शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव सुर-ताल के महान ज्ञाता होने से नृत्यकला के प्रवर्तक थे, इसलिए उन्हें ‘आदि नर्तक’ और ‘नटराज’ कहा जाता है । नटराज शिव द्वारा प्रवर्तित नृत्य के अनेक प्रकार हैं, जिनमें ‘ताण्डव’ (तांडव) सर्वप्रमुख है । पार्वतीजी के साथ विवाह के बाद शिव ने अपने शरीर में इसके दो भाग कर दिए—एक है ताण्डव और दूसरा है लास्य । ताण्डव तो शिव का नृत्य है–उद्धत और आकर्षक; लास्य पार्वतीजी का नृत्य है–सुकुमार तथा मनोहर ।
‘ताण्डव’ नृत्य के सम्बन्ध में कहा जाता है कि—
▪️ भगवान शिव ने प्रजापति दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर डिंडिम, गोमुख, पणव आदि विभिन्न वाद्यों के संग में संन्ध्याकाल में जो नृत्य किया उसे ही ‘ताण्डव’ कहते हैं ।
▪️ कहते हैं भगवान शिव ने त्रिपुरदाह के बाद भी उल्लास-नृत्य ताण्डव किया था ।
भगवान शिव की आज्ञा से उन्हीं के प्रधान गण ‘तण्डु’ ने इन नृत्यों को अभिनय के प्रयोग के लिए भरतमुनि को दिया था । तण्डु मुनि द्वारा प्रचारित यह नृत्य ‘ताण्डव’ नाम से प्रचलित हुआ । शिव के उल्लास-नृत्य में रस और भाव नहीं थे ।
भगवान शिव का उन्मत्त नृत्य है ताण्डव
भगवान शिव इस उल्लास-नृत्य को करते समय अतिशय उन्मत्त हो उठे थे जिसका वर्णन श्रीपुष्पदन्ताचार्य ने ‘शिवमहिम्न: स्तोत्र’ में किया है—
उल्लास के अतिरेक में उनके उन्मुक्त नृत्य से नभमण्डल विक्षुब्ध हो गया था, दिशाएं चटपटा उठीं थीं, धरती धसकने लगी थी । शिवजी के तृतीय नेत्र से अग्नि के कण निकलने लगे । अत: लोकों के जल जाने के भय से वे अपनी दृष्टि को बंद करके निर्बाध नाचते ही गए । उनके पैरों के आघात से पृथ्वी अचानक संकट को प्राप्त हो गयी; आकाशमण्डल के ग्रह-नक्षत्र-तारे उनके घूमते हुए भुजदण्ड की चोट से पीड़ित हो गए । स्वर्ग उनकी खुली व बिखरी जटाओं के किनारों की चोट से बारम्बार दु:खी गया, जब वे पाद-विक्षेप (पैर पटकते) करते थे तो उसके भार से शेषनाग का ऊपरी फण भी चंचल हो जाता था; लेकिन उस समय भी भगवान शंकर के मन में जगत की रक्षा की भावना ही होती है ।
नन्दी भगवान शिव का ताण्डव-नृत्य निर्विघ्न चलने के लिए सभी से प्रार्थना करते हैं–’हे देवताओ, दिक्पतियो ! यहां से कहीं और दूर हट जाओ । जल बरसाने वाले बादलो ! आकाश को छोड़ दो ! पृथ्वी ! तू पाताल में चली जा । पर्वतो ! पृथ्वी के निचले भाग में प्रवेश कर जाओ । ब्रह्मन् ! तुम अपने लोक को कहीं दूर और ऊपर उठा ले जाओ; क्योंकि मेरे स्वामी भगवान शंकर के नृत्य करने के समय में तुम सब संकट रूप हो ।
भगवान शिव को संयत करना आवश्यक समझ भगवती पार्वती ने लास्य-नृत्य किया । ताण्डव-नृत्य भावशून्य था और लास्य-नृत्य रस और भाव से पूर्ण था । इसी ताण्डव एवं लास्य-नृत्य के समन्वय से सृष्टि का विस्तार हुआ ।
शैवग्रन्थों में ताण्डव नृत्य के सात प्रकार बताए गए हैं–आनन्दताण्डव (ललितताण्डव), संध्याताण्डव, कालिकाताण्डव, त्रिपुरताण्डव, गौरीताण्डव, संहारताण्डव और उमाताण्डव ।
भगवान शिव का संध्याताण्डव
भगवान शिव कभी अकेले ‘संध्याताण्डव’ नहीं करते, नृत्य के समय अपनी अर्धांगिनी गौरी को रत्नजड़ित सिंहासन पर बिठा कर ही नटराज शिव प्रतिदिन संध्या-समय नृत्य करते हैं ।
शास्त्रों में उल्लेख है कि नटराज शिव द्वारा संध्याताण्डव के समय ब्रह्मा ताल देते हैं, सरस्वती वीणा बजाती हैं, इन्द्र बाँसुरी और विष्णु मृदंग बजाते हैं, लक्ष्मी गान करती हैं और सभी देवता नृत्य देखते हैं । इस नृत्य में मृदंग, भेरी, पटह, भाण्ड, डिंडिम, पणव, दर्दुर, गोमुख आदि वाद्यों का प्रयोग होता है ।
भगवान शिव नृत्य करने से पूर्व जब अपने इष्टदेव को पुष्पांजलि समर्पित करते हैं तो वह पुष्पांजलि, ‘इनसे बड़ा और कोई वन्दनीय नहीं है’–यह सोचकर शिव के हाथों में लिपटे कंकणरूपी सर्पों की फुंफकार से बिखर कर भगवान शिव के चरणों का ही स्पर्श करती है ।
ऐसा माना जाता है कि नटराज शिव ने पहली बार पृथ्वी पर चिदम्बरम् मन्दिर में संध्या समय ताण्डव नृत्य प्रस्तुत किया था । महाकवि कालिदास ने अपने ‘मेघदूत’ नाटक में उज्जयिनी के महाकाल शिव का सांध्य-नृत्य करने का उल्लेख किया है ।
भगवान शिव का मंगलकारी नृत्य है ताण्डव
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही शिव की नृत्यशाला है । शिव का ताण्डव जगत् के मंगल के लिए, जगत् की सृष्टि के लिए होता है, संहार के लिए नहीं । संसार में पाप-ताप जब चरम सीमा पर पहुंच जाते है और जीव पीड़ा से हाहाकार करने लगता है, तब भगवान शंकर का नृत्य विवश होकर प्रलयंकारी रूप ग्रहण कर लेता है । उनका नृत्य भयंकर है, लेकिन शिवतत्व से शून्य नहीं है । भगवान शंकर का यह नृत्य भी जगत् की रक्षा के लिए होता है क्योंकि वे कल्याण करने वाले हैं । उनके पैरों की थाप से यह धरती अन्न-जल और फल-फूल की उत्पत्ति का कारण बनती है ।
पाणिनी के अनुसार–भगवान शंकर के नृत्य करते समय उनके डमरू के घोष से जो ‘अ इ उ ण् …………..’ इत्यादि चौदह सूत्र निकले, उन्हें सनकादि ऋषियों ने संगृहीत किया और उसी से संस्कृत भाषा की उत्पत्ति हुई ।
शिव की लम्बी जटाएं सदा बंधी रहती हैं, लेकिन जब आसुरी शक्तियों से विश्व त्रस्त हो उठता है, तब सृष्टि के त्राण के लिए वे जटाएं ताण्डव करते समय खुल जातीं हैं ।
संसार में अणु से लेकर बड़ी-से-बड़ी शक्ति में जो स्पन्दन दिखायी पड़ता है, वह उनके नृत्य एवं नाद का ही परिणाम है । भगवान शिव का नृत्य जब प्रारम्भ होता है, तब उनके नृत्य-झंकार से सारा विश्व मुखर और गतिशील हो उठता है और जब नृत्य-विराम होता है, तब समस्त चराचर जगत शान्त और आत्मानन्द में निमग्न हो जाता है । नटराज का नृत्य ही सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह–इन पांच ईश्वरीय क्रियाओं का द्योतक है ।
भगवान शिव का यह अनादि व अनन्त नृत्य केवल उसी जीव को दिखलायी पड़ता है जो मायाजाल से ऊपर उठ चुके हैं ।