भारतीय परम्परा में गुरु सेवा से ही भक्ति की सिद्धि होती है । माता-पिता जन्म देने के कारण पूजनीय हैं किन्तु गुरु धर्म और अधर्म का ज्ञान कराने से अधिक पूजनीय है । गुरु के मार्गदर्शन से जीवन जीने की कला के साथ परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग भी दिखाई पड़ जाता है । मनुष्य चाहे जितनी साधना करे, वैराग्य भी धारण कर ले किन्तु जबतक किसी संत या गुरु की कृपा नहीं होती, तब तक मन और दृष्टिकोण शुद्ध नहीं हो पाता और भगवान की प्राप्ति भी नहीं हो पाती है । इसलिए समस्त भवरोगों की औषधि गुरु है ।

गुरु के बिना नामदेवजी को नहीं हुआ सच्चा ज्ञान

महाराष्ट्र के संतों में श्रीज्ञानेश्वरजी, नामदेव, मुक्ताबाई, गोरा कुम्हार, नरहरि सुनार, सांवता माली और विसोबा खेचर बहुत ऊंचे दर्जे के संत हुए हैं । नामदेवजी बचपन से ही श्रीविट्ठल (पण्ढरपुर के भगवान विट्ठल, इन्हें पाण्डुरंग व पण्ढरीनाथ भी कहते हैं, ये श्रीकृष्ण का ही स्वरूप हैं) के विग्रह की पूजा, श्रीविट्ठल के गुणगान और ‘विट्ठल’ नाम का जप किया करते थे ।

एक बार श्रीज्ञानेश्वरजी नामदेवजी को अपने साथ तीर्थयात्रा पर ले जाना चाहते थे ।

नामदेवजी ने कहा—‘आप पाण्डुरंग से आज्ञा दिला दें तो मैं चलूंगा ।’

श्रीज्ञानेश्वरजी ने जब भगवान विट्ठल से नामदेवजी को ले जाने की आज्ञा मांगी तो भगवान विट्ठल ने श्रीज्ञानेश्वरजी से कहा—‘नामदेव मेरा बड़ा लाड़ला है । मैं उसे अपने से क्षण भर के लिए भी दूर नहीं करना चाहता । तुम इसे ले जा सकते हो पर इसकी संभाल रखना ।’

ऐसा कहकर स्वयं भगवान पाण्डुरंग ने नामदेवजी का हाथ श्रीज्ञानेश्वरजी को पकड़ा दिया ।

संतों की परीक्षा

तीर्थयात्रा से लौटते समय श्रीज्ञानेश्वरजी, मुक्ताबाई व नामदेवजी आदि संत गोरा कुम्हार के घर ठहर गये । सभी भक्त मण्डली बैठी हुई थी । पास ही कुम्हार की एक थापी (डंडा) पड़ी हुई थी । मुक्ताबाई की दृष्टि उस थापी पर पड़ी ।

संतों की परीक्षा करने के लिए मुक्ताबाई ने संत गोराजी से पूछा—‘चाचाजी (गोरा कुम्हार को सब चाचाजी कहते थे) ! यह क्या चीज है ?’

गोराजी ने उत्तर दिया—‘यह थापी है, इससे मिट्टी के घड़े ठोक कर यह देखा जाता है कि कौन-सा घड़ा कच्चा है और कौन सा पक्का ।’

मुक्ताबाई ने कहा—‘हम मनुष्य भी तो घड़े ही हैं, क्या इससे हम लोगों की भी कच्चाई-पक्काई मालूम हो सकती है ?’

गोराजी ने कहा—‘हां, हां, क्यों नहीं ।’

यह कह कर उन्होंने थापी उठाई और एक-एक संत के सिर पर थप कर देखने लगे ।

नामदेवजी निकले कच्चे संत

गोराजी थपते-थपते जब नामदेवजी के पास आये और उनके सिर पर थापी थपी तो उन्हें बहुत बुरा लगा । दूसरे भक्त तो यह कौतुक देखते रहे, पर नामदेवजी बिगड़ने लगे । ऊपर से नामदेवजी ने कुछ कहा नहीं पर उनका मुंह फूल गया ।

नामदेवजी को अभिमान था कि वे भगवान विट्ठल के प्यारे हैं और भगवान उनसे बातें भी करते हैं । उन्हें थापी से इस तरह संतों की परीक्षा करना अपना और भक्तों का अपमान लगा । उन्होंने अभिमानवश सोचा कि कहीं मिट्टी के बर्तन की भांति मेरी परीक्षा हो सकती है क्या ?  

गोराजी ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा—‘भक्तों में सभी के भांडे (मस्तक) पक्के हैं पर नामदेव का घड़ा अभी कच्चा है ।’

यह सुनकर नामदेवजी बोले—‘तुम्हारा सिर ही कच्चा है । तुम्हें शिक्षा की आवश्यकता है ।’

गोराजी ने कहा—‘नामदेव ! तुम भक्त हो, पर अभी तुम्हारा अहंकार नहीं गया है । जब तक गुरु की शरण में नहीं जाओगे, तब तक ऐसे ही कच्चे रहोगे ।’

नामदेवजी का बड़ा दु:ख हुआ । वे जब पण्ढरपुर लौटकर आये, तब उन्होंने भगवान विट्ठल से अपना दु:ख निवेदन किया ।

नामदेवजी को भगवान ने स्वप्न में आदेश किया—‘नामदेव ! यदि मुक्ताबाई और गोराजी कहते हैं कि तेरा सिर कच्चा है, तो अवश्य तू कच्चा ही होगा । तुझे अभी तक सर्वव्यापक ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव ही नहीं हुआ है । गोराजी का यह कहना तो सच है कि गुरु की शरण में जब तक नहीं जाओगे, तब तक कच्चे ही रहोगे । हम तो सदा तुम्हारे साथ हैं; पर तुम्हें किसी मनुष्य देहधारी महापुरुष को गुरु मानकर उसके सामने नत-मस्तक होना होगा, उसके चरणों में अपना अहंकार लीन करना होगा । तू मंगलवेढ़ा में रहने वाले मेरे भक्त विसोबा खेचर के पास जा, वह तुझे ज्ञान देगा ।’

श्रीज्ञानेश्वरजी की संत मण्डली में विसोबा खेचर पीछे सम्मिलित हुए किन्तु योग का अभ्यास करने से वे सिद्ध महात्मा माने जाने लगे थे ।

विसोबा ने कराया नामदेवजी को सर्वत्र भगवत्दर्शन का ज्ञान

भगवान की आज्ञा मान कर नामदेवजी विसोबा के पास आये । विसोबा पहले से ही जान गये थे कि नामदेव आ रहे हैं, अत: वे उन्हें शिक्षा देने के लिए एक मन्दिर में शिवलिंग पर पांव पसार कर सोये हुए थे ।

नामदेव को इससे बड़ा आश्चर्य हुआ । वे सोचने लगे कि जो व्यक्ति भगवान का अपमान कर रहा है, वह मुझे कौन-सी शिक्षा दे सकेगा ? नामदेवजी ने विसोबा से कहा कि वे शिवलिंग पर से पांव हटा लें ।

विसोबा ने कहा—‘नमिया ! मैं बूढ़ा हो गया हूँ । मुझसे पैर उठते नहीं । तू मेरे पांव उठाकर किसी ऐसे स्थान पर या ऐसी दिशा में रख दे, जहां शंकर का अस्तित्व ही न हो ।’

नामदेवजी विसोबा के पांव इधर-उधर करने लगे किन्तु वे जहां भी विसोबा का पांव रखते थे वहीं पर शिवलिंग प्रकट हो जाता था और इस प्रकार सारा मन्दिर शिवलिंग से भर गया । नामदेवजी यह देखकर आश्चर्य में पड़ गये और गुरु के चरणों में गिर पड़े ।

(सप्तकोटेश्वर मन्दिर में ये वही शिवलिंग है जिनके दर्शन संत विसोवा ने नामदेवजी को सब जगह भगवान की उपस्थिति दिखाने को कराये थे)

विसोबा ने उनसे कहा—‘तू वास्तव में अभी कच्चा ही है । सभी स्थानों में तू अब भी ईश्वर का दर्शन नहीं कर रहा है । संसार में भगवान सूक्ष्म रूप से हर जगह व्याप्त है । तू सभी जड़-चेतन में ईश्वर को निहार ।’

संत विसोबा खेचर ने जैसे ही अपना हाथ नामदेवजी के सिर पर रखा उन्हें सभी जगह भगवान पाण्डुरंग के दर्शन होने लगे ।

भक्ति और ज्ञान के संगम से नामदेवजी बन गये सच्चे संत

इस प्रकार जब भक्ति और ज्ञान का साथ मिल गया तो नामदेव सभी में और सब जगह भगवान के दर्शन करने लगे । भगवान को केवल चन्दन पुष्प नैवेद्य अर्पण करना ही भक्ति नहीं है बल्कि सभी में भगवद्भाव रखना ही सच्ची भक्ति है । लोग एक-दूसरे से मिलने पर ‘राम-राम’ कहते हैं । इसका अर्थ यही है कि मुझमें और तुझमें सब में राम ही निहित हैं । यदि हम यह मानने लगें कि ईश्वर सर्वव्यापी (सब जगह और सभी में समाये हैं) है तो पाप करने के लिए न तो कोई स्थान ही मिलेगा और न ही कोई समय । घर भी वैकुण्ठ बन जायेगा ।

1 COMMENT

  1. Radhey Radhey..bahaut sunder..Naamdev ji ki katha suni tou thi par wo dusri thi..aap se or sunney ko mil gai..shukrane aapkey jo aap humey itney bhakto ke baarey mey bata kar..hamey dhanye kar rahi h…🙏🙏🌷

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