‘दुर्गा’ शब्द का अर्थ

देवीपुराण के अनुसार दुर्गा शब्द में ‘द’कार दैत्यनाशक, ‘उ’कार विघ्ननाशक, ‘रेफ’ रोगनाशक, ‘ग’कार पापनाशक तथा ‘आ’कार भयशत्रुनाशक है। अत: ’दुर्गा’ शब्द का अर्थ ही है ‘दुर्गा दुर्गतिनाशिनी’–‘जो दुर्गति का नाश करे’ क्योंकि यही पराशक्ति पराम्बा दुर्गा ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शक्ति है।

मां दुर्गा के विभिन्न नाम

ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।।

वे सबसे उत्कृष्ट एवं विजयशालिनी हैं; अत: जयन्ती हैं। जो अपने भक्तों के संसार-बंधन को दूर करती हैं; उन मोक्षदायिनी मंगलदेवी का नाम मंगला है। जो प्रलयकाल में सम्पूर्ण सृष्टि को अपना ग्रास बना लेती हैं; वह काली हैं। जो अपने भक्तों को देने के लिए ही मंगल स्वीकार करती हैं; अत: भद्रकाली हैं। हाथ में कपाल और गले में मुण्डमाला धारण करने के कारण कपालिनी हैं। जो अष्टांगयोग, कर्म और उपासना के दु:साध्य साधन से प्राप्त होती हैं; अत: दुर्गा कहलाती हैं। अत्यन्त करुणामयी होने से भक्तों के सारे अपराध क्षमा करती हैं; अत: क्षमा कहलाती हैं। सबका कल्याण करने वाली जगदम्बा शिवा कहलाती हैं। सम्पूर्ण प्रपंच को धारण करने के कारण उनको धात्री कहते हैं। स्वाहा रूप से यज्ञभाग ग्रहण करके देवताओं का पोषण करने वाली हैं। स्वधा रूप से श्राद्ध और तर्पण को स्वीकार करके पितरों का पोषण करने वाली हैं। (अर्गलास्तोत्रम्)

जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते–इसलिए जिसे अज्ञेया कहते हैं, जिसका अंत नहीं मिलता–इसलिए जिसे अनन्ता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता–इसलिए जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिसका जन्म समझ में नहीं आता–इसलिए जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र हैं–इसलिए जिसे एका कहते हैं, जो अकेले ही विश्वरूप में सजी हुई हैं–इसलिए जिसे नैका कहते हैं, वह इसलिए अज्ञेया, अनन्ता, अलक्ष्या, अजा, एका और नैका कहलाती हैं। (श्रीदेव्यथर्वशीर्षम्)

त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतु:।। (दुर्गासप्तशती ११।५)

तुम अनन्त बलसम्पन्न वैष्णवी शक्ति हो। इस विश्व की कारणभूता परा माया हो। देवि! तुमने इस समस्त जगत को मोहित कर रखा है। तुम्हीं प्रसन्न होने पर इस पृथ्वी पर मोक्ष की प्राप्ति कराती हो।

प्रलयकाल में भगवान समस्त संसार को समेटकर उदरस्थ कर लेते हैं, कालान्तर में जब पुन: सृष्टिरचना होती है तब संकल्पशक्ति द्वारा भगवान एक से बहुत बन जाते हैं। भगवान प्रकृति, योगमाया या अविद्या का आश्रय लेकर पुन: जगत प्रपंच को चलाते हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणेशखण्ड में बतलाया गया है कि सृष्टि के समय एक बड़ी शक्ति पांच नामों से प्रकट हुई। वे हैं–१. राधा, २. पद्मा ३. सावित्री, ४. दुर्गा, और ५. सरस्वती। जो देवी परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री और प्राणों से भी अधिक प्रियतमा हैं, वे ही ‘राधा’ नाम से जानी जाती हैं। जो ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी हैं तथा सभी प्रकार के मंगल करने वाली हैं, वे ही परम आनन्दरूपिणी देवी ‘लक्ष्मी’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। जो विद्या की अधिष्ठात्री हैं, परमेश्वर की दुर्लभ शक्ति हैं और वेदों, शास्त्रों तथा योगों की जननी हैं, वे ‘सावित्री’ कही जाती हैं। जो बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं और सर्वशक्तिस्वरूपिणी हैं, वे ‘दुर्गादेवी’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। जो वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं, शास्त्रीय ज्ञान को प्रदान करने वाली हैं तथा श्रीकृष्ण के कण्ठ से उत्पन्न हुई हैं, वे  ‘सरस्वतीदेवी’ कहलाती हैं। इस प्रकार एक ही देवी या देव बहुत रूपों में जाने जाते हैं।

पराम्बा शक्ति के बारे में ब्रह्माजी कहते हैं–’जैसे मिट्टी के बिना कुम्हार घड़ा नहीं बना सकता और सुनार सोने के बिना गहना गढ़ने में अशक्त होता है, वैसे ही मैं भी शक्ति के बिना सृष्टि की रचना करने में अशक्त हूँ।’

भगवान शिव कहते हैं–’शक्ति के बिना मैं शव हूँ, किन्तु जब मैं शक्तियुक्त हो जाता हूँ, तब सब कामनाओं को देने वाला ‘शिव’ बन जाता हूँ और सब कुछ कर सकता हूँ।’

परम आराध्या मां पग-पग पर हमारी सार-संभाल करती हैं

जिस मां को हम दूर समझकर दु:खी और असहाय बने रोते हैं, वह हमारे अत्यन्त निकट है। देवीसूक्तम् में देवताओं ने कहा है–

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

जो देवी चेतनारूप से सब प्राणियों में बसी हुई है, उस देवी को हम नमस्कार करते हैं, बार-बार उसे नमस्कार करते हैं।

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।

वह देवी सब प्राणियों में बुद्धि बनकर रहती हैं और हमें विचार करने में सहायता करती हैं।

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।

दिन भर की भाग-दौड़ के बाद जब हम थक जाते हैं तो मां नींद बनकर रोज हमारे पास आती हैं। हमें स्वस्थ और क्रियाशील बनाए रखने के लिए बिना-बुलाए हमारे पास निद्रारूप में आती हैं पर हम मोह-माया में फंसे जीव उन्हें पहचान नहीं पाते हैं।

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।

मां क्षुधा (भूख) बनकर इस शरीर की रखवाली में हमारी सहायता करती हैं। अत: हमें सदैव सात्विक और मिताहार ही करना चाहिए।

या देवी सर्वभूतेष छायारूपेण संस्थिता।

मां को अपनी संतान इतनी प्यारी है कि वह एक क्षण भी हमसे अलग रहना नहीं चाहतीं। सदा हमारे साथ हमारी छाया बनी फिरती हैं।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।

हम छोटा या बड़ा कोई भी कार्य सम्पन्न करते हैं, मां शक्ति बनकर हमें उसे पूरा करने में सहायता करती हैं।

इस प्रकार करुणामयी मां जगदम्बा सदैव हमारी कल्याणकामना में ही लगीं हैं। आवश्यकता है कि हम श्रद्धा  और विश्वास की नजर से उन्हें देखें। कण-कण में उन्हीं का आशीर्वाद हमें दिखाई देगा।

जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहां दरिद्रतारूप से, शुद्ध अंत:करण वाले पुरुषों के हृदयों में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप में निवास करती हैं, उन भगवती को हम नमस्कार करते हैं। देवि! सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिए। (दुर्गासप्तशती ४।५)

इस सम्बन्ध में एक सुन्दर प्रसंग है–कल्प के अंत में जब सम्पूर्ण जगत एकार्णव में निमग्न था और क्षीरसागरवासी भगवान विष्णु जब शेषनाग की शय्या बिछाकर अपनी योगनिद्रा में सो रहे थे, उस समय उनके नाभिकमल से उत्पन्न ब्रह्माजी का कच्चा मांस खा जाने के लिए भगवान विष्णु के कानों के मैल से मधु और कैटभ दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए। भगवान विष्णु को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगमाया की ब्रह्माजी ने प्रार्थना की तब योगमाया श्रीविष्णु से उन असुरों का संहार करवा देती हैं। भगवान की योगनिद्रा के समय में उन्हीं देवी ने मधु और कैटभ से ब्रह्माजी की रक्षा की थी।

केवल साधारण मनुष्यों के ही नहीं बल्कि जगत्पिता के सोते रहने पर भी जो अपने बच्चों की रक्षा और कल्याण के लिए दिन-रात सदा जागती रहती हैं। भगवान जागते रहें या सोते रहें, उनकी शक्ति की हैसियत से पराम्बा भगवती पर जगत के पालन का भार रहता है।

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणी।
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव।। (दुर्गासप्तशती ११।३५)

विश्व की पीड़ा दूर करने वाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पड़े हुए हैं, हम पर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियों की पूजनीया परमेश्वरि! सब लोगों को वरदान दो।

‘नवरात्र’

‘नवरात्र’ में दो शब्द हैं–नव+रात्र। ‘नव’ शब्द का अर्थ है नवीन और नौ की संख्या और ‘रात्र’ का अर्थ है, रात्रि-समूह। अत: नवीन वर्ष के आरम्भ में अशुभ के नाश और शुभ की प्राप्ति के लिए नवगौरी और नवदुर्गाओं के नवरात्र महोत्सव को घट-स्थापन, पूजन, पाठ, व्रत और हवन आदि से सम्पन्न किया जाता है।

वर्ष के सामान्यत: ३६० दिनों को ९ की संख्या में भाग दें तो ४० नवरात्र होते हैं। तान्त्रिकों की दृष्टि में ४० संख्या का बड़ा महत्त्व है। ४० दिनों का  एक ‘मण्डल’ कहलाता है। कोई जप आदि करना हो तो ४० दिनों तक बताया जाता है। देवी भागवत में ४ नवरात्र ४० के दशमांश में ही बताए गए हैं। १. चैत्र, २. आषाढ़, ३. आश्विन और ४. माघमास  के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक के नौ दिन नवरात्र कहलाते हैं। इस प्रकार एक संवत्सर में चार नवरात्र होते हैं।

ये हमारे चार पुरुषार्थों–धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक हैं। इनमें दो ही अतिप्रसिद्ध हैं–१. वासन्तिक नवरात्र (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक) और २. शारदीय नवरात्र (आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक)। छह ऋतुएं में से दो ही मुख्य हैं–१. शीत ऋतु या सर्दी (आश्विन या शरदऋतु से) और २. ग्रीष्म ऋतु या गर्मी (चैत्र बसन्त से)। प्रकृतिमाता हमें इन दोनों नवरात्रों में जीवन पोषक अग्निसोम–एक से गेहूँ (अग्नि) तो दूसरे से चावल (सोम) का उपहार देती है। यही कारण है कि ये दो नवरात्र–१. नवगौरी या परब्रह्म श्रीराम का नवरात्र और २. नवदुर्गा या आद्या महालक्ष्मी के नवरात्र के रूप में जाने जाते हैं।

सर्दी और गर्मी प्रधान ऋतुओं के मिलन या संधिकाल को नवरात्र या नवदुर्गा का नाम दिया गया है। इन दोनों ऋतुओं का ऋतुकाल (जब प्रकृति का रज तत्त्व अपने पूरे यौवन पर होता है) नौ-नौ दिन का माना गया है। ये दोनों नौ-नौ दिन के संधिकाल आश्विन और चैत्र के नवरात्र यानी शारदीय नवरात्र और चैत्र या वासन्ती नवरात्र के नाम से जाने जाते हैं।

इन नौ दिनों के दौरान प्रकृति और मानव काया एक विशिष्ट परिवर्तन-प्रक्रिया से गुजरती है। सभी प्राणियों के लिए शरद और वसंत–ये दोनों ऋतुएं ‘यमदंष्ट्र’ नाम से कही गयी हैं। ये दोनों ऋतुएं मनुष्यों के लिए बहुत कष्टप्रद हैं। इसी काल में बीमारियों का प्रकोप ज्यादा देखने को मिलता है। अत: मनुष्य को दुर्गा-पूजन कर  व्रतादि द्वारा संयमित जीवन व्यतीत करना चाहिए।

नवरात्र में अखण्ड दीप जलाकर हम अपनी इस ‘नव’ संख्या पर रात्रि का जो अन्धकार, आवरण छा गया है, उसे हटाकर ‘विजया’ के रूप में आत्म-विजय का उत्सव मनाते हैं।

शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी।
तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वित:।।
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:।।

आद्याशक्ति मां भगवती स्वयं कहती हैं–’शरद्ऋतु में मेरी जो वार्षिक महापूजा अर्थात् नवरात्र-पूजन होता है, उसमें श्रद्धा-भक्ति के साथ मेरे इस ‘देवी-माहात्म्य’ (सप्तशती) का पाठ या श्रवण करना चाहिए। ऐसा करने पर नि:सन्देह मेरे कृपाप्रसाद से मानव सभी प्रकार की बाधाओं से मुक्त होता है और धन-धान्य, पशु-पुत्रादि सम्पत्ति से सम्पन्न हो जाता है।’

इस श्लोक में आदिशक्ति जगदम्बा स्वयं अपने श्रीमुख से साधक को भुक्ति (सर्व प्रकार के भोग प्रदान करने का वचन दे रही हैं।

‘देवी-माहात्म्य’ (सप्तशती) मां जगदम्बा की उपासना का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है जिसमें सुमेधा ऋषि ने राजा सुरथ और समाधि वैश्य को ७०० श्लोकों-मन्त्रों  के उस ग्रन्थ में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के तीन चरित्र बताए हैं। नवरात्र में सप्तशती पाठ का विशेष महत्व है और इस पाठ के पूर्व अनिवार्यत: किया जाने वाला है–नवार्ण मन्त्र का जप।

नवरात्रि देव पर्व है। जो इस अवसर पर प्रयत्नशील होते हैं, वे अन्य अवसरों की अपेक्षा इस शुभ मुहुर्त में अधिक लाभ प्राप्त करते हैं। नवरात्रि सिद्धियों की अधिष्ठात्री कही गयी है। रावण वध के लिए राम ने, वृत्रासुर का वध करने के लिए इन्द्र ने और त्रिपुर वध के लिए भगवान शंकर ने भी नवरात्रि व्रत का अनुष्ठान किया था। अत: अशांति फैलाने वाले तत्त्वों, चाहें वे अंत:करण में हों या बाह्य जगत में–इनके विनाश के लिए नवरात्र से बढ़कर कोई व्रत नहीं कहा गया है।

शक्ति की उपासना के लिए नौ दिन ही क्यों?

शक्ति की उपासना के लिए नौ दिन ही क्यों नियत किए गए हैं, इससे अधिक या कम क्यों नहीं?

इसका एक कारण यह है कि दुर्गामाता नवविधा हैं, अतएव नौ दिन रखे गए। रुद्रयामलतन्त्र में कहा गया है–’नवशक्तिसमायुक्तां नवरात्रं तदुच्ये।’ नौ शक्तियों से युक्त होने से इसे नवरात्र कहा गया है।

दूसरा, नवरात्र वर्ष के दिनों का ४०वां भाग हैं, इसलिए भी दुर्गापूजा के नौ दिन होते हैं।

तीसरा, शक्ति के तीन गुण हैं–सत्व, रज और तम। इनको तिगुना करने पर नौ ही हो जाते हैं।

महाशक्ति दुर्गा की उपासना में उनके समग्र रूप की आराधना हो सके, इसलिए भी नवरात्र के नौ दिन रखे गए हैं।

1 COMMENT

  1. namaste maha anubhava ye likha hua padha anupam hai mein apko dhanyavad karta hun jo mere dimag mein ghumta tha vah amrit adhikansh apne diya nischit mein padhkar santusht hua

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