भारतवर्ष में ५१ शक्ति पीठ हैं जिनमें भगवान महाकालेश्वर की क्रीडाभूमि उज्जैन में स्थित मां हरसिद्धि शक्ति पीठ सती की कोहनी के पतन-स्थल पर विद्यमान है । यहां की शक्ति ‘मांगल्य चण्डिका’ और भैरव ‘मांगल्य कपिलाम्बर’ हैं—
उज्जयिन्यां कूर्परं च मांगल्यकपिलाम्बर:।
भैरव: सिद्धिद: साक्षाद् देवी मंगलचण्डिका ।।
मां हरसिद्धि समस्त सिद्धियों को देने वाली हैं । शुद्ध मन व भक्ति-भाव से की गयी प्रार्थना वे अवश्य सुनती हैं जिससे जीवन का मार्ग निष्कण्टक व सुगम बन जाता है ।
देवी का ‘हरसिद्धि’ नाम पड़ने का कारण
स्कन्दपुराण के अनुसार प्राचीन काल में चण्ड-प्रचण्ड नामक दो असुरों ने अपने बल-पराक्रम से सारे संसार को कंपा दिया था । एक बार इन दोनों ने कैलास पर्वत पर जब अनधिकार प्रवेश करने की चेष्टा की, तब नन्दी ने उन्हें रोका । क्रुद्ध असुरों ने नन्दी को घायल कर दिया । भगवान शिव ने जब उनका यह आसुरी कार्य देखा तो उन्होंने देवी चण्डी का स्मरण किया । देवी के प्रकट होने पर भगवान शिव ने उन्हें चण्ड-प्रचण्ड का वध करने का आदेश दिया । चण्डी ने क्षणमात्र में उन दोनों असुरों का संहार कर दिया । भगवान शिव ने प्रसन्न होकर कहा—
’तुमने इन दुष्ट दानवों का वध किया है, अत: समस्त लोकों में तुम्हारा ‘हरसिद्धि’ नाम प्रसिद्ध होगा, लोग इसी नाम से तुम्हारी पूजा करेंगे ।’ तब से मां हरसिद्धि उज्जैन के महाकालवन में ही विराजती हैं ।
सम्राट् विक्रमादित्य की आराध्या रही हैं मां हरसिद्धि देवी
ऐसा कहा जाता है कि हरसिद्धि देवी उज्जैन के सम्राट् विक्रमादित्य की आराध्या थीं और वे प्रतिदिन माता का पूजन किया करते थे । वह इन्हीं की कृपा से निर्विघ्न शासन कार्य चलाया करते थे । विक्रमादित्य मां हरसिद्धि के इतने बड़े भक्त थे कि वह हर बारहवें साल स्वयं अपने हाथों अपना सिर उनके चरणों पर चढ़ाया करते थे और मां की कृपा से उनका सिर फिर पैदा हो जाता था । इस तरह राजा ने 11 बार पूजा की और बार-बार जीवित हो गए । बारहवीं बार जब उन्होंने पूजा की तो सिर वापस नहीं आया और इस तरह उनका जीवन समाप्त हो गया । आज भी मन्दिर के एक कोने में ग्यारह सिंदूर लगे हुए रुण्ड रखे हैं । ऐसा कहा जाता है कि ये विक्रमादित्य के कटे हुए मुण्ड हैं ।
मन्दिर के दायीं ओर स्थित चित्रशाला में विक्रमादित्य और उनकी राजसभा के नौ रत्नों—धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेतालभट्ट, घटकर्पर, कालिदास, वराहमिहिर तथा वररुचि के सुन्दर चित्र लगे हुए हैं ।
मां हरसिद्धि देवी का मन्दिर
मां हरसिद्धि का प्राचीन मन्दिर कमल-पुष्पों से सुशोभित रुद्रसागर से लगा हुआ था । रुद्रसागर के पूर्वी तट पर ‘महाकालेश्वर मन्दिर’ और पश्चिमी तट पर ‘हरसिद्धि देवी का मन्दिर’ था । मुस्लिम आक्रमणों के बाद से यह क्षेत्र एकदम वीरान हो गया । १८वीं सदी में राणोजी शिंदे के मंत्री रामचन्द्र चन्द्रबाबा ने श्रीमहाकालेश्वर और हरसिद्धि आदि मन्दिरों का पुनर्निर्माण करवाया ।
हरसिद्धि मन्दिर के गर्भगृह में यद्यपि देवियों की प्रतिमा उत्कीर्ण हैं तथापि यहां मूल रूप से हरसिद्धि की कोई प्रतिमा नहीं थी । शिवपुराण के अनुसार यहां श्रीयंत्र की पूजा होती है । मध्य में श्रीयंत्र प्रतिष्ठित है, ये ही देवी मां हरसिद्धि हैं । श्रीयन्त्र पर ही देवी मां की मूरत गढ़ी गयी है जिन्हें सिंदूर चढ़ाया जाता है ।
हरसिद्धि के अलावा यहां अन्नपूर्णा, कालिका, महालक्ष्मी, महासरस्वती और महामाया विराजमान हैं । नवरात्रि आदि पर्वों पर स्वर्ण-रजत मुखौटा भी धराया जाता है । हरसिद्धि मां की वेदी के नीचे की ओर मां भद्रकाली और भैरव की प्रतिमा है, जिन्हें सिंदूर नहीं चढ़ाया जाता है ।
मन्दिर में जगमोहन के ठीक सामने दो बड़े दीपस्तम्भ बने हुए हैं । हर वर्ष आश्विनमास की नवरात्रि में इन पर पांच दिन तक दीपमालाएं लगाई जाती हैं जो दूर से आकाश में चमकते हुए सितारों जैसे लगते हैं ।
शक्ति पीठ हरसिद्धि मन्दिर, उज्जैन की महिमा
मां हरसिद्धि आज भी बहुत सिद्ध मानी जाती हैं । उनकी शरण में जाने पर और मनौती मनाने पर अवश्य ही सबकी मनोकामना पूरी होती है । मां वैष्णवी हैं इसलिए इनकी पूजा में पशु बलि नहीं चढ़ाई जाती है ।
हरसिद्धि मन्दिर में मां का आशीष सदैव झरता रहता है । इसका सुन्दर दृश्य सूर्योदय और सूर्यास्त के समय देखने को मिलता है जब सैंकड़ों पक्षियों का कलरव सारे वातावरण को ऐसा गुंजायमान कर देता है मानो ब्राह्मणमण्डली ‘दुर्गासप्तशती’ का पाठ कर रही हो ।
देवि तू ही है परम पुरुष या
शक्तिरूप है या शक्तिमान ।
जो भी तू है ‘पर’ या ‘अपरा’
अतुल अगम्य वीर्य पुरुषार्थ ।
तुझको तेरी इस अबोध पुत्री का
देवि ! देवि ! शत कोटि प्रणाम ।।