shani dev

इन्द्रनीलद्युति: शूली वरदो गृध्रवाहन:।
बाणबाणासनधर: कर्तव्योऽर्कसुतस्तथा।।

अर्थात्–सूर्यपुत्र शनिदेव के शरीर की कान्ति इन्द्रनीलमणि की-सी है। वे गीध पर सवार होते हैं और हाथ में धनुष-बाण, त्रिशूल और वरमुद्रा धारण किए रहते हैं।

दण्डाधिकारी (न्यायाधीश) हैं शनिदेव

शनिदेव दण्डनायक ग्रह हैं। मनुष्य हो या देव, पशु हो या पक्षी, राजा हो या रंक; प्राणी का कर्म इस जन्म का हो पूर्वजन्म का–सबके लिए उनके कर्मानुसार दण्ड का निर्णय शनिदेव ही करते हैं। शनिदेव का सम्बन्ध नियम, नैतिकता व अनुशासन से है। इनकी अवहेलना करने पर शनि कुपित हो जाते हैं और जीवन से सुख-चैन, खुशी व आनन्द को दूरकर दरिद्रता, दु:ख, कष्ट, झंझट व बाधाएं आदि प्रदान करते हैं। यदि शनि का दण्ड मिलते-मिलते प्राणी स्वयं में सुधार कर लेता है तो सजा की अवधि समाप्त होने पर वह उसे अपार धन-दौलत, वैभव, ऐश्वर्य, दीर्घायु और दार्शनिक चिन्तन शक्ति प्रदान करते हैं।

शनि की पीड़ा दूर करने के लिए हनुमानजी की उपासना, सूर्यपूजा, शनिचालीसा का पाठ, पीपल की पूजा, नीलम व काले घोड़े की नाल की अंगूठी धारण करना आदि उपाय किए जाते हैं; किन्तु इन सबसे अधिक प्रभावशाली एक उपाय है जिससे शनि की पीड़ा से मुक्ति मिल जाती है, वह है राजा दशरथ द्वारा की गई शनिदेव की स्तुति का पाठ।

राजा दशरथ द्वारा शनि पर संहारास्त्र का संधान करना

पद्मपुराण की कथा के अनुसार एक बार राजा दशरथ को ज्योतिषियों ने बताया कि शनिदेव रोहिणी को भेद कर आगे जाने वाले हैं जिसे शकटभेद योग कहते हैं। इस कारण पृथ्वी पर बारह वर्ष का अकाल पड़ेगा। राजा दशरथ ने वशिष्ठऋषि आदि ब्राह्मणों से इससे बचने का उपाय पूछा परन्तु सबने यही कहा कि यह योग असाध्य है। इस योग के आने पर प्रजा पानी और अन्न के बिना तड़प-तड़प कर मर जाएगी। प्रजा को कष्ट से बचाने के लिए राजा दशरथ अपने दिव्य अस्त्र व धनुष लेकर नक्षत्रमण्डल में गए। वहां उन्होंने पहले तो प्रतिदिन की तरह शनिदेव को प्रणाम किया फिर शनिदेव को लक्ष्य करके अपने धनुष पर संहारास्त्र का संधान (निशाना लगाना) किया।

राजा दशरथ के पौरुष व साहस से शनिदेव का प्रसन्न होकर वर देना

राजा दशरथ के साहस को देखकर शनि ने कहा–मेरी दृष्टि में आकर देव-दैत्य सब भस्म हो जाते हैं, किन्तु तुम बच गए। तुम्हारे साहस और पुरुषार्थ से मैं प्रसन्न हूं, वर मांगो। राजा दशरथ ने कहा–आप कभी शकटभेदन न करें और पृथ्वी पर कभी बारह वर्षों का अकाल न पड़े। इसके बाद राजा दशरथ ने शनि की स्तुति की–

राजा दशरथ द्वारा की गयी शनिदेव की स्तुति

नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम:।।
नमो निर्मांसदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै पुन:।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते।।
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नम:।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने।।
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च।।
अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तु ते।।
तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:।।
ज्ञानचक्षु नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज सूनवे।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्।।
देवासुर मनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगा:।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।
प्रसादं कुरु मे देव वरार्होऽहमुपागत:।। (पद्मपुराण, उ. ३४।२७-३५)

दशरथ स्तोत्र का हिन्दी अर्थ

जिनके शरीर का वर्ण कृष्ण, नील तथा भगवान शंकर के समान है, उन शनिदेव को नमस्कार है। जो जगत के लिए कालाग्नि एवं कृतान्तरूप हैं, उन शनैश्चर को बारम्बार नमस्कार है। जिनका शरीर कंकाल है तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई हैं, उन शनिदेव को प्रणाम है। जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट और भयानक आकार है, उन शनैश्चर को नमस्कार है। जिनके शरीर का ढांचा फैला हुआ है, जिनके रोएं बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े, किन्तु सूखे शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरूप हैं, उन शनैश्चर को बारम्बार नमस्कार है। शनिदेव! आपके नेत्र खोखले के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर, रौद्र, भीषण और विकराल हैं। आपको नमस्कार है। बलीमुख! आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं; आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन! भास्करपुत्र! अभय देने वाले देवता! आपको प्रणाम है। नीचे की ओर दृष्टि रखने वाले शनिदेव! आपको नमस्कार है। संवर्तक! आपको प्रणाम है। मन्दगति से चलने वाले शनैश्चर! आपका प्रतीक तलवार के समान है, आपको पुन:-पुन: प्रणाम है। आपने तपस्या से अपने देह को दग्ध कर लिया है; आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सदा नमस्कार है। ज्ञाननेत्र! आपको प्रणाम है। कश्यपनन्दन सूर्य के पुत्र शनिदेव! आपको नमस्कार है। आप संतुष्ट होने पर राज्य सुख दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्काल छीन लेते हैं। देवता, असुर, मनुष्य,सिद्ध, विद्याधर और नाग–ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं। देव! मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।

शनिदेव ने स्वयं बताया अपनी पीड़ा से मुक्ति का उपाय

राजा दशरथ ने शनिदेव से कहा कि आप किसी को पीड़ा न पहुंचायें। शनिदेव ने कहा–यह वर असंभव है क्योंकि जीवों के कर्मानुसार सुख-दु:ख देने के लिए ही ग्रहों की नियुक्ति हुई है; किन्तु मैं तुम्हें वर देता हूँ कि जो तुम्हारी इस स्तुति को पढ़ेगा, वह पीड़ा से मुक्त हो जाएगा।

शनिदेव ने राजा दशरथ को पुन: वर देते हुए कहा–‘किसी भी प्राणी के मृत्युस्थान, जन्मस्थान या चतुर्थस्थान में मैं रहूं तो उसे मृत्यु का कष्ट दे सकता हूँ; किन्तु जो श्रद्धायुक्त होकर पवित्रता से मेरी लोहप्रतिमा का शमीपत्रों से पूजन करेगा और तिल मिले हुए उड़द-भात, लोहा, काली गौ या काला बैल ब्राह्मण को दान करता है और मेरे दिन (शनिवार) को हाथ जोड़कर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे मैं कभी पीड़ा नहीं दूंगा। गोचर में, जन्मलग्न में, दशाओं में तथा अन्तर्दशाओं में ग्रहपीड़ा को दूर करके मैं उसकी सदा रक्षा करुंगा। इसी उपाय से सारा संसार मेरी पीड़ा से मुक्त हो सकता है।’

शनिदेव द्वारा स्वयं बताए गए उपायों को करके मनुष्य शनि की पीड़ा से मुक्त हो सकता है। जो लोग संस्कृत में स्तोत्र पाठ करने में असमर्थ हैं, वे हिन्दी में स्तोत्रपाठ कर सकते हैं। एकाग्रता से, श्रद्धा से व पवित्रता से की गयी हिन्दी में स्तुति का भी वही फल प्राप्त होता है जो संस्कृत में पाठ करने से होता है।

क्या शनि पीड़ा को कम किया जा सकता है?

इन उपायों के द्वारा साध्य पापकर्म के फल-भोग से तो मुक्ति मिल जाती है और दु:ख में कुछ कमी आ जाती है, किन्तु असाध्य पाप-कर्मों के फल-भोग में पूजा-पाठ, जप-तप भी अपना पूरा प्रभाव नहीं दिखा पाते। उन्हें तो भोगना ही पड़ता है। वे मनुष्य में सहनशक्ति दे देते हैं जिससे दु:ख ज्यादा महसूस नहीं होता।

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