bhagwan shiv parvati

जिस प्रकार एक कुम्हार आंवे में से घड़े को निकाल कर उसे चारों तरफ से ठोक-बजा कर देखता है कि घड़ा पूरी तरह पक कर तैयार है या नहीं; उसी प्रकार परमात्मा किसी भी प्राणी को अपनाने से पहले उसकी परीक्षा कर देखते हैं कि यह जीव ‘मेरे द्वारा अपनाए जाने के लायक’ हुआ है या नहीं ? ऐसी परीक्षा जीव को ही नहीं वरन् भगवान की सहधर्मिणियों को भी देनी पड़ती है । 

पार्वती जी ने निरन्तर समाधि में लीन रहने वाले, परम योगी, वीतराग शिरोमणि भगवान शंकर को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए कैसी कठोर तपस्या की, कैसे-कैसे क्लेश सहन किए, किस प्रकार उनके आराध्य ने उनके प्रेम की परीक्षा ली और किस प्रकार उनकी अदम्य निष्ठा की जीत हुई–इन सबका बड़ा ही मनोरम और हृदयग्राही वर्णन इस ब्लॉग में किया गया है ।

भगवान शंकर द्वारा पार्वती जी के पातिव्रत्य की परीक्षा

दक्ष-यज्ञ की योगाग्नि में भस्म होने के बाद सती पर्वतराज हिमालय और उनकी पत्नी महारानी मेना के यहां पार्वती के रूप में अवतीर्ण हुई । सयानी होने पर माता-पिता के आदेश से अत्यन्त आदर, प्रेम और भक्ति से अपने मन को तर कर पार्वती जी ने भगवान शंकर को पति रूप में पाने के लिए तपस्या आरम्भ कर दी । उन्होंने भोगों को रोग के समान और लोगों को सर्पों के झुंड के समान त्याग दिया और ऐसे तप में मन लगा दिया जो मुनियों के लिए भी अगम्य था । 

उनके लिए रात-दिन बराबर हो गए हैं; न नींद है न भूख और न प्यास ही है । नेत्रों में आंसू भरे रहते हैं, मुख से शिव-नाम उच्चारण होता रहता है, शरीर पुलकित रहता है और हृदय में शिव जी बसे रहते हैं । कभी कन्द-मूल फल का भोजन होता है, कभी जल और वायु पर ही निर्वाह होता है और कभी बेल के सूखे पत्ते खाकर ही वे दिन बिता देती हैं । 

शास्त्रों में वृक्ष से गिरे हुए सूखे पत्तों को खाकर जीवन निर्वाह करते हुए देवाराधन करना तप की पराकाष्ठा मानी गई है; किंतु पार्वती जी ने अब उनको खाना भी छोड़ दिया और वे ‘अपर्णा’ नाम से जानी गईं । माता मेना ने स्नेहवश होकर उ (वत्से, बेटी) मा (ऐसा तप न करो) कहा, इससे उनका नाम ‘उमा’ हो गया। 

देवताओं ने अनुकूल अवसर देखकर कामदेव को बुलाया । कामदेव जगत को जीत लेने के अभिमान में अपना साजो-सामान सजा कर आया । कामदेव ने रसाल वृक्ष के पल्लवों में छिपकर शिव जी के वक्ष:स्थल में बाण का संधान कर दिया । हृदय में विषम बाण चुभने से शिव जी समाधि से जाग गए । उन्होंने समाधि तोड़ने वाले की ओर क्रोधभरी दृष्टि से देखा और देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया । 

शंकर जी की समाधि टूटने की बात सुनकर ब्रह्मा जी सहित सभी देवता उनके पास गए और शीघ्र ही विवाह करने के लिए प्रार्थना करने लगे । इधर सप्तर्षियों ने पार्वती जी के पास जाकर कहा कि तुम्हारी तपस्या व्यर्थ चली गई क्योंकि शिवजी ने तो काम को ही जला डाला । अब निष्काम पति से विवाह करके क्या करोगी ? 

पार्वती जी ने अत्यन्त सटीक उत्तर देते हुए कहा–‘मेरा तो शिव जी पर स्वाभाविक प्रेम है । मेरा हठ है कि मैं आजन्म कुंवारी ही रहूँगी या एकमात्र शिव जी का ही वरण करुंगी; चाहे इसमें अनंत जन्म क्यों न लग जाएं ?’

वृद्ध ब्रह्मचारी के वेष में शिव जी द्वारा पार्वती जी के प्रेम की परीक्षा

शिव जी वृद्ध ब्रह्मचारी का वेष बनाकर पार्वती जी के प्रेम, कठोर नियम, प्रतिज्ञा और दृढ़ संकल्प की परीक्षा करने के लिए तपोभूमि में आए; जहां पार्वती जी अपनी सखियों की देख-रेख में तप में लीन थीं । उस समय पार्वती जी की दशा देखकर शिव जी दु:खी हो गए और मन-ही-मन कहने लगे मेरा स्वभाव बड़ा ही कठोर है । यही कारण है कि मेरी प्रसन्नता के लिए साधकों को इतना तप करना पड़ता है । 

एक अत्यंत तेजोमय ब्रह्मचारी को देख कर सखियों ने उससे वहां आने का कारण पूछा ।  ब्रह्मचारी ने कहा—‘वह पार्वती जी से भेंट कर उनसे धर्म-वार्ता करना चाहता है ।’

सखियों ने कहा—‘पार्वती की साधना में विघ्न डालना घोर पाप होगा । जब वह थोड़ी देर के लिए साधना से अलग होंगी, तब हम आपकी भेंट उनसे करा देंगी । तब तक आप प्रतीक्षा करें ।’

ब्रह्मचारी ने कहा—‘ठीक है, तब तक मैं तपोवन घूम कर आता हूँ ।’

ब्रह्मचारी जहां पार्वती जी ध्यानमग्न थीं, उस स्थान के सामने एक सरोवर में जानबूझ कर ब्रह्मचारी बालक का रूप धारण कर गिर पड़े और जोर-जोर से चिल्लाने लगे—‘दौड़ो-दौड़ो, मुझे बचाओ ।’

इस कातर ध्वनि को सुन कर पार्वती जी का ध्यान टूट गया और वे सखियों के साथ उस सरोवर पर आ गईं । उन्होंने अपना बायां हाथ ब्रह्मचारी को सरोवर से बाहर निकालने के लिए बढ़ाया; परंतु ब्रह्मचारी ने कहा—‘बायां हाथ तो अपवित्र माना जाता है । दोषयुक्त भावना से की गई सहायता मुझे स्वीकार नहीं है । पार्वती जी ब्रह्मचारी को बचाना चाहती थीं; परंतु उसके मना करने पर वे धर्मसंकट में पड़ गईं । 

उन्होंने ब्रह्मचारी से निवेदन किया—‘विप्रवर ! मेरा दाहिना हाथ मेरा अपना नहीं है, यह तो मैं देवाधिदेव महादेव को अर्पित करने का संकल्प कर चुकी हूँ । उन्हीं की प्राप्ति के लिए मैं यह तप कर रही हूँ । अत: जो बात सच थी, वह मैंने आपसे कह दी ।’

ब्रह्मचारी ने कहा—‘देवि ! यदि आपका शिव जी के प्रति इतना प्रेम है, तो मुझे मेरे प्रारब्ध पर छोड़ दीजिए और यदि आप एक ब्राह्मण के प्राण बचाने को महत्व देती हैं तो कृपया दाहिने हाथ से मुझे खींच कर इस सरोवर से बाहर निकाल कर मेरी रक्षा कीजिए ।’

पार्वती जी कुछ देर सोचती रहीं, फिर ब्राह्मण के प्राणों की रक्षा को मनुष्य का सर्वोपरि कर्तव्य मान कर उन्होंने अपना दाहिना हाथ ब्रह्मचारी के हाथों में दे दिया और उसे सरोवर से बाहर निकाल लिया ।

ब्रह्मचारी की प्राण रक्षा तो हो गई; परंतु पर-पुरुष को अपना दाहिना हाथ देकर पार्वती जी आत्म-ग्लानि से भर गईं । पर-पुरुष के स्पर्श से अपने शरीर को दूषित मान कर उसके प्रायश्चित के लिए वे योगाग्नि में भस्म होने की तैयारी करने लगीं । ब्रह्मचारी ने उनसे प्राण त्यागने का कारण पूछा, तब पार्वती जी ने उसे शिव जी के प्रति अपनी निष्ठा बताई । 

इस पर ब्रह्मचारी ने शिव जी की कटु आलोचना करना शुरु कर दिया—

‘जो शंकर शशिकला (चंद्रमा) की चिन्ता में रहते हैं, वे क्या तुम्हारा ध्यान रखेंगे ? जिस समय वे भूत-पिशाच और प्रेतों की बरात सजाकर आयेंगे तब तुम्हें पछताना पड़ेगा । ग्रन्थिबंधन के समय अत्यन्त सुन्दर रेशमी वस्त्र को गजचर्म के साथ जोड़ते हुए सखियां मुंह फेरकर हंसेंगी और कहेंगी कि अमृत के साथ विष घोलकर मिलाया जा रहा है । जरा सोचो तो सही, कहां तुम्हारा फूलों-सा सुकुमार शरीर व त्रिभुवन को लुभाने वाला सौंदर्य और कहां जटाधारी, चिताभस्मलेपनकारी, श्मशानविहारी, त्रिनेत्र, भूतपति, महादेव ! कहां तुम्हारे घर के देवता लोग और कहां शिव के पार्षद भूत-प्रेत ! कहां तुम्हारे पिता के घर बजने वाले सुन्दर बाजों की ध्वनि और कहां उन महादेव के डमरु, सिंगी और गाल बजाने की ध्वनि ! न महादेव के मां-बाप का पता है, न जाति का । न उनमें विद्या है और न शौचाचार ही । सदा अकेले रहने वाले, विरागी, रुण्डमालाधारी शिव के साथ रहकर तुम क्या सुख पाओगी ?’

पार्वती और अधिक शिव-निन्दा न सह सकीं और तमककर बोलीं–

’मालूम होता है तुम शिव के विषय में कुछ भी नहीं जानते, इसी से मिथ्या-प्रलाप कर रहे हो । शिव वस्तुत: निर्गुण हैं, करुणावश ही वे सगुण होते हैं । उन सगुण और निर्गुण–उभयात्मक शिव की जाति कहां से होगी ? जो सबके आदि हैं, उनके माता-पिता कौन होंगे ? सृष्टि उनसे उत्पन्न होती है, अत: उनकी शक्ति का पता कौन लगा सकता है ? वही अनादि, अनन्त, नित्य, निर्विकार, अविनाशी, सर्वशक्तिमान, सनातनदेव हैं । तुम कहते हो कि शिव विद्याहीन हैं । अरे, ये सारी विद्याएं आईं कहां से हैं ? तुम मुझे शिव को छोड़कर किसी अन्य देवता का वरण करने को कहते हो । अरे, इन देवताओं को जिन्हें तुम बड़ा समझते हो, देवत्व प्राप्त ही कहां से हुआ है ? यह उन भोलेनाथ की कृपा का ही तो फल है । इन्द्रादि देवगण तो उनके दरवाजे पर ही स्तुति-प्रार्थना करते रहते हैं और बिना उनके गणों की आज्ञा के अंदर घुसने का साहस नहीं कर सकते । तुम उन्हें अमंगलवेश कहते हो ? जिस चिता-भस्म की तुम निंदा करते हो, नृत्य के अंत में जब वह उनके श्रीअंगों से झड़ती है, उस समय देवतागण उसे अपने मस्तक पर धारण करने के लिए लालायित होते हैं । तुम उनके दुर्गम-तत्त्व को बिल्कुल नहीं जानते । बस, अब मैं यहां से जाती हूँ, कहीं ऐसा न हो कि यह दुष्ट फिर से शिव की निन्दा आरम्भ कर मेरे कानों को अपवित्र करे ।’

पार्वती जी के इन वचनों को सुनकर उनका सत्य, दृढ़ और पवित्र प्रेम जानकर बटुक-वेशधारी शिव ज्यादा देर पार्वती जी से छिपे न रह सके । पार्वती जी के रूप और अनुराग को देखकर शिव जी उनके वश में हो गए

और पार्वती जी जिस रूप का ध्यान करती थीं, उसी रूप में भगवान शिव उनके सामने प्रकट हो गए और बोले—‘मैं तो केवल तुम्हारी परीक्षा कर रहा था । तुम्हारी तपस्या सफल हुई । हमको आज तक किसी ने कृतज्ञ नहीं बनाया; परन्तु हे पार्वती ! तुमने तो अपने तप और प्रेम से मुझे मोल ले लिया । तुम संसार-समुद्र में स्त्रियों के बीच रत्न-सदृश्य उत्पन्न हुई हो । अब तुम जो कहो, मैं इसी क्षण वही करुंगा ।’  

पार्वती जी ने शिवजी के पैरों में गिरकर कहा—‘यह शरीर तो जन्मदाता और पालक माता-पिता का है । आप उनसे इसे दानस्वरूप मांग कर उनका सम्मान और आर्य-संस्कृति की रक्षा करें ।’

जिस प्रकार जन्म का दरिद्री पारसमणि को पा जाए और उसको साक्षात् देखते हुए भी उसमें विश्वास न हो, उसी प्रकार, पार्वती जी शिव जी को हृदय में धारण कर घर चली गईं ।

अनादिकाल से गिरिराजकिशोरी पार्वती एवं भगवान शिव हिन्दू कन्याओं के परमाराध्य रहे हैं । जब से ये कन्याएं होश संभालती हैं, तभी से मनोऽभिलाषित वर की प्राप्ति के लिए गौरीपूजन किया करती हैं ।

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