगने लगे। तब शिवजी ने चतुरानन ब्रह्मा से पूछा–’देवर्षि नारद द्वारा दिया गया यह अपूर्व फल एक ही है; गणेश और कुमार दोनों ही इसे चाहते हैं, अत: आप बताएं कि मैं इसे किसे दूँ?’
चतुरानन ब्रह्मा ने उत्तर दिया–’छोटे होने के कारण इस फल के अधिकारी स्कन्दकुमार हैं।’ यह सुनकर उमापुत्र गणेश सृष्टिकर्ता ब्रह्मा पर कुपित हो गए। ब्रह्मलोक पहुंचकर जब पितामह ब्रह्मा ने सृष्टि-रचना का प्रयत्न किया तो गणेशजी ने विघ्न उपस्थित कर दिये और उग्ररूप में ब्रह्माजी के समक्ष प्रकट हो गए। विघ्नेश्वर के उग्ररूप को देखकर ब्रह्माजी कांपने लगे और गणेशजी के सर्वांग का ध्यानकर स्तुति करने लगे–
‘मोतियों और रत्नों से भगवान गणेश का मुकुट जटित है, सम्पूर्ण शरीर लाल चन्दन से चर्चित है, उनके मस्तक पर सिंदूर शोभित है, गले में मोतियों की माला है, वक्ष:स्थल पर सर्पयज्ञोपवीत है, बाहुओं में बहुमूल्य रत्नजटित बाजूबंद हैं, उनकी ऊंगलियों में मरकतमणिजटित अँगूठी है, उनके लम्बे से उदर की नाभि चारों ओर से सर्पों द्वारा वेष्टित है, रत्नजटित करधनी है, स्वर्णसूत्र लसित लाल वस्त्र हैं और उनके हाथ वरदादि मुद्राओं से शोभायमान हैं। हे गणपतिजी! आपकी कृपादृष्टि के फलस्वरूप विष्णु पालन करते हैं और शिवजी संहार करते हैं। ऐसी स्थिति में मेरी सामर्थ्य नहीं कि मैं आपकी स्तुति कर सकूं।’
ब्रह्माजी की प्रार्थना से प्रसन्न होकर गजानन ने उन्हें निर्विघ्न सृष्टि रचना का वरदान दे दिया। गणेशजी का अद्भुत और विकट रूप (लम्बी सूंड, शूपकर्ण, लम्बे दांत, मोटा पेट व मूषकवाहन) और ब्रह्मा का भय से कांपना देखकर चन्द्रदेव हँस पड़े। चन्द्रमा को हँसते हुए देखकर गणेशजी को क्रोध आ गया और उन्होंने तुरन्त चन्द्रदेव को शाप दे दिया–’चन्द्र! अब तुम किसी के देखने योग्य नहीं रह जाओगे और यदि किसी ने तुम्हें देख लिया तो वह पाप का भागी होगा।’
गणेशजी के शाप के कारण चन्द्रमा श्रीहीन, मलिन एवं दीन होकर जल में प्रवेश कर गए। चन्द्रदेव के जल में रहने से सभी देवताओं को बहुत दु:ख हुआ। चन्द्रदेव मन-ही-मन कहने लगे–’अणिमादि गुणों से युक्त, जगत के कारण परमेश्वर के साथ मैंने मूर्ख की भांति दुराचरण किया। अब मैं सबके लिए अदर्शनीय व मलिन हो गया हूँ। अब मैं पुन: कलाओं से युक्त, सुन्दर और देवताओं के लिए सुखद कैसे हो सकूंगा।’
ऐसा विचारकर सुधाकर चन्द्रदेव जाह्नवी के तट पर गणेशजी का ध्यान करते हुए उनके एकाक्षरी मन्त्र का जप करने लगे। चन्द्रदेव के बारह वर्ष तक कठोर तप से प्रसन्न होकर सिन्दूर के समान आभा वाले, रक्तपुष्पों की माला धारण किए हुए, रक्तचंदनचर्चित, चतुर्भुज, महाकाय, कोटि सूर्योंके समान दीप्तिमान गजानन प्रकट हो गए।
चन्द्रदेव ने भय से कांपते हुए कहा–’हे प्रभो! आप सब जगह हैं और अंतर्यामी हैं। हे देवाधिदेव! हे वक्रतुण्ड! हे दयानिधान! अज्ञानतावश मैंने आपका अपराध किया। अब मैं आपकी शरण में हूँ। मुझे आपके प्रभाव का पूर्ण ज्ञान हो गया है।।’
चन्द्रमा के गद्गद् कंठ से किए गए स्तवन और दण्डवत् प्रणाम से संतुष्ट होकर गजानन ने कहा–’चन्द्रदेव! पहले तुम्हारा जैसा रूप था, वैसा ही हो जाएगा; किन्तु जो मनुष्य भाद्रपद-शुक्ल चतुर्थी को तुम्हें देख लेगा, उसे निश्चय ही पाप, हानि एवं मूढ़ता का सामना करना पड़ेगा। उस तिथि को तुम अदर्शनीय रहोगे। लेकिन शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन जो मनुष्य हर माह लगातार तुम्हारा दर्शन करते रहेंगे, उन्हें भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चन्द्र-दर्शन का मिथ्या दोष नहीं लगेगा।’
‘कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को जो व्रत किया जाता है, उसमें तुम्हारे उदय होने पर मेरी और तुम्हारी पूजा होनी चाहिए। उस दिन लोगों को तुम्हारा दर्शन अवश्य करना चाहिए; अन्यथा व्रत का फल नहीं मिलेगा। तुम एक अंश से मेरे ललाट में स्थित रहो। प्रत्येक मास की द्वितीया तिथि को लोग तुम्हें नमस्कार करेंगे।’ उसी समय से सब लोग द्वितीया के दिन आदर सहित चन्द्रमा के दर्शन करने लगे।
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को यदि भूल से चन्द्रमा दिख जाएं तो ऐसा कहें–’सिंह ने प्रसेनजित को मार डाला और जाम्बवान ने शेर को मृत्युलोक भेज दिया। हे बेटा! अब रोओ नहीं तुम्हारी स्यमन्तक मणि यह है।’
इस प्रकार गजानन के वर देने से चन्द्रदेव पहले की ही भांति तेजस्वी, सुन्दर और वन्दनीय हो गए। संकटों का नाश करने वाले भगवान गणपतिजी की प्रसन्नता से मनुष्यों को संसार में सभी वस्तुएं आसानी से प्राप्त हो जाती हैं।
त्रिपुरासुर को जीतने के लिए शिव ने, बलि को छल से बांधते समय विष्णु ने, जगत को रचने के लिए ब्रह्मा ने, पृथ्वी को धारण करने के लिए शेषनाग ने, महिषासुर को मारने के समय पार्वती ने, सिद्धि पाने के लिए सनकादि ऋषियों ने और समस्त संसार को जीतने के लिए कामदेव ने गणेशजी का ही ध्यान किया है।