bhagwan shrinath ji krishna

जो सुख होत गोपालहि गाये ।
सो सुख होत न जप तप कीन्हे कोटिक तीरथ न्हाये ।। 

‘ईश्वर के गुणगान में जो आनंद है, वह सांसारिक पुरुषों के गुणगान में नहीं है । जैसा सुख भक्तों को भगवान के गुणगान में होता है, वैसा सुख मोक्ष की अवस्था में भी नहीं होता है । केवल भगवान का गुणगान करने से भक्त में ईश्वरीय गुण आ जाते हैं ।’

श्रीनाथजी के नित्य सखा ‘विशाल’ का अवतार हैं चतुर्भुजदास जी

कलियुग में सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण ही गिरिगोवर्धन पर ‘देवदमन श्रीनाथजी’ के रूप में प्रकट हुए हैं । गुसाँई विट्ठलनाथ जी द्वारा गोवर्धन में श्रीनाथजी की अष्टप्रहर संगीत-सेवा प्रारम्भ की गयी तब कुम्भनदास जी को अष्टछाप कीर्तनकारों में सम्मिलित किया गया । 

चतुर्भुजदास जी अष्टछाप के कवि कुम्भनदास जी के पुत्र थे । श्रीवल्लभ-सम्प्रदाय में चतुर्भुजदास जी को श्रीनाथजी के नित्य सखा ‘विशाल’ का अवतार माना जाता है ।

इनके जन्म के सम्बन्ध में यह बात प्रसिद्ध है कि कुम्भनदास जी श्रीनाथजी के साथ खेला करते थे । एक दिन भगवान गोवर्धन नाथ ने चार भुजा धारण कर कुम्भनदास जी को दर्शन दिए, उसी दिन कुम्भनदास जी के घर पुत्र का जन्म हुआ; इसलिए उन्होंने उसका नाम ‘चतुर्भुजदास’ रख दिया । 

जब चतुर्भुजदास ११ दिन के हुए तो कुम्भनदास जी उन्हें गुसाँई जी के पास ले गए और नाम स्मरण करवाया । जब चतुर्भुजदास ४१ दिन के हुए तो उन्हें गुसाँई जी ने ब्रह्म-सम्बन्ध दे दिया । इस दिन से प्रभु श्रीनाथजी ने चतुर्भुजदास को इतनी सामर्थ्य दे दी कि जब इच्छा हो वे बोलने-चालने और अलौकिक बातें करने लग जाएं और जब इच्छा हो तो मुग्ध बालक बन जाएं ।

भक्तों की इच्छा पूर्ति के लिए ही भगवान अभिव्यक्त होते हैं

चतुर्भुजदास जी श्रीनाथजी के ऐसे अनन्य भक्त थे कि वे कभी किसी और के आगे गाते ही न थे । श्रीनाथजी में उनकी भक्ति सखा भाव की थी । एक बार पारसौली में रास हो रहा था । गुसाँई जी ने चतुर्भुजदास जी को आज्ञा दी कि आप कुछ गाइए । 

चतुर्भुजदास जी बोले—‘हमारा गायन सुनने वाले रस-सम्राट श्रीनाथजी पधारे नहीं हैं, हम किस प्रकार गाएं ।‘ भक्त की वाणी असत्य न हो, इसलिए श्रीनाथजी वहां पधारे । तब प्रभु के दर्शन पाकर चतुर्भुजदास जी ने आनन्दमग्न होकर एक पद गाया ।

चतुर्भुजदास जी श्रीनाथजी के ऐसे कृपापात्र थे कि उनके बिना श्रीनाथजी रह नहीं सकते थे । चतुर्भुजदास जी गिरिराज पर्वत पर बैठ कर नित्य संध्या समय विरह के पद गाते । श्रीनाथजी उसी समय वहां गौओं के साथ पधार कर उन्हें दर्शन देते थे ।

एक समय गुसाँई जी किसी कार्य से ब्रज के बाहर जा रहे थे । उन्होंने चतुर्भुजदास जी को भी साथ चलने को कहा । वे चल तो दिए परन्तु ब्रज के बाहर होते ही उनका चित्त श्रीनाथजी के विरह से व्याकुल हो गया और गद्गद् कंठ से वैशाख सुदी १३ की संध्या को चतुर्भुजदास जी ने यह पद गाया—

चतुर्भुजदास जी द्वारा गाया पद जिसके निरंतर पाठ से श्रीनाथजी अवश्य अपना दर्शन देते हैं

श्रीगोवर्धनवासी सांवरे लाल, तुम बिन रह्यौ न जाय हो । बृजराज लडेतो लाडिले ।।

बंक चितै मुसकाय कें लाल सुंदर वदन दिखाय ।
लोचन तलफै मीन ज्यों लाल, पल छिन कल्प बिहाय हो ।। १ ।।

सप्त स्वर बंधान सों लाल, मोहन वेणु बजाय ।।
सुरत सुहाइ बांधिके नेंक, मधुरे मधुरे गाय हो ।। २ ।।

रसिक रसीली बोलनी लाल, गिरि चढि गैयां बुलाय ।
गांग बुलाइ धूमरी नेंक, ऊंची टेर सुनाय हो ।। ३ ।।

दृष्टि परी जा दिवस तें लाल, तब ते रुचे नहिं आन ।
रजनी नींद न आवहि मोहे, बिसरो भोजन पान हो ।। ४ ।।

दर्शन कों नैना तपै लाल बचन सुनन को कान हो ।
मिलिवे को हीयरा तपै मेरे जिय के जीवन-प्राण हो ।। ५ ।।

मन अभिलाषा है रही लाल, लगत न नैन निमेष ।
एकटक देखूं आवतो प्यारो, नागर नटवर भेष हो ।। ६ ।।

पूर्ण शशि मुख देख के लाल, चित चोरयो वाही ओर ।
रूप सुधारस पान के लाल, सादर चंद्र चकोर हो ।। ७ ।।

लोक लाज कुल वेद की लाल, छांड्यो सकल विवेक ।
कमल कली रवि ज्यों बढ़े लाल, छिन-छिन प्रीति विशेष हो ।। ८ ।।

मन्मथ कोटिक वारने लाल, देखत डगमगी चाल ।
युवती जन मन फंदना लाल, अंबुज नयन विशाल ।। ९ ।।

यह रट लागी लाड़िले लाल, जैसे चातक मोर ।
प्रेम नीर वरषा करो लाल नवघन नंदकिशोर हो ।। १० ।।

कुंज भवन क्रीडा करो लाल, सुखनिधि मदन गोपाल ।
हम श्री वृंदावन मालती लाल, तुम भोगी भ्रमर भूवाल हो ।। ११ ।।

युग युग अविचल राखिये लाल, यह सुख शैल निवास ।
श्रीगोवर्धनधर रूप पै बलि जाय ‘चतुर्भुजदास’ हो ।। १२ ।।

इस पद की अंतिम तुक श्रीनाथजी ने वहां पधारते हुए सुनी और करुणा से व्याकुल होकर कहने लगे—‘सदा यहीं पधारेंगे ।‘ 

साथ ही यह वचन दिया कि—‘एक वर्ष तक जो नित्य इस पद का गान करेंगे, उन्हें नि:संदेह मेरा दर्शन प्राप्त होगा ।’

परमात्मा प्रेम चाहते हैं । प्रेम में पागल बने बिना वे मिल नहीं सकते । जिन भक्तों का जीवन प्रभुमय हो, रोम-रोम में भगवान का प्रेम बहता हो, वे भक्त प्रेममय प्रभु की करुणामयी और कृपामयी गोद में बैठने और उनके सखा बनने के अधिकारी बनते हैं ।

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