भगवान से ज्यादा उनके नाम में शक्ति होती है । आज की आपाधापी भरी जिंदगी में यदि पूजा-पाठ के लिए समय न भी मिले; तो यदि केवल भगवान के नामों का पाठ कर मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है । यह सम्पूर्ण संसार भगवान शिव और उनकी शक्ति शिवा का ही लीला विलास है । पुराणों में भगवान शिव के अनेक नाम प्राप्त होते हैं । इस ब्लॉग में भगवान शिव की लीलाओं, रूप, गुण, धाम, वाहन, आयुध आदि पर आधारित उनके कुछ नामों व उनके अर्थ का वर्णन किया गया है—
भगवान शिव के विभिन्न नाम और उनके अर्थ
‘शिव’ शब्द का अर्थ है ‘कल्याण’ । वेद का कथन है कि जिनमें समस्त वस्तुएं शयन करती हैं, वही ‘शिव’ हैं । संसारिक क्लेशों, पाप-तापों और पीड़ाओं से व्याकुल जीव के दीर्घ निद्रा में विश्राम के लिए भगवान शिव संहार करके प्रलय करते हैं । यह संहार भी भगवान शिव की कृपा ही है क्योंकि महाप्रलय में भगवान सबको अपने स्वरूप में लीनकर परम शांति प्रदान करते हैं ।
शिव ही शंकर कहलाते हैं । ‘शं’ का भी अर्थ है ‘कल्याण’ और कर का अर्थ है–करने वाला, अर्थात् शंकर कल्याण करने वाले हैं । शिव के ‘शम्भु’ नाम का भी यही अर्थ है ।
भगवान शिव के पांच मुख होने से वे ‘पंचवक्त्र और ‘पंचानन’ कहलाते हैं । भगवान शिव के पांच मुखों के पांच नाम हैं–ईशान, अघोर, तत्पुरुष, वामदेव और सद्योजात । समस्त जगत के स्वामी होने के कारण शिव ‘ईशान’ तथा निन्दित कर्म करने वालों को शुद्ध करने के कारण ‘अघोर’ कहलाते हैं । अपनी आत्मा में ही स्थित रहने से वे ‘तत्पुरुष’ और विकारों को नष्ट करने के कारण ’वामदेव’ तथा बालकों के सदृश्य परम स्वच्छ और निर्विकार होने के कारण ‘सद्योजात’ कहलाते हैं ।
शिव का एक नाम ‘रुद्र’ है; क्योंकि वह दीन-दुखियों के दु:ख पर आँसू बहाते हैं तथा पापियों को रुलाते हैं । संहार कर्ता के रूप में उनका उग्र व ‘रुद्र’ रूप सामने आता है । इस रूप में उन्हें ‘चण्ड’, ‘भैरव’, ‘विरुपाक्ष’, ‘महाकाल’ आदि उपाधियां प्रदान की गईं । मत्स्यपुराण में शिव के इस रूप को साक्षात् ‘मृत्यु’ कहा गया है । इस रूप में उनके अनुचर दानव, दैत्य, यक्ष और गंधर्व रहते हैं ।
जैसे प्राणी कढ़ी-भात मिलाकर खा लेता है, वैसे ही संहार काल में समस्त सांसारिक प्रपंच को मिलाकर खाने वाले शिव मृत्यु के भी मृत्यु हैं । कण्ठ में कालकूट विष और गले में शेषनाग को धारण करने से उनकी ‘मृत्युज्जयता’ स्पष्ट होती है; इसलिए ‘मृत्युंजय’ कहलाते हैं । शिव काल के भी काल है; अत: ‘महाकाल’ या ‘महाकालेश्वर’ हैं ।
मनुष्य संसार में बहुत दु:ख भोगता है जिनसे छुटकारा केवल प्रलय में ही मिलता है। शिव प्रलय के समय माता-पिता के समान सबको सुला देते हैं, सबके दु:खों को हर लेते हैं, अत: वे ‘हर’ कहलाते हैं और सभी को प्रलय के समय अपने स्वरूप में लीन कर परम शान्ति प्रदान करते हैं; इसलिए ‘सदाशिव’ कहे जाते हैं ।
पार्वती के पति होने से शिव ‘उमापति’, ‘गिरिजापति’, ‘पार्वतीपति’ ‘उमामहेश्वर’ व कहलाते हैं ।
भगवान शिव गृहस्थों के ईश्वर और विवाहित दम्पत्तियों के उपास्य देव हैं । उनका अर्धनारीश्वररूप स्त्री और पुरुष की पूर्ण एकता की अभिव्यक्ति हैं; इसलिए वे ‘अर्धनारीश्वर’ कहलाते हैं ।
सभी सत्वगुण उन्हीं से प्रकट हैं, अत: वह सत्त्वगुण के समान स्वच्छ ‘कर्पूर-गौर’ हैं ।
वह पापियों को आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक शूल (पीड़ा) देते हैं, इसलिए ‘त्रिशूलधारी’ हैं । प्रलयकाल में उनके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं रहता है । ब्रह्माण्ड श्मशान हो जाता है, उसकी भस्म और रुण्ड-मुण्ड में वही व्यापते हैं; शरीर पर भस्म का अवलेपन करते है । अत: ‘भस्मनाथ’, ‘चिता-भस्मालेपी’ और ‘रुण्ड-मुण्डधारी’ कहे जाते हैं ।
सोम-सूर्य-अग्निरूप तीन नेत्र होने से वे ‘त्र्यम्बकेश्वर’ व ‘त्रिनेत्र’ कहे जाते हैं । वह भूत, भविष्य और वर्तमान–तीनों को जानते हैं, इसी से ‘त्रिनयन’ कहलाते हैं।
वृष का अर्थ है धर्म; शिवजी वृषभ पर चढ़ने वाले जाने जाते हैं अर्थात् धर्मात्माओं के हृदय में निवास करते हैं, वह धर्मारूढ़ हैं, इसी से ‘वृषवाहन’ हैं।
शिव के भयंकर व सौम्य दोनों ही रूप हैं । पुराणों में शिव के भयंकर रूप के अंतर्गत ‘कपाली’ रूप का वर्णन है जिसमें वे हाथ में कपाल का कमण्डलु लिए हुए हैं । उनके इस रूप की आकृति भयावह है । उनकी जिह्वा और दृंष्ट्रा बाहर निकली हुई हैं । वे भीषण हैं । वस्त्रहीन होने से उन्हें ‘दिगम्बर’ कहा जाता है ।
भगवान शिव ने हरिचरणामृतरूपा गंगा को जटाजूट में बांध लिया, अत: वे ‘गंगाधर’ कहलाए ।
कालकूट विष को अपनी योगशक्ति से आकृष्ट कर कण्ठ में धारण करके ‘नीलकण्ठ’ और ‘नीलग्रीवी’, व ‘नीलशिखण्डी’ कह लाए ।
उसी समय उस विष की शान्ति के लिए देवताओं के अनुरोध पर चन्द्रमा को अपने ललाट पर धारण कर लिया और ‘चन्द्रशेखर, शशिशेखर’ कहलाए । भगवान शिव के मस्तक पर चन्द्रकला और गंगा–ये दोनों फायर-ब्रिगेड हैं जोकि उनके तीसरे नेत्र अग्नि और कण्ठ में कालकूट विष–इन दोनों को शान्त करने के लिए शीतल-तत्त्व हैं ।
कैलास पर निवास करने के कारण कैलासपति, ‘गिरिचर’, ‘गिरिशय’ नाम से वे जाने जाते हैं ।
शिव गजचर्म धारण करते हैं; इसलिए ‘कृतिवासा’ कहे जाते हैं ।
ब्रह्मा से लेकर स्थावरपर्यन्त सभी जीव पशु माने गए हैं, अत: उनको अज्ञान से बचाने के कारण वे ‘पशुपति’ कहलाते हैं ।
शिवजी के उपासकों में उनका ‘महाभिषक्’ नाम अत्यन्त प्रिय है ।
देवों के देव होने के कारण उनकी ‘महादेव’ नाम से निरन्तर उपासना होती रही है ।
भगवान शिव का ‘सहस्त्राक्ष’ नाम उनकी प्रभुता का प्रतीक है ।
सभी विद्याओं एवं भूतों के ईश्वर हैं, अत: ‘महेश्वर’ कहलाते हैं ।
भगवान शिव को ‘पुष्टिवर्धन’ भी कहा जाता है । यह नाम पुष्टि, पोषण और उनकी अनुग्रह शक्ति का द्योतक है ।
पुराणों के अनुसार शिव और विष्णु एक-दूसरे की अन्तरात्मा हैं और निरन्तर एक-दूसरे की पूजा, स्तुति व उपासना में संलग्न रहते हैं। भगवान शिव ने अपना आधा शरीर विष्णु का माना । तभी से वे ‘हरिहर’ रूप में पूजे जाते हैं ।
तामस से तामस असुर, दैत्य, यक्ष, भूत, प्रेत, पिशाच, बेताल, डाकिनी, शाकिनी, सर्प, सिंह–सभी जिन्हें पूजते हैं; इसलिए शिव ‘परमेश्वर’ और ‘भूतेश’ कहे जाते हैं ।
पुराणों में भगवान शिव को विद्या का प्रधान देवता कहा गया है; इसलिए उन्हें ‘विद्यातीर्थ’ और ‘सर्वज्ञ’ भी कहा जाता है ।
भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था; इसलिए वे ‘मदनजित्’ कहलाते हैं ।
लिंग रूप में पूजे जाने के कारण ‘लिंगमूर्ति’ कहे जाते हैं।
त्रिपुरासुर का वध करने के कारण शिव ‘त्रिपुरारि’ और ‘त्रिपुरान्तक’ कहलाते हैं ।
शीघ्र प्रसन्न होने के कारण वे ‘भोलानाथ’, ‘भोले’ व ‘आशुतोष’ नाम से जाने जाते हैं ।
शिवपुराण में शिव के निराकार एवं विराट् रूप का वर्णन मिलता है; इसलिए शिव का एक नाम ‘अष्टमूर्ति’ है । इन अष्टमूर्तियों के नाम इस प्रकार हैं–शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, महादेव एवं ईशान । ये अष्टमूर्तियां क्रमश: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य व चन्द्रमा को अधिष्ठित करती हैं । इनसे समस्त चराचर का बोध होता है ।
इनके अतिरिक्त शिव ‘गिरित्र’, ‘क्षेत्रपति’, ‘वणिक्’ ‘खण्डपरशु’, ‘आदिनाथ’, ‘पिनाकधारी’, ‘प्रमथाधिप’, ‘शूली’, ‘ईश्वर’, ‘मृड’, ‘श्रीकण्ठ’, ‘शितिकण्ठ’, ‘धूर्जटि’, ‘नीललोहित’, ‘स्मरहर’, ‘व्योमकेश’, ‘स्थाणु’, ‘भावुक’, ‘भाविक’, ‘भव्य’, ‘कुशलक्षेम’ आदि नामों से भी जाने जाते हैं । यजुर्वेद (१६।४१) में भगवान शंकर की विभिन्न नामों से स्तुति की गयी है–
‘नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च ।’
अर्थात–कल्याण एवं सुख के मूल स्त्रोत भगवान शिव को नमस्कार है । कल्याण के विस्तार करने वाले तथा सुख के विस्तार करने वाले भगवान शिव को नमस्कार है । मंगलस्वरूप और मंगलमयता की सीमा भगवान शिव को नमस्कार है ।