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जब-जब भगवान ब्रह्मा और शंकर असुरों की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें मनचाहा वर दे देते हैं तो त्रिलोकी को कष्ट उठाना ही पड़ता है, तब जगन्माता ही विभिन्न रूप और लीलाओं से संसार को संकट से बचाती हैं । क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो सकता है किन्तु माता कुमाता नहीं होती है । ऐसा ही देवी मां का एक रूप माता भ्रामरी का है जो मां भुवनेश्वरी का ही विलक्षण रूप हैं ।

ब्रह्माजी ने दिया अरुण दैत्य को अनोखा वरदान

पाताल लोक निवासी अरुण दैत्य ने देवताओं को जीतने के लिए माता गायत्री की कठिन तपस्या की जिससे उसके शरीर से अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाएं निकलने लगीं । इस अद्भुत घटना से सारे देवता घबरा गए और ब्रह्माजी के पास जाकर सारा हाल कह सुनाया । ब्रह्माजी माता गायत्री को साथ लेकर अरुण दैत्य के पास गए । दैत्य ने अमर होने का वर मांगा । ब्रह्माजी ने कहा—‘संसार में जन्म लेने वाला अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होगा, तुम कोई दूसरा वर मांगो ।’

तब अरुण दैत्य ने कहा—‘मुझे यह वर दें कि मैं न युद्ध में मरुं, न किसी अस्त्र-शस्त्र से मरुं, न किसी स्त्री या पुरुष से मेरी मृत्यु हो, न ही दो पैर वाला और चार पैर वाला कोई भी प्राणी मुझे मार सके । साथ ही मुझे ऐसा बल दीजिए कि मैं देवताओं पर विजय प्राप्त कर सकूं ।’

ब्रह्माजी ने ‘तथाऽस्तु’ कह दिया । ऐसा वर पाकर उन्मत्त हुए अरुण दैत्य ने देवताओं को पराजित कर दिया और अपने तप के प्रभाव से इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, यम और अग्नि आदि देवताओं का रूप बनाकर सब पर शासन करने लगा ।

भगवान शंकर और सभी देवता उस दैत्य को मारने का कोई उपाय सोच ही रहे थे कि आकाशवाणी हुई—

‘तुम लोग देवी भुवनेश्वरी की उपासना करो । यदि अरुण दैत्य नित्य गायत्री-जप और पूजन न करे तो उसकी शीघ्र ही मृत्यु हो जाएगी ।’

देवताओं ने की देवी भुवनेश्वरी की उपासना

सभी देवता देवी भुवनेश्वरी की उपासना करने लगे और उन्होंने देवगुरु बृहस्पति को अरुण दैत्य के पास भेजा ताकि वे उसकी बुद्धि को भ्रमित कर दें और वह गायत्री की उपासना छोड़ दे । देवगुरु बृहस्पति के मोहित करने से उसने गायत्री साधना छोड़ दी और निस्तेज हो गया । अब देवता पुन: देवी भुवनेश्वरी की स्तुति करने लगे ।

माता भ्रामरी का प्राकट्य

देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर जगन्माता भुवनेश्वरी प्रसन्न हो गईं और एक विलक्षण रूप धारण कर प्रकट हो गईं । अत्यन्त सुन्दर रूप, वस्त्र आभूषणों से सज्जित, अनेक प्रकार के भ्रमरों (भंवरों) से सजी पुष्पमाला पहने माता भ्रामरी के चारों ओर असंख्य भंवरे ‘ह्रीं’ शब्द गुनगुनाते हुए उड़ रहे थे और उनकी मुट्ठी असंख्य भंवरों से भरी हुई थी । सभी देवताओं ने मां के इस रूप को प्रणाम करते हुए अरुण दैत्य द्वारा दी जाने वाली पीड़ा से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करने लगे—

‘हे देवि ! भ्रमरों से लिपटी होने के कारण आपने ‘भ्रामरी’ नाम का रूप धारण किया है । आपके इस लीला रूप को हम सदैव प्रणाम करते हैं ।’

माता भ्रामरी ने कहा—‘ब्रह्माजी के वरदान की रक्षा के लिए ही मैंने यह ‘भ्रामरी रूप’ धारण किया है । अरुण दैत्य ने वर मांगा है कि मैं न तो दो पैर वालों से मरुं और न चार पैर वालों से; मेरा यह भ्रमर रूप छ: पैरों वाला है । उसने वर मांगा है कि मैं न तो युद्ध में मरुं और न किसी अस्त्र-शस्त्र से; इसलिए मेरा यह भ्रमर रूप न तो उससे युद्ध करेगा न ही किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करेगा । साथ ही उसने मनुष्य, देवता आदि किसी से भी न मरने का वर मांगा है; मेरा यह भ्रमर रूप न तो मनुष्य है और न ही देवता है । इसीलिए मैंने यह भ्रामरी रूप धारण किया है । आप लोग मेरी लीला देखिए ।’

असंख्य भ्रमरों ने कर दिया अरुण दानव का काम तमाम

ऐसा कहकर माता भ्रामरी ने अपने हाथ के और चारों तरफ के भ्रमरों को प्रेरित किया और वे असंख्य भ्रमर ‘ह्रीं-ह्रीं’ करते हुए अरुण दानव की ओर उड़ चले । उन काले-काले भ्रमरों से सूर्य छिप गया और चारों तरफ अंधकार छा गया । वे भ्रमर अरुण दानव और उसकी दैत्य सेना के शरीर से चिपक कर उसे काटने लगे । दानव असीम वेदना से छटपटाने लगे और जो जहां था, वहीं गिरकर मर गया ।

जगन्माता के भ्रामरी रूप ने ऐसी लीला दिखाई कि ब्रह्माजी के वरदान की रक्षा भी हो गई और समूची दानव सेना का संहार भी हो गया । वे सभी भ्रमर देवी के पास वापिस लौट आए और उन्हीं के विग्रह और आभूषणों में समाहित हो गए । संसार के सभी प्राणी सुखी हो गए ।

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