एक बार राक्षसराज रावण कैलास पर्वत पर शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने लगा । जब उसने तप से शिवजी को प्रसन्न होते हुए नहीं देखा, तब वह यज्ञ-वेदी पर अपना मस्तक काट-काटकर चढ़ाने लगा । जब वह अपना अंतिम शीश काटने को उद्यत हुआ तो भगवान शंकर प्रसन्न होकर उसके सामने उपस्थित हो गए ।
भगवान शिव ने रावण को ज्ञान-विज्ञान, अतुल बल, युद्ध में अजेयता और अपने से दुगुने सिर प्रदान किए । भगवान शिव के पांच मुख हैं, इसलिए शिव से दुगुने सिर पाकर रावण दशमुख हुआ । भगवान शिव ने उसे त्रिकूट पर्वत का राजा बना दिया । शिवलिंग की पूजा के फलस्वरूप रावण ने तीनों लोकों को वश में कर लिया । उसने देवताओं और ऋषियों को परास्त कर उन सब पर अपनी प्रभुता स्थापित कर ली ।
इस वर की प्राप्ति से देवगण और ऋषिगण बहुत दुखी हुए । उन्होंने नारदजी से पूछा कि इस दुष्ट रावण से हम लोगों की रक्षा कैसे हो ? नारदजी ने देवताओं को आश्वस्त करते हुए कहा–’मैं इसका उपाय करता हूँ ।’
तब जिस मार्ग से रावण जा रहा था, उसी मार्ग पर वीणा बजाते हुए नारदजी उपस्थित हुए और रावण से बोले–’राक्षसराज ! तुम कहां से आ रहे हो और बहुत प्रसन्न दीख रहे हो ?’
रावण ने सारा वृतान्त सुना दिया । नारदजी ने कहा–’शिव तो उन्मत्त हैं, तुम मेरे प्रिय शिष्य हो, इसलिए कह रहा हूँ, शिव पर विश्वास मत करो । दिए हुए वरदान को प्रमाणित करने के लिए कैलास को उठाओ । यदि तुम उसे उठा लेते हो, तो तुम्हारा प्रयास सफल माना जाएगा ।’
अभिमानी दशानन ने कैलास पर्वत को मूल से उखाड़कर अपने कंधों पर उठा लिया । पर्वत हिलते देखकर शिवजी ने कहा–’यह क्या हो रहा है ?’ तब पार्वतीजी ने हँसते हुए कहा–’आपका शिष्य आपको गुरुदक्षिणा दे रहा है । जो हो रहा है, वह ठीक ही है ।’
यह बलदर्पित अभिमानी रावण का कार्य है, ऐसा जानकर शिवजी ने उसे शाप देते हुए कहा–’अरे दुष्ट ! शीघ्र ही तुझे मारने वाला उत्पन्न होगा ।’ शिवजी ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया । दशानन का कंधा और हाथ पर्वत के नीचे दब गए तो वह जोर-जोर से रुदन करने लगा । पार्वतीजी के कहने पर भगवान ने अपने पैर का अंगूठा पर्वत से उठा लिया । दीर्घकाल तक रुदन करते-करते उसने भगवान शंकर की स्तुति की, जो ‘ताण्डव स्तुति’ के नाम से प्रसिद्ध है । दशानन ने मुक्त होकर ताण्डव किया और कैलास पर यज्ञ किया भगवान शंकर ने दशानन से कहा–’तुम दीर्घकाल तक पर्वत के नीचे दबे रहने के कारण रोते रहे हो इसलिए भविष्य में तुम्हारा नाम रावण होगा ।’
रावण कृत शिव ताण्डव स्तोत्र (हिन्दी अर्थ सहित)
भगवान शिव की स्तुतियों में शिव ताण्डव स्तोत्र का विशेष स्थान है । यह अपनी संगीतमय ध्वनि और प्रवाह के कारण शिव-भक्तों में बहुत लोकप्रिय है । यह स्तोत्र ‘पंचचामर छन्द’ में लिखा गया है ।
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव: शिवम् ।। १ ।।
अर्थात्–जिन्होंने जटारूपी वन से निकली गंगाजी की गिरती हुई धाराओं से पवित्र हुए गले में सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारणकर, डमरु के डम-डम शब्दों से मण्डित प्रचण्ड ताण्डव नृत्य किया, वे भगवान शिव हमारा कल्याण करें ।
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्द्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्र शेखरे रति: प्रतिक्षणं मम ।। २ ।।
अर्थात्—जिनका मस्तक जटारूपी कड़ाह में वेग से घूमती हुई गंगा की चंचल तरंगों से सुशोभित हो रहा है, ललाटाग्नि धक्-धक् जल रही है, सिर पर बाल चन्द्रमा विराजमान है, उन भगवान शिव में मेरा निरन्तर अनुराग (प्रेम) हो ।
धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर-
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्ददुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ।। ३ ।।
अर्थात्—गिरिराजकिशोरी पार्वती के विलासकालोपयोगी सिर के आभूषण से समस्त दिशाओं को प्रकाशित होते देख जिनका मन आनन्दित हो रहा है, जिनकी निरन्तर कृपादृष्टि से कठिन आपत्ति का भी निवारण हो जाता है, ऐसे किसी दिगम्बर तत्त्व में मेरा मन लगा रहे ।
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदम्बकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ।। ४ ।।
अर्थात्—जिनकी जटाओं में स्थित सर्पों के फणों की मणियों से निकली पिंगल प्रभा (भूरापन लिए पीला प्रकाश ) दिशा रूपी देवियों के मुख पर कुंकुम का अनुलेप कर रही है, मतवाले हाथी के हिलते हुए चमड़े का उत्तरीय वस्त्र धारण करने से स्निग्धवर्ण हुए उन भूतनाथ में मेरा चित्त निरन्तर लगा रहे ।
सहस्त्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरांघ्रिपीठभू: ।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटक:
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर: ।। ५ ।।
अर्थात्—जिनकी चरणपादुकाएं इन्द्र आदि देवताओं के प्रणाम करते समय उनके माथे पर लगे कुसुमों की धूलि से धूसरित हो रही हैं; नागराज शेष के हार से बंधी हुई जटा वाले वे भगवान चन्द्रशेखर मेरे लिए चिरस्थायी सम्पत्ति को देने वाले हों ।
ललाटचत्वरज्वलद्धनज्जयस्फुलिंगभा-
निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न: ।। ६ ।।
अर्थात्—जिन्होंने अपनी ललाटाग्नि (तृतीय नेत्र) के तेज से कामदेव को नष्ट कर डाला था, जिसे इन्द्र नमस्कार किया करते हैं, चन्द्रमा की कला के मुकुट से सुशोभित महादेवजी का वह उन्नत और विशाल मस्तक हमें सम्पत्ति देने वाला हो ।
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनज्जयाहुतीकृतप्रचण्डपंचसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पनि त्रिलोचने रतिर्मम ।। ७ ।।
अर्थात्—जिन्होंने अपने विकराल भालप्रदेश पर धक्-धक् जलती हुई अग्नि में कामदेव को हवन कर दिया था, पार्वती के स्तनों पर पत्रभंगरचना करने के एकमात्र कारीगर उन भगवान त्रिलोचन में मेरा ध्यान लगा रहे ।
नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहूनिशीथिनीतम:प्रबन्धबद्धकन्धर: ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुर: ।
कलानिधानबन्धुर: श्रियं जगद्धुरन्धर: ।। ८ ।।
अर्थात्—जिनके कण्ठ में मेघों से घिरी अमावस्या की अर्धरात्रि के घोर अंधकार के समान नीला चिह्न अंकित है; जो गजचर्म लपेटे रहते हैं, वे संसार के भार को धारण करने वाले, चन्द्रमा-सी मनोहर कांति वाले भगवान गंगाधर मेरी सम्पत्ति को बढ़ाएं ।
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा-
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ।। ९ ।।
अर्थात्—जिनके कण्ठ में नीलकमलों की श्याम प्रभा का अनुकरण करने वाली हरिनी की-सी छवि सुशोभित है तथा जो कामदेव, त्रिपुर, भव (संसार), दक्ष-यज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराज का भी अंत करने वाले हैं, उन शिव को मैं भजता हूँ ।
अखर्वसर्वमंगलाकलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ।। १० ।।
अर्थात्—जो अभिमानरहित पार्वतीजी की कलारुप कदम्बमंजरी के मकरन्द का पान करने वाले भ्रमर हैं तथा कामदेव, त्रिपुर, भव (संसार), दक्ष-यज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराज का भी अंत करने वाले हैं, उन शिव को मैं भजता हूँ ।
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डव: शिव: ।। ११ ।।
अर्थात्—जिनके मस्तक पर बड़े वेग के साथ घूमते हुए भुजंग के फुफकारने से लटाटाग्नि धधकती हुई फैल रही है, धिमि-धिमि बजते हुए मृदंग के गम्भीर मंगल नाद पर जिनका प्रचण्ड ताण्डव हो रहा है, उन भगवान शंकर की जय हो ।
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्त्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयो: सुहृद्विपक्षपक्षयो: ।
तृणारविन्दचक्षुषो: प्रजामहीमहेन्द्रयो:
समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ।। १२ ।।
अर्थात्—पत्थर और सुन्दर बिछौनों (शय्या) में, सांप और मोती की माला में, बहुमूल्य रत्न और मिट्टी के ढेले में, मित्र और शत्रु में, तिनके और कमलनयन नवयुवती में, प्रजा और पृथ्वीपति (राजा) में समान भाव रखता हुआ मैं कब सदाशिव को भजूंगा ?
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मति: सदा शिर:स्थमंजलिं वहन् ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नक:
शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ।। १३ ।।
अर्थात्—सुन्दर ललाट वाले भगवान चन्द्रशेखर में दत्तचित्त हो अपने कुविचारों को त्यागकर गंगातट के निकुंजों के भीतर रहता हुआ, सिर पर हाथ जोड़ डबडबायी हुई विह्वल आंखों से ‘शिव’ मन्त्र का उच्चारण करता हुआ मैं कब सुखी होऊंगा ?
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम् ।। १४ ।।
अर्थात्—जो मनुष्य इस प्रकार से इस उत्तमोत्तम स्तोत्र का नित्य पाठ, स्मरण और वर्णन करता रहता है, वह सदा शुद्ध रहता है और शीघ्र ही सुरगुरु भगवान शंकर की उत्तम भक्ति प्राप्त कर लेता है, वह अधोगति को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि भगवान शिव का भक्ति-पूर्वक किया गया चिन्तन प्राणियों के मोह का नाश करने वाला है ।
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
य: शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु: ।। १५ ।।
अर्थात्—सायंकाल में पूजा समाप्त होने पर रावण के गाये हुए इस शम्भु पूजन सम्बन्धी स्तोत्र का जो पाठ करता है, भगवान शंकर उस मनुष्य को रथ, हाथी, घोड़ों से युक्त सदा स्थिर रहने वाली अनुकूल सम्पत्ति देते हैं ।
।। इति श्रीरावणकृतं शिव ताण्डव स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।