एकनाथ जी महाराज ने ‘कैवल्य मुक्ति किसे कहते हैं’—इसे समझाने के लिए अपनी रामायण में एक बहुत सुंदर कथा कही है—
रावण की लंका में अशोक वाटिका में एक वृक्ष के नीचे बैठी सीता जी दिन-रात राम-नाम का जप करतीं और हर समय राम जी के ध्यान में मग्न रहती थीं । वे ध्यान में ऐसी तन्मय हो जातीं कि जहां उनकी दृष्टि जाती वहां उन्हें श्रीराम ही दिखाई देते थे । वृक्ष में राम, पत्तों में राम, जहां देखें वहां राम ही राम । श्रीराम का इस तरह दर्शन करने में उन्हें बहुत आनंद मिलता और उनका शोक दूर हो जाता; इसलिए इसे ‘अशोक वाटिका’ अर्थात् जहां शोक न हो, कहा जाता है ।
अशोक वाटिका में सीता जी की स्थिति कैसी थी—इसका बहुत सुन्दर वर्णन श्रीरामचरितमानस के सुंदरकाण्ड के इस दोहे (३०) में देखने को मिलता है—
नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित प्रान जाहिं केहिं बाट ।।
हनुमान जी भगवान श्रीराम को सीता जी का संदेश सुनाते हुए कहते हैं—सीता जी के प्राण कैद हो गये हैं । आठों प्रहर आपके ध्यान के किंवाड़ लगे रहते हैं अर्थात् आपका ध्यान कभी छूटता नहीं, आपकी श्यामल-माधुरी मूर्ति कभी मन के नेत्रों से परे होती ही नहीं । यदि कभी किंवाड़ खोले भी जाएं (ध्यान छूट भी जाएं) तो बाहर रात-दिन पहरा लगता है । पहरेदार है आपका ‘राम-नाम’ । क्षण भर के लिए भी जिह्वा ‘राम-नाम’ से विराम नहीं लेती है । ऐसी स्थिति में आपके वियोग में भी प्राण बाहर कैसे निकलें ?
त्रिजटा नाम की एक राक्षसी जो सीता जी के साथ रहती थी, वह जानती थी कि ये कोई साधारण स्त्री नहीं वरन् परमात्मा की शक्ति हैं; इसलिए वह उनकी सेवा करती थी । एक दिन सीता जी श्रीराम के ध्यान में इतनी तन्मय हो गईं कि अभी तक तो उन्हें बाहर ही चारों तरफ श्रीराम दिखाई देते थे; परंतु आज उन्हें भीतर भी आत्म-स्वरूप में श्रीराम के दर्शन होने लगे । वे इस बात को भूल गईं कि मैं राजा जनक की पुत्री हूँ और मेरा श्रीराम के साथ विवाह हुआ है । बस बाहर भी राम और भीतर भी राम, राम के सिवाय और कुछ भी नहीं । न तन की सुध न बाहर की । तीन-चार घण्टे तक उनकी समाधि लगी रही ।
जब सीता जी की समाधि भंग हुई तब त्रिजटा ने पूछा—‘मां ! आज आप उदास क्यों हैं, आपको क्या हो रहा है ?’
सीता जी ने कहा—‘मैंने एक बार सुना था कि एक कीड़ी भ्रमरी का चिंतन करती रहती थी और वह भ्रमरी हो गई । श्रीराम के वियोग में उनका ध्यान करते हुए कदाचित् मैं मिट जाऊँ, सीता न रहूँ, राम हो जाऊँ तो…… ? परंतु मुझे यह पसंद नहीं ।’
त्रिजटा ने कहा—‘यह तो बहुत अच्छी बात है, इसमें बुरा क्या है ? आप यदि राम जी का ध्यान करते-करते राम हो जाती हैं, तब उनके वियोग में रोने का कभी अवसर ही नहीं आएगा ।’
सीता जी कहने लगीं—‘मैं राम हो जाऊँ, यह तुम्हें पसंद होगा पर मुझे पसंद नहीं है । श्रीराम की सेवा में जो आनंद है, वह राम होने में नहीं है । राम जी के चरण गोद में लेकर मैं धीरे-धीरे उनकी चरण-सेवा करुँ, प्रेम से वे मुझे स्वीकार करें, उसमें बहुत आनंद है । यदि मैं उनका सतत् ध्यान करने से सीता न रह कर राम हो जाऊँ, तो मेरे राम की सेवा कौन करेगा ? मेरे राम तो एकपत्नी-व्रती हैं, वे किसी स्त्री की ओर आँख उठा कर देखते भी नहीं । मैं भी राम और वो भी राम, जब दो राम हो जाएंगे तो किसे आनंद मिलेगा ? मुझे तो सीता बन कर राम जी की सेवा में ही आनंद आता है ।’
त्रिजटा ने कहा—‘मां ! यदि आप राम जी का ध्यान करते-करते राम हो जाएंगी तो श्रीराम आपका ध्यान करते हुए सीता हो जाएंगे । सीताराम की जोड़ी तो संसार में अमर रहेगी ।’
‘कैवल्य मुक्ति किसे कहते है’ ?
सीता जी श्रीराम का ध्यान करते-करते रामरूप हो जाएं तो यह ज्ञानी पुरुष की ‘कैवल्य मुक्ति’ है । ज्ञानी पुरुष जब ब्रह्म का चिंतन करते करते ब्रह्म रूप हो जाता है या भक्त जब भक्ति की अधिकता से परमात्मा से एक रूप हो जाता है अर्थात् ध्यान करने वाला जब ध्येय के साथ एक रूप हो जाता है, तो वेदान्त की भाषा में उसे ‘कैवल्य मुक्ति’ कहते हैं ।
प्रारम्भ में ध्यान करने वाला (ध्याता), ध्यान और जिसका ध्यान किया जा रहा है वह परमात्मा (ध्येय)—ये तीन होते हैं । ध्यान करते-करते जैसे जगत भूलता जाता है, वैसे-वैसे आनंद बढ़ता जाता है । ध्यान करने वाला यह भी भूल जाता है कि मैं ध्यान कर रहा हूँ और वह ध्येय में मिल जाता है । इस प्रकार ध्यान मे अत्यंत तन्मयता आने पर तीन में से एक ही रह जाता है । इसे ही ‘कैवल्य मुक्ति’ कहा गया है ।
पूज्यपाद श्रीरामचंद्र श्रीडोंगरे जी महाराज ने एक सरल उदाहरण देकर इसे समझाया है—
एक चीनी की गुड़िया थी । एक बार उसके मन में समुद्र को नापने की इच्छा हुई; इसलिए उसने अपने भाई-बहिनों को इकट्ठा किया और कहा कि मैं समुद्र की गहराई नापने जा रही हूँ । जब मैं नाप लेकर बाहर आऊंगी तब आप लोगों को समझाऊंगी कि समुद्र कितना गहरा है ? ऐसा कह कर वह समुद्र में कूद गई । लेकिन इसके बाद वह कभी बाहर न आ सकी और समुद्र में ही मिल गई । इसी तरह प्राणी बिन्दु है और परमात्मा सिंधु है । जब बिंदु सिंधु में समा जाए तो वह परमात्मा से एकरूप हो जाता है, उसी को कैवल्य मुक्ति कहते है ।
भक्तों (सीता जी) को भगवान की नित्य सेवा में आनंद आता है । वे मानते हैं कि मैं परमात्मा का दास हूँ’; इसलिए उन्हें परमात्मा के साथ एक रूप होना पसंद नहीं है ।