bhagwan shiv, bhagwan krishna

भक्तों को आनन्द और शिक्षा देने के लिए होती है भगवान की लीला

इस कथा को लिखने का उद्देश्य पाठकों को यह बताना है कि भगवान विष्णु और शंकर में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं । भगवान शंकर और विष्णु वास्तव में दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति हैं । जल एक ही है, सिर्फ घड़े दो हैं । इसी भाव को लोगों तक पहुंचाने के लिए भगवान शंकर ने अपने भक्त नरहरि सुनार के साथ एक लीला की । भगवान जब कोई लीला करते हैं तो उसके पीछे कोई महान शिक्षा या आदर्श छिपा रहता है और भक्तों को उससे आनन्द मिलता है ।

नरहरि सुनार : शिव भक्त पर विष्णु द्रोही

पुराने समय में पण्ढरपुर में नरहरि सुनार नाम के ऐसे शिव भक्त हुए जिन्होंने पण्ढरपुर में रहकर भी कभी पण्ढरीनाथ श्रीपाण्डुरंग के दर्शन नहीं किए । उनकी ऐसी विलक्षण शिवभक्ति थी । लेकिन भगवान को जिसे अपने दर्शन देने होते हैं, वे कोई-न-कोई लीला रच ही देते हैं ।

भगवान की लीला से एक व्यक्ति इन्हें श्रीविट्ठल (भगवान विष्णु) की कमर की करधनी बनाने के लिए सोना दे गया और उसने भगवान की कमर का नाप बता दिया । नरहरि ने करधनी तैयार की, पर जब वह भगवान को पहनाई गयी तो वह चार अंगुल बड़ी हो गयी । उस व्यक्ति ने नरहरि से करधनी को चार अंगुल छोटा करने को कहा । करधनी सही करके जब दुबारा श्रीविट्ठल को पहनाई गयी तो वह इस बार चार अंगुल छोटी निकली । फिर करधनी चार अंगुल बड़ी की गयी तो वह भगवान को चार अंगुल बड़ी हो गयी । फिर छोटी की गयी तो वह चार अंगुल छोटी हो गयी । इस तरह करधनी को चार बार छोटा-बड़ा किया गया ।

आंखों पर पट्टी बांधकर नरहरि ने लिया भगवान का नाप

लाचार होकर नरहरि सुनार ने स्वयं चलकर श्रीविट्ठल का नाप लेने का निश्चय किया । पर कहीं भगवान के दर्शन न हो जाएं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली । हाथ बढ़ाकर जो वह मूर्ति की कमर टटोलने लगे तो उनके हाथों को पांच मुख, दस हाथ, सर्प के आभूषण, मस्तक पर जटा और जटा में गंगा—इस तरह की शिवजी की मूर्ति का अहसास हुआ । उनको विश्वास हो गया कि ये तो उनके आराध्य भगवान शंकर ही हैं ।

उन्होंने अपनी आंखों की पट्टी खोल दी और ज्यों ही मूर्ति को देखा तो उन्हें श्रीविट्ठल के दर्शन हुए । फिर आंखें बंद करके मूर्ति को टटोला तो उन्हें पंचमुख, चन्द्रशेखर, गंगाधर, नागेन्द्रहाराय श्रीशंकर का स्वरूप प्रतीत हुआ ।

आंखें बंद करने पर शंकर, आंखें खोलने पर विट्ठल

तीन बार ऐसा हुआ कि आंखें बंद करने पर शंकर और आंखें खोलने पर नरहरि सुनार को विट्ठल भगवान के दर्शन होते थे । तब नरहरि सुनार को आत्मबोध हुआ कि जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल हैं, वे ही शंकर हैं, दोनों एक ही हरिहर हैं ।

अभी तक उनकी जो भगवान शंकर और विष्णु में भेदबुद्धि थी, वह दूर हो गयी और उनका दृष्टिकोण व्यापक हो गया । अब वे भगवान विट्ठल के भक्तों के ‘बारकरी मण्डल’ में शामिल हो गए । सुनार का व्यवसाय करते हुए हुए भी इन्होंने अभंग (भगवान विट्ठल या बिठोवा की स्तुति में गाए गए छन्द) की रचना की । इनके एक अभंग का भाव कितना सुन्दर है—

‘भगवन् ! मैं आपका एक सुनार हूँ, आपके नाम का व्यवहार (व्यवसाय) करता हूँ । यह गले का हार देह है, इसका अन्तरात्मा सोना है । त्रिगुण का सांचा बनाकर उसमें ब्रह्मरस भर दिया । विवेक का हथौड़ा लेकर उससे काम-क्रोध को चूर किया और मनबुद्धि की कैंची से राम-नाम बराबर चुराता रहा । ज्ञान के कांटे से दोनों अक्षरों को तौला और थैली में रखकर थैली कंधे पर उठाए रास्ता पार कर गया। यह नरहरि सुनार, हे हरि ! तेरा दास है, रातदिन तेरा ही भजन करता है ।’

शिव-द्रोही वैष्णवों को और विष्णु-द्वेषी शैवों को इस कथा से सीख लेनी चाहिए ।

पद्मपुराण पा ११४।१९२ में भगवान शंकर विष्णुजी से कहते हैं—

न त्वया सदृशो मह्यं प्रियोऽस्ति भगवन् हरे ।
पार्वती वा त्वया तुल्या न चान्यो विद्यते मम ।।

अर्थात्—औरों की तो बात ही क्या, पार्वती भी मुझे आपके समान प्रिय नहीं है ।

इस पर भगवान विष्णु ने कहा—‘शिवजी मेरे सबसे प्रिय हैं, वे जिस पर कृपा नहीं करते उसे मेरी भक्ति प्राप्त नहीं होती है ।’कूर्मपुराण में ब्रह्माजी ने कहा है—‘जो लोग भगवान विष्णु को शिवशंकर से अलग मानते हैं, वे मनुष्य नरक के भागी होते हैं ।’

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here