एक बार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य अपने आश्रम में अखण्ड आनंद-समाधि में लीन थे, सहसा उनका शरीर अपूर्व सिहरन से व मस्तिष्क नीले बादलों की-सी दिव्य प्रभा से भर गया । उनके नेत्रों में एक अलौकिक गोलाकार युगलनेत्र वाली छवि प्रकट हुई, जिसे देख कर उनके नेत्रों से आनंदाश्रु बहने लगे ।
उस अलौकिक गोलाकार युगलनेत्र वाली छवि ने आचार्य शंकर से पूछा—‘अरे शंकर ! तू मुझे नहीं पहचान पाया ।’
आचार्य शंकर ने मां त्रिपुरसुंदरी और भगवान श्रीकृष्ण की कमनीय छवि अपने नेत्रों से साक्षात् देखी थी; परंतु जो छवि उनके नेत्रों के सामने आज थी; वह इन दोनों से अलग थी । सहसा उस गोलाकार अद्भुत छवि के मंद-हास्य करते ही जड़ और चेतन—संपूर्ण जगत उनके मुख में प्रविष्ट होने लगा ।
आचार्य शंकर को आभास हुआ मानो वह छवि कह रही है—‘मैं संपूर्ण जगत का नाथ नीलाचलबिहारी पुरुषोत्तम क्षेत्र में तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।’
आचार्य के देखते-देखते वह छवि शून्य में विलीन हो गई । यह देख कर शंकर ठगे-से रह गए । आचार्य शंकर की समाधि टूट चुकी थी और उनके मुख से प्रेममयी वाणी प्रस्फुटित हो रही थी—
‘जगन्नाथ: स्वामी नयनपथगामी भवतु मे‘ अर्थात्—जगन्नाथ स्वामी मेरे पथ-प्रदर्शक बने और मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करें।
आचार्य शंकर अपनी शिष्य मंडली के साथ यात्रा करके केरल से पुरुषोत्तम क्षेत्र (पुरी) पहुंचे, जहां पर महाप्रभु जगन्नाथ जी अपनी बांहें फैलाए अपने भक्त की राह देख रहे थे । आचार्य ने अपने दल के साथ ‘यज्ञवराह क्षेत्र’ में विश्राम किया ।
कलिंग के राजा महाभव गुप्त ययाति को जैसे ही आचार्य शंकर के आने की सूचना मिली, वे उनके स्वागत के लिए पहुंच गए । आचार्य ने कलिंग महाराज से महाप्रभु जगन्नाथ जी के दर्शन करने की इच्छा जताई ।
राजा ने उदासी भरे शब्दों में कहा—‘नीलाचलबिहारी महाप्रभु जगन्नाथ जी इस समय कहां हैं, किसी को भी ज्ञात नहीं है । उनकी रत्नवेदिका (सिंहासन) शून्य है ।’
यद्यपि राजा ने जगन्नाथ जी की खोज के लिए अपने दूत भेज रखे थे; परंतु कोई भी उनका पता नहीं लगा सका था ।
राजा के चले जाने पर आचार्य शंकर ने समाधि लगाई; परंतु उन्हें भी जगन्नाथ जी के मंदिर की रत्नवेदिका शून्य दिखी । तभी एक आभा की किरण उन्हें अपने हृदयपटल पर दिखाई दी जो कह रही थी—‘इस सागर के पार जो दारु विद्यमान है, उसे त्याग कर उसके परे जाओ ।’
भगवान जगन्नाथ जी की आज्ञानुसार आचार्य शंकर उसी पावनभूमि में पहुंचे तो उन्हें मुरलीवादन करते हुए श्यामसुंदर श्रीकृष्ण की दिव्य छटा दिखाई दी ।
आचार्य शंकर ने प्रश्न किया—‘क्या आप ही कृष्ण हैं ?
उत्तर मिला—‘हां, मैं ही शिव, राम, कृष्ण और ब्रह्म हूँ ।’
तभी आचार्य को फिर वही गोलाकार नेत्रों वाला मुखमण्डल दिखाई दिया, जिसे खोजते हुए वे यहां तक आए थे । आचार्य के कानों में मंद-मंद ध्वनि सुनाई पड़ने लगी—
‘शंकर ! मेरी इच्छा है कि तुम मुझे फिर से रत्नवेदी पर स्थापित करो । मेरी ही इच्छा से यह संपूर्ण सृष्टि टिकी है, इसका पालन और संहार होता है । तुम्हें यहीं सागर के आस-पास मेरी आत्मा मिट्टी के नीचे दबी मिलेगी । तुम उसे वहां से लाकर पुन: जगन्नाथ धाम में स्थापित करो ।’
उसी समय आचार्य को कलिंग के महाराज की सूचना मिली कि 144 वर्ष पूर्व सागर की तरंगें बहुत ऊपर तक बढने लगीं थी, जिससे जगन्नाथ मंदिर की सुरक्षा को खतरा हो गया था । इसलिए महाप्रभु के सेवक उन्हें चिलका झील के पास सोनपुर में सुरक्षित स्थान पर ले गए थे । उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों के भय से महाप्रभु जगन्नाथ जी की प्रतिमा को मिट्टी के नीचे दबा दिया और पहचान के लिए उस पर एक वट-वृक्ष लगा दिया था । जिसकी पूजा ‘वट-देवता’ के रूप में होती चली आ रही है ।
कलिंग के महाराज ने आचार्य शंकर की आज्ञा से उस स्थान की खुदाई कराई । 144 वर्ष पूर्व भूमि में दबाए गए महाप्रभु जगन्नाथ जी का शरीर मिट्टी में मिल कर मिट्टी जैसा हो गया था; किंतु महाप्रभु का ब्रह्मतत्त्व (प्राण, शालिग्राम) अक्षुण्ण था । ब्रह्म तो अक्षय है, अविनाशी है, उसके नाश का तो प्रश्न ही नहीं था । वे तो तीनों कालों में एक समान रहने वाला है । क्योंकि—
ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।
अर्थात्–वह पूर्ण है, यह पूर्ण है, पूर्ण से ही पूर्ण की वृद्धि होती है । पूर्ण में से पूर्ण लेने पर भी पूर्ण ही बच रहता है । इसी प्रकार भगवान अंशयुक्त होने पर भी पूर्ण हैं ।
आचार्य शंकर ने ब्रह्मतत्त्व को अपने हाथों से उठा कर पाट-वस्त्र में लपेट लिया । साक्षात् ब्रह्म आज आचार्य शंकर के करकमलों में शोभायमान था, जिससे उनका अंग-अंग पुलकित हो रहा था ।
‘जय जगन्नाथ’ के तुमुल उद्घोष के साथ आदिवासी शबर, ग्रामवासी और सारा समाज आचार्य शंकर के साथ पुरुषोत्तम धाम आया । शास्त्रीय विधि अनुसार नवीन विग्रह में ब्रह्मतत्त्व की स्थापना की गई। रत्नवेदी पर बलभद्र जी, देवी सुभद्रा, महाप्रभु जगन्नाथ तथा सुदर्शन की पुन: स्थापना की गई । वही ब्रह्म जगन्नाथ पुरी की रत्नवेदी पर आज भी विराज रहा है ।
आज निराकार ब्रह्म साकार होकर अपने भक्तों को अपनी बांहों में समेट लेने के लिए उत्सुक था । आचार्य शंकर के नेत्र उस गोलाकार युगल-नयन वाली छवि की सुधा का रस पान कर रहे थे और उनके मुख से भगवान जगन्नाथ की स्तुति में ‘जगन्नाथाष्टक’ के मधुर स्वर निकल रहे थे—
पाठकों की सुविधा के लिए ‘जगन्नाथाष्टक’ के कुछ अंश
महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिरे नील शिखरे
वसनप्रासादान्त: सहजबलभद्रेण बलिना ।
सुभद्रामध्यस्थ: सकल सुरसेवावसरदो
जगन्नाथ: स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ।।
अर्थात्—हे मधुसूदन ! विशाल सागर के किनारे सुंदर नीलांचल पर्वत के शिखरों से घिरे अति रमणीय आभा वाले पुरी धाम में आप अपने बलशाली भाई बलभद्र जी और आप दोनों के मध्य में बहिन सुभद्रा जी के साथ विराजमान होकर सभी दिव्य आत्माओं, भक्तों और संतों को अपनी कृपादृष्टि का रसपान करवा रहे हैं, ऐसे जगन्नाथ स्वामी मेरे पथ-प्रदर्शक बनें और मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करें।
रथारूढो गच्छन्पथि मिलितभूदेवपटलै:
स्तुति प्रादुर्भावं प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदय: ।
दयासिन्धुर्बन्धु: सकल जगतां सिन्धुसुतया
जगन्नाथ: स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ।।
अर्थात्—हे आनंदस्वरूप ! जब आप रथयात्रा के दौरान रथ में विराजमान होकर जनसाधारण के मध्य उपस्थित होते हैं तो अनेक साधु-संत और भक्तों द्वारा स्तुतिवाचन और मंत्रपाठ सुन कर आप प्रसन्न होकर अपने प्रेमीभक्तों को प्रेम से निहारते हैं, उनपर अपने प्रेम की वर्षा करते हैं; ऐसे जगन्नाथ स्वामी समुद्र-मंथन से उत्पन्न सागर-पुत्री लक्ष्मी जी सहित मेरे पथ-प्रदर्शक बनें और मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करें।
‘जगन्नाथाष्टक’ महाप्रभु जगन्नाथ जी को अत्यंत प्रिय होने के कारण यह उनका सबसे प्रचलित स्तोत्र है । श्रीचैतन्य महाप्रभु भी जगन्नाथ जी के दर्शन करते समय इसे गाया करते थे । यह स्तोत्र भक्तों को भुक्ति-मुक्ति—सब कुछ प्रदान करता है ।