gandhi ji and his three monkeys

एक बार महात्मा गांधी जिन्हें ‘बापू’ भी कहते हैं, भोजन कर रहे थे, तभी किसी ने पूछा—‘बापू ! आप बंदरों वाला यह खिलौना अपनी मेज पर क्यों रखते हैं ?’

बापू ने कहा—‘ये तीनों बंदर मेरे गुरु हैं, उपदेशक हैं । जहां भी मैं जाता हूँ, इन्हें अपने साथ ले जाता हूँ । ये पल-पल मुझे सावधान करते रहते हैं ।’

प्रश्नकर्ता हैरान था । बंदर और गुरु ! बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी क्योंकि उसे पता ही नहीं था कि भगवान दत्तात्रेय ने तीन ही नहीं चौबीस गुरु बना रखे थे ।

उस व्यक्ति को हैरान देखकर बापू बंदरों के बारे में बताने लगे—‘कई साल पहले एक चीनी यात्री अपने देश की कलात्मक संस्कृति का यह नमूना मेरे सचिव महादेव देसाई को दे गया था; उनके पास से यह मेरे पास आ गया । ये तीन बंदर हैं—

एक ने अपनी आंखें बंद कर रखी हैं, 
दूसरे ने अपना मुंह और 
तीसरे ने अपने कान बंद कर रखे हैं । 

ये तीनों बंदर हमें बड़े महत्व की बात सिखाते हैं—

एक सिखाता है—बुराई न देखो ।
दूसरा सिखाता है—बुरा मत कहो ।
तीसरा सिखाता है—बुरा मत सुनो ।

इसी बात को कहता हुआ सूफी फकीर जलालुद्दीन रूमी का एक शेर बापू को इतना पसन्द आया कि उन्होंने १९३९ में ‘हरिजन सेवक’ (पत्रिका) में उसकी चर्चा करते हुए लिखा—

‘तू अपने होंठ बंद रख, आंख बंद रख, कान बंद रख, फिर भी तुझे सत्य का गूढ़ तत्त्व न मिले तो मेरी हंसी उड़ाना ।’

अर्थात् हम सत्य ही बोलें । वही सुनें जो हमें आगे ले जाए और आंखों से ईश्वर की सुन्दर रचना और उसकी करुणा, दया ममता को देखें, संतों का दर्शन करें तो अवश्य सत्य के दर्शन पा सकेंगे ।

हम भले ही होंठ, कान और आंख को पूरी तरह बंद न करें किन्तु इतना को अवश्य कर सकते हैं कि—

यदि हम शुभ नहीं देख सकते तो अशुभ तो न देखें ।
शुभ नहीं सुन सकते तो अशुभ तो न सुनें ।
मीठा नहीं बोल सकते तो कडुवा तो न बोलें ।

भगवान की तीन नियामतें हैं—आंख, कान और वाणी । इन नियामतों का हम चाहे सदुपयोग करें, चाहे दुरुपयोग, यह हमारे हाथ की बात है और यही उपदेश है बापू के इन तीन बंदरों का । 

न सुनो गर बुरा कहे कोई ।
न कहो गर बुरा करे कोई ।
रोक लो गर गलत चले कोई ।
बख़्श दो गर खता करे कोई ।।

एक प्रसिद्ध वेद मंत्र है जिसका सार भी बापू के तीन बंदरों के उपदेश जैसा है—

ॐ भद्रं कर्णेभि: श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: ।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवा्ँसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायु: ।।

अर्थात्—हे देवगण ! हम अपने कानों से शुभ कल्याणकारी वचन सुनें । निन्दा, चुगली, गाली या दूसरी पाप की बात हमारे कानों में न पड़े । हम सदा भगवान की आराधना में ही लगे रहें । नेत्रों से भी हम सदा कल्याण का ही दर्शन करें । किसी अमंगलकारी अथवा पतन की ओर ले जाने वाले दृश्यों की ओर हमारी दृष्टि का आकर्षण भी न हो । हमारे शरीर सुदृढ़ और पुष्ट हों जिससे हम भगवान का स्तवन करते रहें । हमारी आयु भोगविलास या प्रमाद में न बीते । हमें ऐसी आयु मिले जो भगवान के काम में आ सके।’

स्वामी विवेकानन्द अपने गुरु रामकृष्ण परमहंसजी की अपार पवित्रता का रहस्य बताते हुए कहते हैं—

‘अपने गुरुदेव को देखकर मैंने जाना कि इस मानव शरीर में ही मनुष्य पूर्ण हो सकता है । उन होंठों से कभी भी किसी के लिए भी गाली न निकली और न उन्होंने कभी किसी की आलोचना ही की । वे आंखें बुराई देखने की सम्भावना से परे थीं । उस मस्तिष्क ने बुरा सोचने की शक्ति ही खो दी थी । वे गुण और अच्छाई को छोड़कर कुछ देखते ही न थे ।

धन्य हो जाएगा हमारा जीवन यदि हम इन सीख पर अमल करने के लिए कमर कस लें ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here