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भगवान श्रीकृष्ण और श्वपच भक्त वाल्मीकि
एक बार राजा युधिष्ठिर ने यज्ञ किया जिसमें चारों दिशाओं से ऋषि-मुनि पधारे । भगवान श्रीकृष्ण ने एक शंख स्थापित करते हुए कहा कि यज्ञ के विधिवत् पूर्ण हो जाने पर यह शंख बिना बजाये ही बजेगा । यदि नहीं बजे तो समझिये कि यज्ञ में अभी कोई त्रुटि है और यज्ञ पूरा नहीं हुआ है । पूर्णाहुति, तर्पण, ब्राह्मणभोज, दान-दक्षिणा—सभी कार्य संपन्न हो गए, परंतु शंख नहीं बजा । सभी लोग चिंतित होकर शंख न बजने का कारण जानने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के पास आए ।
देवमन्दिर की साफ-सफाई करने का महत्व
भगवान की सेवा करते समय बहुत सावधान रहने की आवश्यकता होती है । सेवा करते समय जरा भी मन में यह विचार आया कि ‘मैं ये कार्य करता हूँ’ आदि तो इससे अभिमान आता है और वह सभी किए कराए पर पानी फेर देता है । अभिमान मनुष्य को पतन के रास्ते पर ले जाता है ।
रानी तेरो चिर जियो गोपाल
नंदबाबा ब्रज के राजा हैं तो माता यशोदा ब्रज की रानी हैं । गोपियां लाला को आशीर्वाद देते हुए कहती है—
‘रानी ! तेरा गोपाल चिरंजीवी हो । ये जल्दी से बड़ा होकर सुंदर नवयुवक हो । माता ! ये तुम्हारे पुण्यों से तुम्हारी कोख से जन्मा है । ये समस्त ब्रज का जीवनप्राण है, आंख का तारा है; लेकिन शत्रुओं के हृदय का कांटा है । तमाल वृक्ष की तरह इस श्याम-वर्ण श्रीकृष्ण को देख कर मन को कितना सुख मिलता है । इसकी चरण-रज के लगाने से ही ब्रजवासियों के सारे रोग-शोक और जंजाल मिट जाएंगे ।
भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण की संत पीपाजी पर कृपा
परमात्मा प्रेम चाहते हैं । प्रेम में पागल बने बिना वे मिल नहीं सकते । भक्त भगवान को पाने के लिए जितना व्याकुल होता है, भगवान भी उन्हें अपनी शरण में लेने के लिए उससे कम व्याकुल नहीं होते हैं । जिन भक्तों का जीवन प्रभुमय हो, रोम-रोम में भगवान का प्रेम बहता हो, वे भक्त प्रेममय प्रभु की करुणामयी और कृपामयी गोद में बैठने और उनका साक्षात्कार करने के अधिकारी बनते हैं ।
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की शिक्षाओं का सार है ‘शिक्षाष्टक’
प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी श्रीचैतन्य महाप्रभु ने किसी ग्रंथ की रचना नहीं की । इनके मुख से आठ श्लोक ही निकले बताये जाते हैं, जो ‘शिक्षाष्टक’ के नाम से प्रसिद्ध हैं । वैष्णवों के लिए तो यह ‘शिक्षाष्टक’ कंठहार-स्वरूप है ।
भगवान श्रीकृष्ण का सोलह हजार राजकन्याओं के साथ विवाह
ये सोलह हजार राजकन्याएं निराधार होकर भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आईं । भगवान ने सोचा—ये बेचारी अपना जीवन कैसे व्यतीत करेंगी, ये तो बहुत दु:खी हैं । इसलिए भगवान ने निश्चय किया—मैं इन राजकन्याओं के साथ विवाह करुंगा । परमात्मा ने कृष्णावतार में निश्चय किया कि रामावतार में मैं मर्यादा में बंधा था किंतु अब लोग चाहें कुछ भी कहें; मुझे जो उचित लगेगा, वही करना है ।
भगवान श्रीकृष्ण की नरकासुर वध लीला
पुराणों के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरक चतुर्दशी) को भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध कर संसार को भय मुक्त किया था; इसलिए इस दिन हर प्रकार के भय से मुक्ति के लिए भगवान श्रीकृष्ण की इस मंत्र से पूजा-अर्चना करनी चाहिए, इससे मनुष्य नरक का भागी नहीं होता है ।
भगवान जगन्नाथजी का नवकलेवर महोत्सव
जिस साल आषाढ़ महीने में अधिक मास (पुरुषोत्तम मास) या मल मास होता है अर्थात् जिस साल आषाढ़ के दो महीने होते हैं, उस वर्ष भगवान जगन्नाथ का ‘नव कलेवर समारोह’ मनाया जाता है । प्राय: बारह वर्ष के अंतराल में दो आषाढ़ पड़ते हैं; तब भगवान जगन्नाथ नव कलेवर धारण करते हैं ।
भगवान शेषनाग पृथ्वी को क्यों धारण करते हैं ?
हजार फणों वाले शेषनाग भगवान श्रीहरि के परम भक्त हैं । वे अपने एक हजार मुखों और दो हजार जिह्वाओं (सांप के मुख में दो जीभ होती हैं) से सदा भगवान श्रीहरि का नाम जप करते रहते हैं । भगवान शेष सेवा-भक्ति के आदर्श उदाहरण हैं । वे भगवान का पलंग, छत्र, पंखा बन कर श्रीहरि की सेवा करते हैं ।
प्रभु श्रीनाथजी की अत्यंत प्रिय स्तुति
परमात्मा प्रेम चाहते हैं । प्रेम में पागल बने बिना वे मिल नहीं सकते । जिन भक्तों का जीवन प्रभुमय हो, रोम-रोम में भगवान का प्रेम बहता हो, वे भक्त प्रेममय प्रभु की करुणामयी और कृपामयी गोद में बैठने और उनके सखा बनने के अधिकारी बनते हैं ।