प्रबल प्रेम के पाले पड़कर शिव को नियम बदलते देखा ।
उनका मान टले टल जाये, भक्त का बाल-बांका न होते देखा ।।
जब से भगवान हैं, तभी से उनके भक्त हैं और जब से भगवान की कथाएं हैं, तभी से भक्तों की कथा शुरु होती है । बिना भक्तों के अकेले भगवान की कोई कथा-लीला हो ही नहीं सकती; क्योंकि भक्त ही भगवान की लीला के अंग होते हैं ।
मृत्यु को कोई जीत नहीं सकता। स्वयं ब्रह्मा भी चतुर्युगी के अंत में मृत्यु के द्वारा परब्रह्म में लीन हो जाते हैं।लेकिन भगवान शिव ने अनेक बार मृत्यु को पराजित किया है इसलिए वे ‘मृत्युंजय’ और ‘काल के भी काल महाकाल’ कहलाते हैं ।
ईश्वर के प्रिय भक्त का स्वामी ईश्वर ही होता है । उस पर मौत का भी अधिकार नहीं होता है । यमराज भी उस पर जबरदस्ती करे तो मौत (यमराज) की भी मौत हो जाती है । यह प्रसंग कोई काल्पनिक नहीं हैं वरन् महान शिवभक्त राजा श्वेत के जीवन पर आधारित है ।
महान शिवभक्त श्वेतमुनि
प्राचीन काल में कालंजर में शिवभक्त राजा श्वेत राज्य करते थे । उनकी भक्ति से राज्य में अन्न, जल की कमी नहीं थी । राज्य में राग, द्वेष, चिन्ता और अकाल नहीं था । वृद्ध होने पर राजा श्वेत पुत्र को राज्य सौंप कर गोदावरी नदी के तट पर एक गुफा में शिवलिंग स्थापित कर शिव की आराधना में लग गए । अब वे राजा श्वेत से महामुनि श्वेत बन गए थे । उनकी गुफा के चारों ओर पवित्रता, दिव्यता और सात्विकता का राज्य था । निर्जन गुफा में मुनि ने शिवभक्ति का प्रकाश फैलाया था । श्वेतमुनि को न रोग था न शोक; इसलिए उनकी आयु पूरी हो चुकी है, इसका आभास भी उन्हें नहीं हुआ । उनका सारा ध्यान शिव में लगा था । वे अभय होकर रुद्राध्याय का पाठ कर रहे थे और उनका रोम-रोम शिव के स्तवन से प्रतिध्वनित हो रहा था ।
काल के भी काल महाकाल
यमदूतों ने मुनि के प्राण लेने के लिए जब गुफा में प्रवेश किया तो गुफा के द्वार पर ही उनके अंग शिथिल हो गए । वे गुफा के द्वार पर ही खड़े होकर श्वेतमुनि की प्रतीक्षा करने लगे । इधर जब मृत्यु का समय निकलने लगा तो चित्रगुप्त ने मृत्युदेव से पूछा—‘श्वेत अब तक यहां क्यों नहीं आया ? तुम्हारे दूत भी अभी तक नहीं लौटे हैं । ऐसी अनियमितता ठीक नहीं है ?’ यह सुनकर क्रोधित मृत्युदेव स्वयं श्वेत के प्राण लेने के लिए आए । लेकिन गुफा के द्वार पर कांपते हुए यमदूतों ने मृत्युदेव से कहा—‘श्वेत तो अब राजा न रहकर महामुनि हैं, वे शिव के परम भक्त व उनके द्वारा सुरक्षित हो गए है, हम उनकी ओर आंख उठाकर देखने में भी समर्थ नहीं हैं ।‘
मृत्यु उसका क्या कर सकती है जिसने मृत्युंजय की शरण ली है?
मृत्युदेव स्वयं पाश लेकर श्वेतमुनि की कुटिया में प्रवेश करने लगे । श्वेतमुनि उस समय भगवान शंकर की पूजा कर रहे थे । सहसा अपने सामने काले वस्त्र पहने, काले व विकराल शरीर वाले मृत्युदेव को देखकर वे चौंक पड़े और शिवलिंग का स्पर्श कर बोले—‘मृत्युदेव ! आप यहां क्यों पधारे हैं । आप यहां से चले जाइए । जब वृषभध्वज मेरे रक्षक हैं तो मुझे किसी का भय नहीं, महादेव इस शिवलिंग में विद्यमान हैं ।’
मृत्युदेव ने अनसुनी करके कहा—‘मुझसे ग्रस्त प्राणी को ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से कोई भी नहीं बचा सकता । मैं तुम्हें यमलोक ले जाने आया हूँ ।’
श्वेतमुनि ने निर्भयता से शिवलिंग को अंक में भरते हुए कहा—‘तुमने काल के भी काल महाकाल की भक्ति को चुनौती दी है, भगवान उमापति कण-कण में व्याप्त हैं । विश्वासपूर्वक उनको पुकारने पर वे भक्त की रक्षा अवश्य करते हैं ।’
‘मुझे तुम्हारे आराध्य से कोई भय नहीं। तुम कहते हो कि इस लिंग में महादेव हैं पर यह तो निश्चेष्ट है, तब यह कैसे पूज्य है ?’ यह कहकर क्रोधित मृत्युदेव ने हाथ में पाश लेकर श्वेतमुनि पर फंदा डाल दिया ।
शिव की आज्ञा से श्वेतमुनि की रक्षा के लिए उनके समीप भैरव बाबा खड़े थे । उन्होंने मृत्युदेव को वापिस लौट जाने की चेतावनी दी ।
मौत की भी मौत
भक्त पर मृत्यु का यह आक्रमण भैरव बाबा को सहन नहीं हुआ । उन्होंने मृत्युदेव पर डंडे से प्रहार कर दिया जिससे मृत्युदेव वहीं पर ठंडे हो गए ।
कांपते हुए यमदूतों ने यमराज के पास जाकर सारा हाल सुनाया । मृत्युदेव की मृत्यु का समाचार सुनकर क्रोधित यमराज हाथ में यमदण्ड लेकर भैंसे पर सवार होकर अपनी सेना (चित्रगुप्त, आधि-व्याधि आदि) के साथ वहां पहुंचे ।
शिवजी के पार्षद पहले से ही वहां खड़े थे । सेनापति कार्तिकेय ने शक्तिअस्त्र यमराज पर छोड़ा जिससे यमराज की भी मृत्यु हो गयी । यमदूतों ने भगवान सूर्य के पास जाकर सारा समाचार सुनाया ।
अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर भगवान सूर्य ब्रह्माजी व देवताओं के साथ उस स्थान पर आए जहां यमराज अपनी सेना के साथ मरे पड़े थे । देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की ।
‘हमारा प्राकटय विश्वास के ही अधीन है’—यह कहकर भगवान शिव प्रकट हो गए। उनकी जटा में पतितपावनी गंगा रमण कर रही थीं, भुजाओं में फुफकारते हुए सर्पों के कंगन पहन रखे थे, वक्षस्थल पर भुजंग का हार और कर्पूर के समान गौर शरीर पर चिताभस्म का श्रृंगार सुन्दर लग रहा था ।
देवताओं ने कहा—‘भगवन् ! यमराज सूर्य के पुत्र हैं । वे लोकपाल हैं, आपने ही इनकी धर्म-अधर्म व्यवस्था के नियन्त्रक के रूप में नियुक्ति की है । इनका वध सही नहीं है । इनके बिना सृष्टि का कार्य असम्भव हो जाएगा । अत: सेना सहित इन्हें जीवित कर दें नहीं तो अव्यवस्था फैल जाएगी ।’
भगवान शंकर ने कहा—‘मैं भी व्यवस्था के पक्ष में हूँ। मेरे और भगवान विष्णु के जो भक्त हैं, उनके स्वामी स्वयं हम लोग हैं । मृत्यु का उन पर कोई अधिकार नहीं होता । स्वयं यमराज और उनके दूतों का उनकी ओर देखना भी पाप है । यमराज के लिए भी यह व्यवस्था की गयी है कि वे भक्तों को प्रणाम करें ।’
भगवान शिव ने दिया यमराज को प्राणदान
भगवान शिव ने देवताओं की बात मान ली । शिवजी की आज्ञा से नन्दीश्वर ने गौतमी नदी का जल लाकर यमराज और उनके दूतों पर छिड़का जिससे सब जीवित हो उठे । यमराज ने श्वेतमुनि से कहा—‘सम्पूर्ण लोकों में अजेय मुझे भी तुमने जीत लिया है, अब मैं तुम्हारा अनुगामी हूँ । तुम भगवान शिव की ओर से मुझे अभय प्रदान करो ।’
श्वेतमुनि ने यमराज से कहा—‘भक्त तो विनम्रता की मूर्ति होते हैं । आपके भय से ही सत्पुरुष परमात्मा की शरण लेते हैं ।’ प्रसन्न होकर यमराज अपने लोक को चले गए।
शिवजी ने श्वेतमुनि की पीठ पर अपना वरद हस्त रखते हुए कहा—‘‘आपकी लिंगोपासना धन्य है, श्वेत ! विश्वास की विजय तो होती है ।’
श्वेतमुनि शिवलोक चले गए । यह स्थान गौतमी के तट पर मृत्युंजय तीर्थ कहलाता है ।
वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम् ।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्यु: करिष्यति ।।
अर्थात्—जिनके वामदेव, महादेव, विश्वनाथ और जगद्गुरु नाम हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ, मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?