women praying to surya dev

प्रकृति पूजा का महापर्व ‘सूर्य षष्ठी’ या ‘छठ पर्व’ ‘बिहार और पूर्वांचल की आत्मा’ है । छठ महोत्सव एक पूजा पर्व न होकर तपस्या पर्व है । तीन दिनों तक चलने वाले इस पर्व में व्रती भगवान सूर्य के समक्ष उनकी प्रसन्नता हेतु कठिन व्रत रख कर अत्यन्त कठिन नियमों का पालन करते हुए तपश्चर्या करते हैं । 

यह एक ऐसा पर्व है जिसमें न किसी मन्दिर की जरुरत होती है न किसी पंडित की, न कोई प्रतिमा है न मन्त्र और न ही कोई पूजा की किताब । बस हमारी श्रद्धा और विश्वास हमारा आराध्य है । इस पर्व में प्रकृति यानी सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है । पूजा में कोई आडम्बर नहीं है । सिर्फ सूती धोती पहन कर भी कमर तक पानी में खड़े हो कर अर्घ्य समर्पित कर सकते हैं । यह व्रत पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया जाता है ।

छठ माता

ऐसा माना जाता है कि कार्तिक शुक्ल षष्ठी के सूर्यास्त और सप्तमी के सूर्योदय के समय वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था । यह पर्व भगवान सूर्य और छठ माता को समर्पित है । प्रकृति के षष्ठ अंश से उत्पन्न छठ मैया  (षष्ठी माता)  लोगों का हित करने वाली देवी हैं । छठी मइया सूर्य की शक्ति हैं । वे सूर्य पत्नी संज्ञा हैं । प्रकृति के षष्ठ अंश से उत्पन्न छठ मैया  (षष्ठी माता) बालकों की रक्षा करती हैं । माताएं अपने बच्चों व पूरे परिवार की सुख समृद्धि व लम्बी आयु के लिए इस व्रत को करती हैं । 

छठ पूजा की शुरुआत सफाई अभियान से होती है । छठ माता के स्वागत में घर का कोना-कोना बुहारा जाता है, उसे आस्था और विश्वास से सजाया संवारा है । स्त्रियां गाती हैं—‘आई है छठ माई खुशियों का उजियारा है’ ।

प्रकृति से जुड़ा और पर्यावरण का मित्र है छठ पर्व

छठ पर्व प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का पर्व है । नदियों से छठ पर्व का अटूट सम्बन्ध है । सूर्य और जल की महत्ता को मानते हुए नदी किनारे सर्वप्रथम अस्ताचलगामी सूर्य और दूसरे दिन नदियों में कमर तक पानी में खड़े होकर उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है । छठ पर्व बरसात के बाद नदी तालाब के तटों पर बहकर आए कूड़े को साफ करने और फिर पूजा करने का अवसर है ।

पूजन सामग्री भी पर्यावरण के अनुकूल होती है । छठ पूजा के दौरान जो भी प्रसाद होता है, उससे सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और फिर सब कुछ लेकर व्रत करने वाले वापस घर आ जाते हैं । अगर कोई सामान नदी-तालाब के तट पर छूटता है तो वह है फूल-पत्ती जो कि पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाती है ।

प्लास्टिक का प्रयोग छठ पूजा में नहीं किया जाता है । इस तरह प्रकृति पूजा का यह पर्व पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल है ।

छठ पूजा की प्रत्येक वस्तु पर्यावरण की मित्र है । अमीरी गरीबी के भेद से परे इस पर्व का प्रकृति से जुड़ा रूप यह है कि सूप और दौरे यानी बड़ी टोकरियों का प्रयोग और बांस, आम के पत्तों और ईख से घाटों की सजावट ।

छठ पूजा में बहुत सारी सामग्रियों की आवश्यकता होती है—जैसे सूप, बांस की बड़ी टोकरियां दौरी, टोकरी, मउनी, मिट्टी से बना दीप, आम की लकड़ी, मिट्टी का चूल्हा, गन्ना, गागर, सूखा नारियल आदि । छठ पूजा किसी जाति या धर्म का उत्सव न होकर लोकोत्सव है; जिसमें समाज के सभी समुदाय भाग लेते हैं । समाज के एक समुदाय से सूप आते हैं तो दूसरे से मिट्टी के बर्तन । कोई समुदाय सब्जी की आपूर्ति करता है तो कोई रुई की । आम की दातुन कोई बेचता है तो सिंदूर और सेंधा नमक कोई और । इस तरह बगैर सामाजिक सहभागिता के छठ पूजा की कल्पना नहीं की जा सकती है ।

अमीरी और गरीबी के भेद से परे यह पर्व सरलता और सादगी का पर्व है । सादगी इतनी कि चूल्हे पर भोजन बनता है । व्रती अपना भोजन और प्रसाद चूल्हे पर बनाते हैं । इसके लिए घरों में चूल्हे बनाये जाते हैं । व्रती गेहूं धोकर, सुखा कर स्वयं चक्की पर पीसेते हैं । 

छठ पर्व के प्रसाद में ठेकुआ का होना अनिवार्य है । ठेकुए में चक्की में हाथ से पिसे हुए आटे को गुड़ और घर से बने घी के साथ दूध के छींटे दे-देकर गूंथा जाता है और तरह तरह के बेल-बूटेदार सांचों में बिस्कुट जैसी आकृतियां काट-काटकर चूल्हे की मीठी आंच में तल लिया जाता है । 

घर में बने पकवानों का ही भोग लगाया जाता है । खान-पान में विविधता होती है; किन्तु सादगी इतनी कि एक ओर लौकी की सब्जी और चावल तो दूसरी ओर खीर, ठेकुआ, चावल के लड्डू, चीनी की मिठाईयां; साथ ही घर में उपलब्ध अनाजों से आप जितने तरह के पकवान बना सकते हैं उनकी सीमा नहीं है ।

छठ पूजा के डाला में पीली और लाल रंग की साड़ी व श्रृंगार का सामान, सूरन, सुकनी, नारियल, घुइया, कद्दू, अदरक, कच्ची हल्दी, कैथा, कच्चा पपीता, अन्नास, गाजर, मूली, साठी का चावल, कच्चा केला, शकरकंद, लौकी, सिंघाड़े, बंडालू, आलू, सेव, आंवला, नाशपाती आदि सभी फल और सब्जियां, अलोना प्रसाद, गन्ना आदि रखकर उसे पीले कपड़े से ढक दिया जाता हैं । 

चतुर्थी तिथि को ‘नहाय खाय’ से छठ पूजा की शुरुआत होती है । जो लोग इस पर्व को उठाते हैं, वह ‘नहाय खाय’ के बाद गृहस्थ जीवन से विरत रहकर छठ मइया की पूजा आराधना में दिन-रात गुजारते हैं । सुबह घर की सफाई होती है । व्रती महिलाएं नहाकर शुद्ध शाकाहारी भोजन बनाती हैं । शाम को लौकी की सब्जी, चने की दाल और चावल से व्रत खोला जाता है । इस दिन चावल और गेंहूं को साफ करके घरों में चक्की से पीसा जाता है । 

दूसरे दिन पंचमी तिथि को खरना या ‘लोहण्डा’ होता है । मान्यता है कि पंचमी के सायंकाल से ही घर में देवी षष्ठी (छठ मैया) का आगमन हो जाता है । इसमें पूरे दिन व्रत रखकर शाम को गुड़ व चावल की खीर और पूड़ी से व्रत खोला जाता है । व्रती के भोजन करते समय ध्यान रखा जाता है कि किसी भी तरह की आवाज न हो ।

व्रत खोलने के बाद ३६ घंटे का निर्जला व्रत शुरु हो जाता है ।

तीसरे दिन षष्ठी तिथि को शाम को घाटों पर डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है । चौथे दिन सप्तमी तिथि को ब्राह्ममुहुर्त में सभी व्रती जल में खड़े होकर हाथ जोड़ते हुए भगवान भास्कर के आगमन की प्रतीक्षा करते हैं । 

दीप जलाकर सूप में रख दिया जाता है ।

जैसे ही क्षितिज पर लालिमा दिखाई देती है, वैसे ही मंत्रों के साथ सूप को दोनों हाथों से पकड़कर सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है ।

अर्घ्य के बाद नदी तट पर ही ठेकुआ आदि का वितरण होता है । औरतें आंचल फैलाकर उन्हें ग्रहण करती हैं और वह प्रसाद और बच्चों के स्वास्थ्य लाभ की कामना छठी मइया से करती हुई लोकगीत गाती हुई घर लौटकर चली जाती हैं ।

काहे लागी पूजेलू तुहूं देवलघरवा (सूर्यमंदिर) हे ।
काहे लागी, कर ह छठी के बरतिया हे ।
अन-धन सोनवा लागी पूजी देवलघरवा हे ।
पुत्र लागी, करीं हम छठी के बरतिया हे ।।

इस लोकगीत में अन्न-धन, सोना आदि वैभव के साथ मुख्य रूप से पुत्र और उसकी कुशलता की मंगल-कामना छठी मैया से की गई है । अत: यह व्रत वात्सल्य-भाव से अधिक प्रेरित है ।

उगते सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत का पारायण विसर्जन व ब्राह्मण-दक्षिणा के साथ किया जाता है 

मातृ प्रधान पर्व है छठ । महिलाएं पूजा के सभी अनुष्ठान में स्वामिनी हैं, साधिका हैं । पुरुष सेवक भाव से खड़ा दिखता है । महिलाएं अर्घ्य दान का गीत गाती हुई घाटों की ओर जाती हैं तो पुरुष अपने सिर पर पूजन की टोकरी लिए हुए चलते दिखायी देते हैं । इसके सारे गीत महिला प्रधान हैं ।

चढ़ते (उदय होते) व उतरते (अस्त होते)  हुए सूर्य को प्रणाम करने का अर्थ है कि हमें समभाव से किसी के उत्कर्ष और अपकर्ष में साथ बने रहना चाहिए । अस्त होते सूर्य को प्रणाम का अर्थ है—बुजुर्गों को सम्मान देने का भाव ।

सूर्य देव हमे उष्मा, उर्जा व जीवन में उल्लास प्रदान करते हैं; इसलिए सूर्य को दिए जाने वाले अर्घ्य से हम अपने अंदर की जीवन-अग्नि को जीवित रखते हैं । सूर्य आरोग्य के देवता हैं । हमारी आत्मा में जो प्रकाश है, वह भी सूर्य का ही प्रतिबिम्ब हैं । वे ही हमारे भीतर के अंधकार को दूर करते हैं  । सूर्य हर धर्म, जाति, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र व देश के हैं । सूर्य के कारण ही यह सृष्टि फल-फूल रही है । जिन पंचमहाभूतों—धरती आकाश, वायु, अग्नि और जल से ब्रह्माण्ड रचा गया है, उन सबका संचालन सूर्य करते हैं । इस कारण वेद में सूर्य को हिरण्यगर्भ (पहला रुद्र) कहा गया है । 

पर्यावरण संरक्षण व प्रकृति से प्रेम का संदेश तो यह महापर्व देता ही है, साथ ही सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति और ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक साथ प्राप्त होता है ।

सप्ताश्वरथमारूढं प्रचण्डं कश्यपात्मजम् ।
श्वेतपद्मधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।।

अर्थात्—सात घोड़ों वाले रथ पर आरुढ़, हाथ में श्वेत कमल धारण किए हुए्, प्रचण्ड तेजस्वी कश्यपकुमार सूर्य को मैं प्रणाम करता हूँ ।

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