राधा जाईं, आनंद लाईं, नाचौ रे, नाचौ, सब ग्वाल।
दधि माखन की नदी बहावौ, आज सबै हो गये निहाल।।
अनगित भरे माट माखन-दधि केसर घोले लाये लोग।
मतवाले से लगे छिड़कने खूब परस्पर शुभ संयोग।।
व्रज के रसिक सन्तों ने प्रिया-प्रियतम श्रीराधाकृष्ण की जन्मलीला बड़े ही अनूठे ढंग से गायी है जो मन को आनन्द व उल्लास से भर देती है–
व्रजराज नन्द के घर आह्लाद (आनन्द) ने पुत्र रूप में जन्म लिया। व्रजवासी नन्दोत्सव में गाते हैं–’नन्द के आनन्द भयौ जै कन्हैया लाल की।’ जब आह्लाद प्रकट हुआ है तो आह्लादिनी का प्रकट होना निश्चित है। व्रजराज नन्द के घर यदि श्रीकृष्ण प्रकट हुए हैं तो गोपराज वृषभानु के घर श्रीराधारानी का प्राकट्य भी निश्चित है। क्योंकि आह्लादिनी के बिना आह्लाद आता ही नहीं है। संतों ने कहा है–
एक स्वरूप सदा द्वै नाम।
आनन्द की आह्लादिनी श्यामा आह्लादिनी के आनन्द श्याम।। (जुगलशतक)
व्रजरस-रसिकों के आनन्द का पर्व है श्रीराधाष्टमी
व्रज की लीलाओं में एक कथा है कि एक बार श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से कहा कि हमारी जन्माष्टमी तो सभी जगह बड़ी धूमधाम से मनायी जाती है, उसी तरह किशोरीजी आप की राधाष्टमी भी सभी जगह मनाई जाए। तब श्रीराधा ने कहा–हे श्यामसुन्दर! आपको ब्रह्माण्ड में सभी जानते हैं। आप कभी ब्रह्म, कभी परमात्मा और कभी सर्वस्वतन्त्र लीलाधारी भगवान के रूप में देखे जाते हैं। पर हमारे सामने कुछ मर्यादाएं हैं।
श्रीराधाष्टमी का पर्व व्रजरस-रसिकों की अंतरंग मण्डली में ही मनाया जाता है क्योंकि श्रीराधातत्त्व अति गम्भीर है। उस दिव्य प्रेमरस को केवल श्रीकृष्ण ही प्राप्त करते और जानते हैं–
मैं राधा रमन कहाऊँ। क्यौं दूजौ नाम धराऊँ।।
जहँ राधा चरचा कीजै। तहँ प्रथम जान मोहिं लीजै।।
जहँ राधा राधा गावैं। तहँ सुनिबे कौं हम आवैं।।
श्रीराधा मेरी सोभा। श्रीराधा कौ चित्त लोभा।।
मैं राधा के संग नीकौ। राधा बिन लागत फीकौ।।
गोलोक में श्रीराधा का प्राकट्य
पूर्वकाल में गोलोक में वृन्दावन के रासमण्डल में जगदीश्वर श्रीकृष्ण रत्नसिंहासन पर विराजमान थे। उसी समय उनके हृदय में रमण करने की उत्कण्ठा जाग उठी। उनकी रमणेच्छा ही मूर्तिमान होकर श्रीराधा के रूप में प्रकट हो गयी। वे परमात्मा श्रीकृष्ण दो रूपों में विभक्त हो गए। उनका दाहिना अंग श्रीकृष्ण के रूप में व बायां भाग श्रीराधा के रूप में परिणत हो गया। श्रीराधा अपने स्वामी श्रीकृष्ण को देखकर उनके सामने दौड़ी गयीं, इसलिए वे ‘राधा’ नाम से प्रसिद्ध हुईं। श्रीराधा श्रीकृष्ण के अर्द्धांग (वामांग) से प्रकट हुई हैं इसलिए वे ‘कृष्णवामांगसम्भूता’ कहलाती हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधा से कहते हैं–‘जिस समय मैं तेजोमय रूप में प्रकट रहता हूँ उस समय तुम तेजरूप में रहती हो। जब मैं निराकार रूप में स्थित रहता है, उस समय तुम भी अव्यक्त प्रकृति के रूप में रहती हो।’
द्वापरयुग में श्रीराधा के जन्म की कथा
धन्य-धन्य द्वापर जुग, धनि यह भादौं की आठैं अति पावनि।
प्रगटे पहली में मोहन, या दूजी में राधा मन-भावनि।।
उजियारौ पखवारौ पावन, भाग्य-सील शुभ समय दुपहरी।
प्रगट भईं राधा मन-मोहन, आनंनद-घन की आनंद लहरी।।
भाद्रपदमास की कृष्णपक्ष की अष्टमी ‘श्रीकृष्णजन्माष्टमी’ और भाद्रपदमास की शुक्लपक्ष की अष्टमी ’श्रीराधाष्टमी’ के नाम से जानी जाती है।
श्रीराधा का ननिहाल रावलग्राम में था। रक्षाबंधन के पर्व पर श्रीराधा की गर्भवती मां कीर्तिरानी अपने भाई को राखी बांधने आईं। राधाष्टमी के एक दिन पहले बरसाने के राजा वृषभानुजी अपनी पत्नी को लिवाने आए। प्रात: यमुनास्नान करते समय भगवान की लीला से कीर्तिरानी के गर्भ का तेज निकलकर यमुना किनारे बढ़ने लगा और यमुनाजी के जल में नवविकसित कमल के केसर के मध्य एक परम सुन्दरी बालिका में परिणत हो गया। वृषभानुजी उस बालिका को अपने साथ ले आए और अपनी पत्नी को लेकर बरसाना आ गए।
बरसाने में खबर फैल गई कि कीर्तिदा ने एक सुन्दर बालिका को जन्म दिया है। वृषभानुभवन में वेदपाठ आरम्भ हो गया, राजद्वार पर मंगल-कलश सजाए गए। शहनाई, नौबत, भेरी, नगाड़े बजने लगे।
श्रीराधा के जन्म का समाचार सुनकर व्रजवासी, जामा, पीताम्बरी, पटका पहनकर सिरपर दूध, दही और माखन से भरी मटकियां लेकर गाते-बजाते वृषभानुभवन पहुंच गए और राजा वृषभानु को बधाइयां देने लगे। तान भर-भर कर सोहिले गायी जाने लगीं। राजा वृषभानु के ऊंचे पर्वत पर बने महल के जगमोहन में श्रीराधा के पालने के दर्शन हो रहे थे। आंगन में बैठे गोप और बारहद्वारी में बैठी महिलाएं सुरीले गीत गा रहीं थीं।
श्रीराधा का पालना
राजा वृषभानु ने श्रीराधा के झूलने के लिए चंदन की लकड़ी का पालना बनवाया जिसमें सोने-चांदी के पत्र और जवाहरात लगे थे। पालने में श्रीजी के झूलने के स्थान को नीलमणि से बने मोरों की बेलों से सजाया गया था।
श्रीराधा का अभिषेक
नवजात बालिका श्रीराधा का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ अत: मूलशान्ति के लिए दिव्य औषधियों, वन की औषधियों, सर्वोषधि आदि से स्नान कराकर गाय के दूध, दही, घी, इत्र व सुगन्धित जल से अभिषेक किया गया और फिर सुन्दर श्रृंगार धारण कराकर दुग्धपान कराया गया।
गोप-गोपियों द्वारा दूध-दही (दधिकांदा) की वर्षा
गोपियां दही बरसा रही हैं और गोप दही-दूध-घी, नवनीत, हरिद्राचूर्ण, केसर तथा इत्र-फुलेल का घोल (दधिकांदा) बनाकर व्रजवासियों के ऊपर उड़ेल रहे हैं। प्रेममग्न व्रजवासियों के हृदय में जो राधारस भरा था वह मूर्तिमान होकर सबके मुख से निकल रहा है–
राधा रानी ने जन्म लियौ है।
सब सुखदानी ने जनम लियौ है।।
भानु दुलारी ने जनम लियौ है।।
कीर्ति कुमारी ने जनम लियौ है।।