भक्तमाल’ महाभागवत नाभादास जी महाराज की रचना है । यह कोई सामान्य ग्रंथ नहीं है बल्कि एक आशीर्वादात्मक ग्रंथ है, जो एक सिद्ध और महान संत की कृपा और आशीर्वाद से प्रकट हुआ; इसलिए यह भक्ति साहित्य का अनूठा अनमोल रत्न है । इसमें भक्तों का गुणगान है, यशोगान है । इसके श्रवण-पठन से मनुष्य का शुष्क हृदय भी भक्ति की लहरों से सरस हो जाता है ।
जब से भगवान हैं, तभी से उनके भक्त हैं और जब से भगवान की कथा है, तभी से भक्तों की कथा का शुभारम्भ हुआ । जैसे भक्तों को भगवान का चरित्र सुनना अति प्रिय होता है; वैसे ही भगवान को अपने भक्तों का चरित्र परम प्रिय है । संतों का तो यहां तक कहना है कि भगवान अपने नित्य धाम में ‘भक्तमाल’ का सदा स्वाध्याय करते हैं ।
‘भक्तमाल’ के रचयिता नाभादास जी कहते हैं कि—‘यदि भगवान को प्राप्त करने की आशा है तो भक्तों के गुणों को गाइये, निस्संदेह भगवत्प्राप्ति हो जाएगी । जो भक्तों के चरित्र को गाता, पढ़ता या सुनता है; वह भगवान को पुत्र के समान प्रिय है, उसे भगवान अपनी गोद में बैठा लेते हैं और वह परम शांति प्राप्त करता है ।’
भक्तमाल’ ग्रन्थ का प्राकट्य कैसे हुआ ?
एक बार की बात है नाभादास जी के गुरुदेव श्री अग्रदास जी भगवान सीताराम जी की मानसी सेवा में लीन थे और उनके शिष्य नाभादास जी धीरे-धीरे उनको पंखा झल रहे थे । उसी समय श्री अग्रदास जी का एक शिष्य जहाज से समुद्री यात्रा कर रहा था । उसका जहाज अचानक भंवर में फंस कर रुक गया । उस संकट से मुक्ति के लिए शिष्य ने उसी समय अपने गुरुदेव श्री अग्रदास जी का ध्यान-स्मरण किया ।
परिणामस्वरूप गुरुदेव का ध्यान भी संकट में फंसे शिष्य की तरफ चला गया और उनकी मानसी आराधना का ध्यान टूट गया । आश्चर्य की बात यह थी कि गुरुदेव का ध्यान भंग होने की बात नाभादास जी भी समझ गए । तब उन्होंने अपने पंखे की हवा के झोंके से रुके हुए जहाज को भंवर से पार करा दिया ।
जहाज समुद्र में पहले की तरह चल पड़ा । नाभादास जी ने गुरुदेव से कहा—‘गुरुदेव ! वह जहाज पुन: चल पड़ा है । अब आप पहले के समान ही भगवान के ध्यान में लग जाइये ।’
यह सुनकर श्री अग्रदास जी ने आंखें खोली और कहा—‘कौन बोला ?’
नाभादास जी ने हाथ जोड़ कर कहा—‘वही आपका दास, जिसे आपने अपना प्रसाद दे-देकर पाला है ।’
नाभादास जी की बात सुनकर श्री अग्रदास जी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा और वे मन-ही-मन सोचने लगे कि अरे, इसकी साधना की ऐसी ऊंची स्थिति हो गई है कि यह मेरी मानसी सेवा में भी पहुंच गया । आश्चर्य है कि इसने यहां बैठे-बैठे इतनी दूर स्थित समुद्र में होने वाली घटना का प्रत्यक्ष दर्शन कर लिया और यहीं से जहाज की रक्षा कर ली । यह सब सोच कर श्री अग्रदास जी को बड़ी प्रसन्नता हुई ।
वे जान गए कि ये सब संतों की सेवा और उनसे प्राप्त प्रसाद को खाने की महिमा है । इसी कारण इन्हें यह दिव्य दूर-दृष्टि प्राप्त हुई है ।
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(दूरश्रवण सिद्धि—अपने स्थान से ही चाहे जितनी दूर की बात सुन लेना । योगी लोग अपने सुनने की शक्ति (कर्णेन्द्रिय की शक्ति) को बढ़ाकर ऐसा करते हैं । दूरदर्शन सिद्धि—तीनों लोकों में होने वाले सब दृश्यों और कार्यों को अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही देख लेना । महाभारत युद्ध में संजय को व्यासदेव की कृपा से दूरश्रवण और दूरदर्शन दोनों सिद्धियां प्राप्त थीं ।)
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श्री अग्रदास जी ने नाभादास जी को आज्ञा देते हुए कहा—‘तुम्हारे ऊपर यह साधुओं की कृपा हुई है । अब तुम उन्हीं साधु-संतों के गुण, स्वरूप तथा उनके हृदय के भावों का गान करो ।’
गुरुदेव की आज्ञा सुनकर नाभादास जी ने हाथ जोड़ कर कहा—‘मैं भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण के चरित्रों को तो कुछ गा सकता हूँ, किंतु भक्तों के चरित्रों का आदि-अंत पाना तो बहुत कठिन है, भला, मैं भक्ति के रहस्य को कैसे समझ सकता हूँ ?’
तब श्री अग्रदास जी ने उन्हें समझाते हुए कहा—‘जिन्होंने तुम्हें मेरी मानसी सेवा में प्रवेश कराया, जिन्होंने तुम्हें समुद्र में जहाज को दिखलाया, जिन्होंने यहीं से पंखे की हवा से जहाज को आगे बढ़ाया; वे ही भगवान तुम्हारे हृदय में प्रविष्ट होकर भक्तों के तथा अपने भी समस्त रहस्यों को खोल कर तुम्हें बता देंगे ।’
नाभादास जी ने गुरुदेव से प्रेरणा प्राप्त कर उनके आशीर्वाद से ‘भक्तमाल’ ग्रंथ की रचना कर डाली । अपने ग्रंथ के आरम्भ में उन्होंने इस बात को कहा है—
अग्रदेव आग्या दई भक्तन को जस गाउ ।
भवसागर के तरन को नाहिन और उपाइ ।।
इस पद में नाभादास जी ने अपने गुरु का नाम बताया है, और ‘भक्तमाल’ ग्रंथ की रचना का कारण बताया है । भक्तों के चरित्र का गुणगान क्यों किया जाए, इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं—भक्त में भक्ति, भगवान और गुरुदेव सबका भाव निहित रहता है—
भक्त भक्ति भगवंत गुरु चतुर नाम वपु एक ।
इनके पद वंदन किएँ नासत विघ्न अनेक ।।
जैसे गाय के थन देखने में चार हैं, लेकिन चारों के अंदर एक ही समान दूध भरा रहता है; वैसे ही भक्त, भक्ति, भगवान और गुरु—ये चारों अलग-अलग दिखाई देने पर भी सदैव अभिन्न हैं । चारों में से किसी एक से भी प्रेम हो जाने पर तीनों अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं । हृदय में अटल रूप से भगवान का वास हो जाता है—
जग कीरति मंगल उदै तीनौं ताप नसायँ ।
हरिजन को गुन बरनते हरि हृदि अटल बसायँ ।।