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भारतवर्ष संतों और भक्तों की भूमि है । यहां पर भगवान और उनके प्रेमी-भक्तों के परस्पर प्रेम की ऐसी कथाएं पढ़ने को मिलती हैं कि उन पर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है और मन में एक हूक सी उठती है कि काश ! मेरे अंदर भी भगवान के प्रति ऐसा समर्पण, प्रेम और विश्वास जग जाए । 

भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण की संत पीपाजी पर कृपा

एक बार संत पीपाजी अपनी पत्नी सीता देवी के साथ द्वारका गए । भगवान द्वारकाधीश के दर्शन करने के बाद वे समुद्र-तट पर पहुंचे । वहां उन्होंने एक नाव वाले को बुला कर कहा—‘हम सोने की द्वारका देखना चाहते हैं । तुम जानते हो, वह कहां है ?’

नाव वाले ने कहा—‘हां, मैं जानता हूँ, आप लोग नाव में बैठ जाइए ।’

यह सुनकर संत पीपाजी और उनकी पत्नी बड़े प्रसन्न होकर नाव में बैठ गए । नाव जब समुद्र के बीच में पहुंची, तब पीपाजी ने नाव वाले से पूछा—‘कठे द्वारका ?’ अर्थात् द्वारका कहां है ?

नाव वाले ने पानी में हाथ डाल कर कहा—‘अठे द्वारका ।’ अर्थात् द्वारका यहां है ।

ये सुन कर संत पीपाजी और उनकी पत्नी भगवान द्वारकाधीश का ध्यान करते हुए पानी में कूद गए । 

परमात्मा प्रेम चाहते हैं । प्रेम में पागल बने बिना वे मिल नहीं सकते । भक्त भगवान को पाने के लिए जितना व्याकुल होता है, भगवान भी उन्हें अपनी शरण में लेने के लिए उससे कम व्याकुल नहीं होते हैं । जिन भक्तों का जीवन प्रभुमय हो, रोम-रोम में भगवान का प्रेम बहता हो, वे भक्त प्रेममय प्रभु की करुणामयी और कृपामयी गोद में बैठने और उनका साक्षात्कार करने के अधिकारी बनते हैं ।

अपने भक्तों के श्रद्धा-विश्वास को बनाए रखने के लिए भगवान द्वारकाधीश ने अपनी ऐश्वर्य लीला से पानी में सोने की द्वारका बना दी । इसके बाद द्वारकानाथ अपनी अर्धांगिनी रुक्मिणी जी को साथ लेकर भक्त-दम्पत्ति का स्वागत करने के लिए आए और पीपाजी और उनकी पत्नी को सम्मानपूर्वक राजमहल में ले गए । 

द्वारकाधीश के आतिथ्य का आनंद लूटते हुए वे दोनों पति-पत्नी वहां रह कर अपनी गृहस्थी को भी भूल गए । पीपाजी और उनकी पत्नी सात दिन तक दिव्य द्वारका में रहे ।

एक दिन भगवान ने पीपाजी और उनकी पत्नी से पूछा—‘क्या आपको अपने घर की याद नहीं आती है ?’

पीपाजी ने उत्तर दिया—‘प्रभु ! हमारा सच्चा घर तो यही है । मोह-माया से बंधे और मिट्टी-पत्थर से बने कच्चे घर को हम अब क्यों याद करें ?’

भगवान ने कहा—‘आपकी बात सही है; परन्तु आप तो द्वारका की यात्रा पर आए थे । अब यदि आप घर न लौटेंगे तो लोग समझेंगे कि आप लोग समुद्र में डूब गए हैं । मेरे भक्तों के सम्बन्ध में कोई ऐसी-वैसी बात करे, यह मुझसे सहन नहीं होगा । ‘ऐसे भक्त भी डूब गए’ का कलंक जो मेरे ऊपर लगेगा, वह कैसे मिटेगा ? इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप लोग जितनी जल्दी हो सके, अपने घर लौट जाएं । मेरे जिस रूप के दर्शन तुमने किये हैं, उसी में मन को लगा कर, उसी रुपमाधुरी का पान करते हुए तुम घर पर रहोगे तो तुम्हें मेरा विरह नहीं सताएगा ।’

पीपाजी ने भगवान से कहा—‘अच्छी बात है प्रभु ! हम लोग कल ही घर लौट जाएंगे; परन्तु लोग कैसे मानेंगे कि हमने सच्ची द्वारका देखी है ?’

भगवान ने कहा—‘इसके लिए मैं अपने शंख-चक्र की छाप आपकी दाहिनी भुजा पर अंकित कर देता हूँ ।’ 

ऐसा कह कर भगवान ने पीपाजी की दाहिनी भुजा पर अपने शंख-चक्र की छाप अंकित कर दी । रुक्मिणी जी ने पीपाजी की पत्नी को अपनी साड़ी भेंट की ।

दूसरे दिन प्रात:काल पीपाजी और उनकी पत्नी को भगवान द्वारकाधीश और रुक्मिणी जी समुद्र-तट तक छोड़ने आए; लेकिन पीपाजी और उनकी पत्नी समझ न सके कि वे किस मार्ग से समुद्र-तट तक पहुंचे हैं । उनके वस्त्र बिल्कुल सूखे थे; परंतु उनका हृदय भगवान की अहैतुक कृपा से पूरी तरह भीग चुका था । 

जिन लोगों ने उन्हें समुद्र में कूदते हुए देखा था, उन्होंने उनको पहचान लिया । लोग आकर उनके पैरों से लिपट गए । पीपाजी ने भगवान की दी हुई शंख-चक्र की छाप लोगों के शरीर पर लगाई । पीपाजी तो ठहरे भजनानंदी । लोगों की भीड़ बढ़ने से उनके भजन में बाधा होने लगी । अत: दोनों पति-पत्नी द्वारका को छोड़ कर हरि गुन गाते हुए घर की ओर चल दिए—

प्रभुनाम के दो अक्षर में क्या जानें क्या बल है ।
नामोच्चारण से ही मन का धुल जाता सब मल है ।।
गद्गद् होता कण्ठ, नयन से स्त्रावित होता जल है ।
पुलकित होता हृदय ध्यान आता प्रभु का पल-पल है ।।
यही चाह है नाथ ! नाम-जप का तार न टूटे ।
सब छूटे तो छूटे प्रभु का ध्यान कभी नहिं छूटे ।।

भगवान श्रीकृष्ण सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं । उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन द्वारा लोगों को यह बात सिखला दी कि घर ही धर्म, अर्थ, और काम साधना का स्थान है ।

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