भगवान श्रीकृष्ण के वामभाग से परम शान्त, परम कमनीय मूल प्रकृति रूप में श्रीराधा जी प्रकट हुईं । श्रीकृष्ण के अर्द्धांग से प्रकट होने के कारण वे श्रीकृष्णस्वरूपा ही हैं । वे भगवान श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति हैं । उनकी शक्ति से ही भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक लीला सम्पन्न होती है ।
भगवान श्रीकृष्ण की बाललीलाएं तो हमें चमत्कृत करती ही हैं; पुराणों में श्रीराधा की भी ऐसी अलौकिक लीलाएं पढ़ने को मिलती हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि श्रीराधा वास्तव में कोई साधारण गोपी नहीं हैं; बल्कि श्रीकृष्ण की तरह ही ‘परा देवता’ हैं । यही कारण है कि श्रुतियों में उनका एक नाम ‘परा देवता’ भी है ।
देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता ।
सर्वलक्ष्मीस्वरूपा सा कृष्णाह्लादस्वरूपिणी ।।
अर्थात्–श्रीराधा श्रीकृष्ण की आराधना में तन्मय होने के कारण ‘राधिका’ कहलाती हैं । श्रीकृष्णमयी होने से ही वे ‘परा देवता’ हैं । श्रीकृष्ण के आह्लाद का मूर्तिमान स्वरूप होने के कारण ‘ह्लादिनी शक्ति’ हैं ।
जब श्रीराधा ने दुर्वासा ऋषि को कराया अलौकिक भोजन : कथा
एक बार श्रीराधा अपनी सखियों के साथ गहवर वन में खेल रही थीं । तभी दुर्वासा ऋषि अपनी शिष्य मंडली के साथ श्रीराधा के दर्शन व उनके हाथ से प्रसाद ग्रहण करने की लालसा से वहां आए । श्रीराधा को सखियों संग खेलते देख वे उनके रूप-सौंदर्य को निहारते रह गए और मन-ही-मन स्तुति करने लगे—
वन्दे श्रीराधिकां देवीं व्रजारण्यविहारिणीम्।
यस्या: कृपां विना कोऽपि न कृष्णं ज्ञातुमर्हति।।
अर्थात्—व्रज के वनों में विहार करने वाली श्रीराधा को मैं वंदन करता हूँ, जिनकी कृपा के बिना कोई भी श्रीकृष्ण को जान नहीं सकता है ।
एक बाबा को इस तरह एकटक देखते रहने से श्रीराधा डर गईं और रोती हुईं अपनी सखियों के साथ वृषभानु-महल में जाकर माता कीर्तिदा के आंचल में छिप गईं ।
माता ने सखियों से जब श्रीराधा के रोने का कारण पूछा तो सखियों ने बताया कि वन में एक डरावनी दाढ़ी-मूंछ वाला बाबा आया है । वह लाली (श्रीराधा) को घूर-घूर कर देख रहा था । माता कीर्तिदा को समझते देर न लगी कि हो-न-हो यह बाबा दुर्वासा ऋषि ही हैं ।
इसके बाद माता कीर्तिदा, श्रीराधा व सखियों के साथ गहवर वन में गईं और दुर्वासा ऋषि को श्रीराधा व उनकी सखियों सहित अपना परिचय कराया । दुर्वासा ऋषि ने प्रसन्न होकर श्रीराधा को सौभाग्यवती और चिरंजीवी होने का आशीर्वाद दिया ।
दुर्वासा ऋषि ने माता कीर्तिदा से अपने शिष्यों के साथ श्रीराधा के हाथ का बना भोजन करने की इच्छा प्रकट की । माता दुर्वासा ऋषि के इस आग्रह को स्वीकार करने में हिचकिचाने लगीं; क्योंकि दुर्वासा ऋषि के साथ उनके दस हजार शिष्य भी थे । साथ ही दुर्वासा ऋषि बहुत क्रोधी माने जाते हैं । क्रोध में आकर कुछ भी शाप दे देते हैं । लेकिन श्रीराधा ने दुर्वासा ऋषि के आग्रह को स्वीकार कर लिया और अपनी सखियों के साथ अतिथियों के भोजन की तैयारी में जुट गईं ।
श्रीराधा ने अपनी सखियों को ‘गहवर कुण्ड’ और ‘श्रीराधा सरोवर’ से रज (मिट्टी) लाने की आज्ञा दी । कुछ ही देर में सखियों के यूथों ने रज का ढेर लगा दिया । तब श्रीराधा ने सखियों को उस रज से छोटी-छोटी गोलियां बनाने की आज्ञा दी । श्रीराधा के मानसी संकल्प से कदम्ब के पत्ते दौने बन गए और विभिन्न लताओं के पत्ते पत्तल बन गए ।
अब श्रीराधा ने दुर्वासा ऋषि को शिष्यों सहित भोजन के लिए बुलाया । पत्तल पर रज की गोलियां व दोनों में कुंड का जल परोस कर सबसे भोजन करने का आग्रह किया । दुर्वासा ऋषि को लगा श्रीराधा उनका मजाक बना रही हैं; परन्तु श्रीराधा के आग्रह करने पर जैसे ही सबने रज की गोलियों को मुख में रखा तो उन्हें अत्यंत सुस्वादु अलौकिक व्यंजनों का स्वाद आया । दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्य भरपेट रज की गोलियां खाकर व कुण्ड का जल पीकर तृप्त हो गए ।
व्रज-बरसाना के रजकणों के समान तो वैकुण्ठ भी नहीं है; क्योंकि यहां की भूमि का चप्पा-चप्पा श्रीप्रिया-प्रियतम (श्रीराधाकृष्ण) के चरणचिह्नों से मण्डित है । श्रीयुगलजोड़ी के प्रेमसिन्धु का अद्भुत रस यहां कण-कण में रचा-बसा है । उनके दिव्य-अंगों के सौरभ (खुशबू) से यहां की दिशाएं सुवासित हैं । उनके वेणुनाद का माधुर्य यहां जड़-चेतन सभी को मदमस्त कर रहा है । देवगण, ऋषि-मुनि इसी रस के लिए सदा लालायित रहते हैं ।
दुर्वासा ऋषि ने प्रसन्न होकर श्रीराधा को आशीर्वाद देते हुए कहा—‘जो भी तुम्हारे हाथ से बना प्रसाद ग्रहण करेगा, वह चिरंजीवी हो जाएगा ।’
जब माता यशोदा को दुर्वासा ऋषि द्वारा श्रीराधा को दिए गए आशीर्वाद का पता चला तो उन्होंने उन्हें नंदगांव बुलवाया और श्रीराधा से आटे के लड्डू बनवा कर अपने लाला श्रीकृष्ण को खिलवाए । इस तरह माता यशोदा ने अपने पुत्र के चिरंजीवी होने का उत्सव मनाया ।
सारे व्रज में बस यही घोष हो रहा था—
पाहि चिरं ब्रजराजकुमार !
अस्मानत्र शिशो ! सुकुमार ! (श्रीगोपालचम्पू:)
‘रे सुकुमार बालक ! रे ब्रजराजकुमार ! तू बड़ा होकर चिरकाल तक हम लोगों की रक्षा कर ।