देवाधिदेव महादेव और शैलपुत्री पार्वती के विवाह के बाद दीर्घकाल तक दोनों निर्जन वन में विहार करते रहे । एक दिन पार्वतीजी ने भगवान शंकर से कहा–’मैं एक श्रेष्ठ पुत्र चाहती हूँ ।’ भगवान शंकर ने पार्वतीजी को ‘पुण्यक’ नामक महान पुण्य देने वाले व्रत के बारे में बताते हुए कहा–’इस व्रत से तुम्हें संसार में विख्यात पुत्र प्राप्त होगा।’
पार्वतीजी ने पुण्यक व्रत करने का निश्चय करके सभी सामग्रियों को एकत्र करने के लिए ब्राह्मणों व दास-दासियों को लगा दिया। शुभ मुहुर्त में व्रत आरम्भ करके पूरे वर्ष वे श्रद्धा के साथ व्रत करती रहीं।
पुरोहित सनत्कुमार ने मांगी अस्वाभाविक दक्षिणा
व्रत की समाप्ति पर पुरोहित सनत्कुमार ने पार्वतीजी से दक्षिणा देने को कहा । पार्वतीजी ने कहा–’मैं तुम को मुंहमांगी दक्षिणा दूंगी ।’ पुरोहित सनत्कुमार ने कहा–’इस व्रत में दक्षिणास्वरूप मुझे अपने पति को दे दो ।’
पुरोहित के व्रजपात के समान कठोर वचन सुनकर पार्वतीजी बेहोश हो गयीं।
दक्षिणा रहित कर्म हो जाते हैं निष्फल
पार्वतीजी के होश में आने पर भगवान शंकर ने उन्हें समझाते हुए कहा–’देवकार्य, पितृकार्य अथवा नित्य-नैमित्तिक जो भी कर्म दक्षिणा रहित होता है, वह निष्फल हो जाता है। ब्राह्मण को संकल्प की हुई दक्षिणा उसी समय न देने से वह बढ़कर कई गुनी हो जाती है।’
ब्रह्माजी ने भी पार्वतीजी से कहा–’या तो तुम दक्षिणा में अपने पति को प्रदान करो या अपने कठोर तप का फल भी त्याग दो।’
पुरोहित सनत्कुमार ने भी पार्वतीजी से कहा–’दक्षिणा न मिलने पर मैं तुम्हारे समस्त कर्मों का फल प्राप्त कर लूंगा।’
पार्वतीजी ने कहा–’दक्षिणा देने से धर्म और पुत्र की प्राप्ति से मेरा क्या हित होगा? स्त्री के लिए पति सौ पुत्रों के समान होता है । पुत्र पति का ही वंश होता है किन्तु उसका मूल तो पति ही होता है । मूलधन के नष्ट होने पर तो सारा व्यापार ही विनष्ट हो जाएगा ।’
भगवान नारायण ने पार्वतीजी को समझाते हुए कहा–’शिवप्रिया पार्वती का यह व्रत लोकशिक्षा के लिए है, वे तो स्वयं ही समस्त व्रतों व तपस्याओं का फल देने वाली हैं । शिवे ! इस समय तुम अपने पति महादेव को दक्षिणा में देकर अपना व्रत पूर्ण कर लो । गौओं की भांति शिव भी विष्णु के शरीर हैं; अत: तुम पुरोहित को गोमूल्य देकर अपने पति को लौटा लेना।’
पार्वतीजी ने हवन की पूर्णाहुति की और अपने प्राणनाथ शिव को पुरोहित को दक्षिणा रूप में दे दिया। दक्षिणा देने के बाद पार्वतीजी ने पुरोहित से कहा–’गौ का मूल्य मेरे पति के बराबर है। अत: मैं आपको एक लाख सुन्दर गाएं प्रदान करुंगी, आप मेरे पति को लौटा दें।’
पुरोहित ने पार्वतीजी से कहा–’मैं ब्राह्मण हूँ । मैं एक लाख गौएं लेकर क्या करुंगा । इस दुर्लभ रत्न (शिवजी) के सामने इन गौओं की क्या तुलना ? मैं इन दिगम्बर को अपने साथ लेकर त्रिलोकी में घूमूंगा । बच्चे इन्हें देखकर ताली बजा-बजाकर हंसेंगे ।’
पार्वतीजी की छटपटाहट और भगवान श्रीकृष्ण का वरदान
कोमलहृदया पार्वतीजी पुरोहित की बात सुनकर बिना जल की मछली की भांति छटपटाने लगीं । पार्वतीजी सोचने लगीं–‘मैंने यह कैसी मूर्खता की, पुत्र के लिए एक वर्ष तक पुण्यक व्रत करने में इतना कष्ट भोगा पर फल क्या मिला? पुत्र तो मिला ही नहीं, पति को भी खो बैठी। अब पति के बिना पुत्र कैसे होगा?’
वे व्रत के आराध्य श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगीं–’परमात्मन् ! इस व्रत में अपने पति की दक्षिणा दी जाती है, यह अत्यन्त कठोर कार्य है; मैं पुत्र-दु:ख से दु:खी होकर आपकी स्तुति कर रही हूँ और आपके ही समान पुत्र प्राप्त करना चाहती हूँ ।’
तभी एक प्रभा-पुंज के अंदर अत्यन्त रूप-लावण्य से युक्त ललाट पर चंदन की खौर लगाये, मस्तक पर मयूरपिच्छ धारण किए अद्भुत पीताम्बर, वनमाला और करकमलों में मुरली धारण किए भगवान श्रीकृष्ण ने दर्शन दिए और कहा–’समस्त कर्मों को प्रदान करने वाली माता ! आप नित्यस्वरूपा सनातनी देवी होकर भी लोकशिक्षा के लिए पूजा और तपस्या करती हैं । प्रत्येक कल्प में गोलोकवासी श्रीकृष्ण ही गणेश के रूप में आपके अंक में प्रकट होकर खेलते हैं ।’
सभी देवताओं के समझाने पर सनत्कुमार ने दिगम्बर शिव को उनकी प्राणेश्वरी शिवा को लौटा दिया।