bhagwan shri ram charan paduka bharat ji

श्रीराम, लक्ष्मण व जानकी जी के वनगमन के बाद भरत जी जब अयोध्या के पूरे समाज के साथ उनसे मिलने चित्रकूट आते हैं; उस समय उनके रोम-रोम से श्रीराम-प्रेम का अलौकिक प्रकाश छिटक रहा था । भरत जी की कोई सुख भोगने की इच्छा नहीं है । वे तो बस यही चाहते हैं कि श्रीराम आनंद में रहें, मैं दु:ख सहन करुंगा । 

सुख को अपनी ओर खींच लेना, इसे ‘काम’ कहते हैं और सुख को प्रिय को अर्पण कर देना इसे ‘प्रेम’ कहते हैं । भरत जी प्रेम की मूर्ति हैं ।

उधर जब राम जी को यह संकेत मिला कि भरत जी मिलने आए हैं और प्रणाम कर रहे हैं तो वे प्रेम में इतने मग्न हो गए कि उन्हें इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि वस्त्र कहां गिर गया, तरकस कहां गिरा, बाण कहां गिरे और धनुष किधर जा पड़ा ? उन्होंने तो अधीर होकर भरत जी को हृदय से लगा लिया ।

श्रीराम ने भरत जी से कहा—‘भाई भरत ! आज तक मैंने तुमको कभी नाराज नहीं किया; परंतु आज मुझको कहने में दु:ख होता है । पिताजी की आज्ञा का पालन करना तेरा भी धर्म है और मेरा भी धर्म है ।’

भरत जी ने कहा—‘आपने आज्ञा की वह मुझे शिरोधार्य है । मैं चौदह वर्ष आपका स्मरण करता हुआ अयोध्या में रहूंगा । चौदह वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर यदि आप अयोध्या आने में एक दिन का भी विलम्ब करोगे तो मैं प्राणों का त्याग कर दूंगा; परंतु चौदह वर्ष तक प्राण टिकाने के लिए मुझको कोई आधार दीजिए ।’

पादुके देहि राजेन्द्र राज्याय तव पूजिते ।
तयो: सेवां करोम्येव यावदागमनं तव ।।

राम जी ने भरत जी को अपनी चरण-पादुकाएं दीं । भरत जी ने चरण-पादुकाओं को मस्तक पर पधराया । मस्तक बुद्धि का स्थान है । मस्तक पर भगवान की चरण-पादुका रखने से बुद्धि में कोई विकार—काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि प्रवेश नहीं कर सकते हैं ।

राम जी की चरण-पादुकाएं लेकर भरत जी को इतना आनंद हुआ, मानो साक्षात् सीताराम जी मिल गए हों । उन्हें लगा, अब मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे राम जी मेरे साथ हैं । 

भरत जी श्रीराम की चरण-पादुकाओं को लेकर अयोध्या लौट आए । राम वन में रहे और भरत राजमहल में सुख भोगें, यह संभव नहीं था । भरत जी अयोध्या के बाहर नंदिग्राम में वास करने लगे । भरत जी तन से तो अयोध्या में थे; किंतु उनका मन राम जी के चरणों में था । उन्होंने एक सिंहासन पर चरण-पादुकाओं की स्थापना की और नित्य उनकी भगवान की मूर्ति की तरह पूजा करने लगे । 

राम जी की प्रतीक्षा में भरत जी इस तरह तपश्चर्या कर रहे थे—वे नित्य चरण-पादुकाओं का फूलों से श्रृंगार करते थे और पादुकाओं में दृष्टि स्थिर कर नित्य ‘सीताराम सीताराम’ का जप करते थे । जब भी उनको राम जी की बहुत याद आती और उनका हृदय श्रीराम के वियोग में चीत्कार करने लगता; तब भी वे ‘राम-नाम’ का जप करते । तब पादुका में से श्रीसीताराम जी बाहर आते और भरत जी को राम जी से संयोग का अनुभव होने लगता । वे भूल जाते कि मेरे राम वन में गए हैं । उन्हें लगता कि मेरे सीताराम जी तो यहीं विराजमान हैं और मुझे प्रेम से देख रहे हैं । 

प्रेम में इतनी शक्ति है कि वह जड़ को भी चेतन बना देता है, निष्काम को सकाम और निराकार को साकार बना देता है । चरण-पादुकाएं जड़ हैं; परंतु भरत जी को उनमें श्रीराम के दर्शन होते हैं । जहां प्रेम से परमात्मा के नाम का जप हो, वहां भगवान को प्रकट होना ही पड़ता है । जहां भक्त है, वहां भगवान हैं; भक्त और भगवान अलग रह ही नहीं सकते हैं । श्रीराम तो सर्वव्यापक हैं; जितने उनके भक्त उतने ही उनके स्वरूप । राम जी का एक स्वरूप वन में था और दूसरा स्वरूप भरत जी के पास था ।

भरत जी अयोध्या का समस्त राजकार्य राम जी की चरण-पादुकाओं को निवेदन करके करते थे । कोई भी काम पादुकाओं की आज्ञा के बिना नहीं करते थे । इस तरह अयोध्या में राम जी की चरण-पादुकाओं का राज्य हो गया । मनुष्य भी यदि जीवन में सुखी रहना चाहता है तो उसे भरत जी की तरह अपने जीवन में एक नियम लेना होगा—वह प्रत्येक काम अपने ठाकुर जी से कह कर ही करे; क्योंकि हम तो ठाकुर के सेवक हैं, जो भी काम करें ठाकुर जी को बता कर उनकी आज्ञा लेकर करें, तो जीवन में कभी दु:खी नहीं होना पड़ेगा ।

संयोग में सेवा किस रीति से करना चाहिए, यह आदर्श लक्ष्मण जी ने संसार को बताया और श्रीराम के वियोग में मानव-जीवन कैसा होना चाहिए, यह आदर्श भरत जी ने जगत को सिखाया ।

भरत जी का चरित्र हमें सर्वत्याग की शिक्षा देता है । राम जी वन में कंद-मूल का सेवन करते थे; इसलिए भरत जी ने भी अन्न लेना बंद कर दिया । भरत जी ने चौदह वर्ष तक अन्न नहीं खाया । वे ‘गोमूत्र-यावक व्रत’ करते थे । वे गाय को जौ खिलाते फिर गोबर के साथ निकलने वाले उन जौ को धोकर साफ करते । गोमूत्र के साथ उनको उबाल कर चौबीस घण्टे में एक बार उसे ही ग्रहण करते थे । भरत जी ने जटा और वल्कल वस्त्र धारण कर लिए । वे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते थे । उन्होंने भूमि में गड्ढा खोद कर उस पर कुश का आसन बिछाया । चौदह वर्ष तक वे महातपस्वी बिना लेटे उस पर बैठे रहे । 

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भरत जी के नियम, व्रत और श्रीराम-प्रेम की स्तुति करते हुए कहा है—

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना ।
जासु नेम ब्रत जाइ न बरना ।।

राम चरन पंकज मन जासू ।
लुबुध मधुप इव तजइ न पासू ।।

अर्थात्—भाइयों में सबसे पहले मैं श्रीभरत जी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता । जिनका मन राम जी के चरणकमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका साथ नहीं छोड़ता है ।।

वन में राम जी के तपस्वी जीवन की तुलना में भरत जी का तपस्वी जीवन अधिक श्रेष्ठ है; क्योंकि वन में रह कर तप करना बहुत कठिन नहीं है । राजमहल में रह कर तप करने वाला सच्चा ब्रह्मनिष्ठ साधु है । सब प्रकार की अनुकूलता हो, विषयभोग के साधन हों फिर मन विषयों में न लगे; यही सच्ची साधुता है, सच्चा वैराग्य है । भिखारी को खाने को न मिले और फिर वह उपवास करे तो उसका कोई विशेष अर्थ नहीं है । सब कुछ होने पर भी मन किसी विषय में न जाए, यही सच्चा वैराग्य है ।

कुबेर के धन को भी लज्जित करने वाले राज्य-वैभव के बीच भरत जी ऐसे रहते हैं, जैसे चम्पा के बगीचे में रह कर भी भौंरा चम्पा के फूलों से दूर रहता है ।

यही कारण था कि संत-शिरोमणि भरत जी के दर्शन व सत्संग से अयोध्या के नर-नारियों में ही नहीं; अपितु जड़-चेतन में भी रामभक्ति प्रतिष्ठित हो गई ।

भरत जी के वैराग्य को देख कर अयोध्या की प्रजा भी कंद-मूल का सेवन करती थी । कुछ लोग केवल एक बार भोजन करते, व्रत-उपवास करते, ब्रह्मचर्य का पालन करते थे । इस तरह चौदह वर्ष तक अयोध्या की प्रजा ने भी तपपूर्ण जीवन व्यतीत कर राम जी की प्रतीक्षा की । 

सदाचार ही परमात्मा से मिलाने वाला पुल है । अत: भगवत्दर्शन की इच्छा रखने वाले मनुष्य को देवीय गुणसंपन्न होना चाहिए । मनुष्य का जीवन यदि भरत जी जैसा पवित्र हो, तो राम जी के मिलने में देर नहीं है, वे अवश्य हृदयाकाश में प्रकट होंगे—

पूर्ण होय सुख स्वप्न मिलन का, रहें दूर श्रीराम नहीं ।
या पद-पद्म-पराग प्रसादी, मन अलि तजे सुधाम नहीं ।।

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