Gayatri Devi Maa

गायत्री यद्यपि एक वेद का छन्द है, लेकिन इनकी एक देवी के रूप में मान्यता है । एक ही ईश्वरीय शक्ति जब भिन्न-भिन्न स्थितियों में होती है, तब भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी जाती है । गायत्री को तीन नामों से पुकारा जाता है । आरम्भ, तरुणाई और परिपक्वता—इन तीन भेदों के कारण एक ही गायत्री शक्ति के तीन नाम रखे गए हैं—आरम्भिक अवस्था में गायत्री, मध्य अवस्था में सावित्री और अंत अवस्था में सरस्वती । जैसे—सूर्य की आभा प्रात:काल अरुण (लाल), मध्याह्न में शुभ्र और संध्या में धुंधली हो जाती है; उसी प्रकार गायत्री की आभा अरुण, सावित्री की श्वेत और सरस्वती की कृष्णवर्ण-धुंधली है । इसलिए प्रात:काल, मध्याह्न काल और सन्ध्या काल में गायत्री का अलग-अलग प्रकार से ध्यान किया जाता है—

(१) प्रात: काल में ब्रह्मरूपा गायत्री ।

(२) मध्याह्न काल में विष्णु रूपा गायत्री ।

(३) सायं काल में शिव रूपा गायत्री ।

प्रात: काल ब्रह्मरूपा गायत्री : ध्यान और स्वरूप

माता गायत्री का सूर्यमण्डल से आते हुए इस मंत्र के द्वारा इस प्रकार ध्यान करना चाहिए—

ॐ बालां विद्यां तु गायत्रीं लोहितां चतुराननाम् ।
रक्ताम्बर द्वयो पेतामक्षसूत्रकरां तथा ।
कमण्डलुधरां देवीं हंसवाहन संस्थिताम् ।
ब्रह्माणीं ब्रह्मदैवत्यां ब्रह्मलोक निवासिनीम् ।।

अर्थात्—प्रात: काल में गायत्री ऋग्वेदस्वरूपा बालिका के रूप में विराजती हैं । वे ब्रह्माजी की शक्ति हैं और ज्ञानरूपिणी हैं । वे लाल रंग की है और उनके वस्त्र भी लाल रंग के हैं । इनके चार मुख और तीन नेत्र हैं  हैं । इन्होंने अपने हाथों में रुद्राक्ष माला, कमण्डलु, पाश और अंकुश धारण कर रखा है । वे हंस पर चढ़ने की क्रीड़ा कर रही हैं । उस समय उनके मणिमय आभूषण खनखन करते हैं । वे ब्रह्मलोक में निवास करती हैं और ब्रह्माजी उनके पति हैं । ब्रह्म की देवशक्ति होने के कारण ये ‘ब्रह्मदैवत्या’ कहलाती हैं । ऐसी माता गायत्री हमारे ध्यान का विषय होकर हमारी दैवी सम्पत्ति बढ़ाने में सहायक हों ।

प्रात:काल का समय ब्रह्म-मुहूर्त कहलाता है । उस समय ब्रह्म-तत्त्व की विशेषता रहने के कारण गायत्री को ‘ब्राह्मी’ भी कहते हैं । प्राण को ‘हंस’ कहते हैं । अत: हंस पर विराजमान गायत्री का अर्थ है प्राण पर छायी हुई अर्थात् ब्राह्मी गायत्री प्राण पर अपना विशेष प्रभाव प्रकट करती है । उनका रक्त वर्ण गतिशीलता और विकास को दर्शाता है । त्रिनयनी का अर्थ है शरीर, मस्तिष्क व अंत:करण को देखने वाली । प्रात:काल की गायत्री अपने हाथों में धारण किए गए साधनों से साधक को तपा कर ब्रह्मीभूत बनाती है ।

ब्रह्म गायत्री भूर्लोक निवासिनी हैं । भू:लोक शरीर को भी कहते हैं; अत: ब्राह्मी गायत्री शरीर को स्वस्थ रखती है ।

मध्याह्न काल में विष्णुरूपा गायत्री : ध्यान और स्वरूप

ॐ मध्याह्ने विष्णुरूपां च तार्क्ष्यस्थां पीतवाससाम् ।
युवतीं च यजुर्वेदां सूर्यमण्डल संस्थिताम् ।।

अर्थात्—सूर्यमण्डल स्थित युवावस्था वाली, पीले वस्त्र, शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण कर गरुड़ पर बैठी हुई यजुर्वेदस्वरूपा गायत्री का ध्यान करें ।

सविता सूर्य के समान तेजस्वी होने के कारण मध्याह्न गायत्री का नाम ‘सावित्री’ है । वे युवती अर्थात् विकसित, पुष्ट और सुदृढ़ हैं । परिपुष्ट होकर अपनी पूर्णावस्था के तेज से झिलमिलाती हुई गायत्री श्वेत वर्ण और पीले वस्त्र धारण करती हैं । 

विष्णु की दिव्य शक्ति होने के कारण वे ‘विष्णु दैवत्या’ कहलाती हैं । मध्याह्न गायत्री का श्वेत वर्ण दर्शाता है कि वे प्रकाशवती और आलोकमय हैं । मध्याह्न गायत्री के हाथ में चार पदार्थ हैं—शंख, चक्र, गदा और पद्म । शंख अर्थात् वाणी, चक्र अर्थात् तेज, गदा अर्थात् विनाश और पद्म अर्थात् वैभव—इन चारों पर इनका आधिपत्य है । गरुड़ क्रियाशीलता को दर्शाता है । अत: साधक को आलस्य छोड़कर क्रियाशील रहने की ये प्रेरणा देती हैं ।

यजुर्वेद कर्मकाण्ड का प्रतीक है; अत: कर्म की प्रेरणा देता है । वे भुव: लोक में निवास करती हैं । भुव: मानस लोक को कहते हैं । अत: सावित्री साधक के मस्तिष्क, विचार, तर्क, बुद्धि, सूझबूझ को परिमार्जित करती हैं ।

संध्या काल में शिवरूपा गायत्री : ध्यान और स्वरूप

ॐ सायाह्ने शिवरूपां च वृद्धां वृषभवाहिनीम् ।
सूर्यमण्डलमध्यस्थां सामवेदसमायुताम् ।।

अर्थात्—सूर्यमण्डल में स्थित वृद्धारूपा, त्रिशूल, डमरु, पाश व पात्र लिए वृषभ पर बैठी हुई सामवेदस्वरूपा गायत्री का ध्यान करें ।

संध्याकाल की गायत्री ‘सरस्वती’ के नाम से जानी जाती हैं । स+रस+वती अर्थात् सरसता वाली—संगीत, कला, कवित्व और अन्य रसों की निर्झरिनी हैं । सरस्वती वीणा के तारों को झंकृत करती हैं अर्थात् अंत:करण में विवेक जागृत करती हैं ।

वृद्धा का अर्थ है परिपक्व, विकास की चरम सीमा तक पहुंची हुई । संध्याकालीन गायत्री में ब्रह्म और प्रकृति का मिश्रण होने से वह कृष्ण वर्ण और कृष्ण वस्त्र वाली हैं । ब्रह्म शुभ्र हैं और प्रकृति पीत—इन दोनों के मिश्रण से काला रंग (धुंधला) बनता है ।

वे वृषभ पर आरुढ़ हैं । वृषभ धर्म का प्रतीक है; अत: सावित्री धर्म पर आरुढ़ है । त्रिशूल कहते हैं तीन दु:ख—अज्ञान, अभाव और आसक्ति—ये तीनों सायंकालीन गायत्री की मुट्ठी में हैं अर्थात् उन पर उनका नियंत्रण है । डमरु—ध्वनि अर्थात् वाणी का प्रतीक है ।  सामवेद अर्थात् गायन । ये साधक की वाणी और कवित्व शक्ति को प्रभावित करती हैं ।  ये रुद्रदेव की शक्ति हैं इसलिए उग्र दिव्य शक्तियों वाली हैं ।

माता गायत्री के तीनों रुपों को नमस्कार का मंत्र

नमो नमस्ते गायत्रि सावित्रि त्वां नमाम्यहम् ।
सरस्वति नमस्तुभ्यं तुरीये ब्रह्मरूपिणी ।।

हे गायत्री देवि ! हे सावित्री ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ ! हे सरस्वती देवि ! आपको मेरा नमस्कार है । ब्रह्मरुपिणी तुरीयावस्था स्वरूपे ! आपको मेरा नमस्कार है ।

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