जग में सुख-दुख, लाभ-हानि, चिरजीवन-मृत्यु, मान-अपमान ।
सभी तुम्हारे खेल, सभी में भरे तुम्हीं, मेरे भगवान ।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
दु:ख के रूप में भगवान ही आते हैं
जब तक मनुष्य को सफलता, धन, कीर्ति, परिवार व समाज में मान-सम्मान मिलता है; तब तक वह भगवान की ओर ताकता तक नहीं है । मनुष्य का संसार से अपनत्व व मोह-ममता को मिटाने के लिए भगवान कृपा करके ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे उसे इन सबसे मुक्ति मिल जाए । अपनी स्नेहपूरित गोद में लेने के लिए ही भगवान उसे जगत से निराश करते हैं । इसलिए निन्दा, दीनता, दु:ख, अभाव, बदनामी, तिरस्कार और अपमान की स्थिति में मनुष्य को भगवान की कृपा का ही अनुभव करना चाहिए ।
रोग-शोक, धन-हानि, दु:ख, अपमान घोर, अति दारुण क्लेश ।
सबमें तुम, सब ही है तुममें, अथवा सब तुम्हारे ही वेश ।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
राजा बलि भगवान के भक्त थे । बलि ने जब देवताओं को भी जीत लिया तो उन्हें विजय रूपी अहंकार से बचाने के लिए भगवान ने उन पर कृपा की । भगवान ने उनका राज्य व ऐश्वर्य हर लिया ताकि राजा बलि भगवान की ओर लग जाएं । राजा बलि ने स्वयं यह स्वीकार किया कि भगवान ने उन पर बड़ी कृपा की है; क्योंकि भगवान राजा बलि के दरवाजे पर हर समय पहरेदार बन कर खड़े हैं ।
श्रीमद्भागवत (८।२२) में राजा बलि के पितामह (दादा) प्रह्लाद जी ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा—
‘भगवन् । आपने बलि का ऐश्वर्य और इंद्रत्व छीनकर उस पर बड़ी कृपा की है । लक्ष्मी के मद में बड़े-बड़े मोहित हो जाते हैं, आपकी कृपा से आज वह आत्मा को मोहित करने वाली राज्यश्री से अलग हो गया है ।’
दु:ख में भगवान की कृपा का अनुभव कैसे करें ?
संसार का यह नियम ही है कि लोग सफलता के साथ चलते हैं और असफलता की गंध लगते ही धीरे-धीरे सरक जाते हैं; फिर ढूंढ़ने पर भी उनका पता नहीं मिलता । उस समय मनुष्य को केवल भगवान ही दीखते हैं ।
श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में अवधूत ने चील से यही शिक्षा ली—
जहां तक चील की चोंच में मांस का टुकड़ा है, वहीं तक कौए-चील उसके पीछे-पीछे उड़ते हैं । जहां चील की चोंच से मांस का टुकड़ा गिरा कि सब उससे दूर भाग जाते हैं ।
इसी तरह जीवन में मान नहीं रहे, धन नहीं रहे, यश, स्वास्थ्य, मकान, नौकर-चाकर न रहें, खाने को न रहे तो फिर कौन पास आयेगा ? लेकिन बुद्धिमान वही है जो यह सोचे कि भगवान ने थोड़ी सी कृपा कर दी जो मुझे जगत के सारे प्रलोभनों से दूर कर दिया । अब तो समय-ही-समय है, अब अपना जीवन भगवान में ही लगाएंगे ।
दु:ख को कम करने के लिए करें ये उपाय
▪️ हर समय ‘हरि शरणम्’ का जाप करने से मन को बहुत शान्ति मिलती है और दु:ख का आभास नहीं होता है ।
▪️ यदि चित्त बहुत घबराए तो श्रीमद्भागवत के आठवें स्कन्ध के तीसरे अध्याय (गजेन्द्र मोक्ष) का पाठ नित्य आर्त भाव से करें ।
▪️भगवान में चित्त लगाकर गीता के (१८।५८) की इस पंक्ति को बार-बार दोहराएं—‘मच्चित: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि’ अर्थात्—‘मुझमें चित्त लगाने पर तू मेरी कृपा से सारे संकटों से पार हो जाएगा।’ भगवान के इन वचनों पर विश्वास करने से विपत्ति नाश होते देर नहीं लगेगी।
▪️ सभी प्राणी ईश्वर का अंश हैं । अत: विषाद करके भगवान का अपमान नहीं करना चाहिए । सावन-भादों में काले-काले बादलों की बड़ी घनघोर घटा आती है, फिर थोड़ी ही देर में आकाश साफ हो जाता है । इसी तरह विपत्ति के बादल भी हट जाएंगे । अत: मन में यही पंक्तियां दोहराते रहें—
दो दर्शन चाहे जैसा भी दु:ख-वेष धारण कर, नाथ ।
जहां दु:ख वहां देख तुम्हें, मैं पकडूंगा जोरों के साथ ।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
▪️ विपत्ति से डरने से विपत्ति का दु:ख बढ़ता है । मन निराशा में डूब जाता है । भगवान का भेजा हुआ जैसा भी समय आए, सिर चढ़ाकर भगवान को याद करते हुए हिम्मत तथा संतोष के साथ उसे निभाना चाहिए । विपत्ति में घबराने से विपत्ति बढ़ती है । विपत्ति की परवाह न करके भगवान की कृपा के भरोसे परिश्रम करने से विपत्ति नष्ट हो जाती है । भविष्य को निराशामय देखना तो भगवान पर अविश्वास करना है । इसलिए बहुत प्रसन्न रहना चाहिए और भगवान की कृपा पर विश्वास रखना चाहिए ।
अपने भले-बुरे का पूरा दे दो प्रभु को ही अधिकार ।
जीवन में होने दो सब स्वच्छन्द उन्हीं के मन-अनुसार ।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
▪️ सदैव यह अनुभव करें कि भगवान मेरे आस-पास ही हैं, दु:ख की इस घड़ी में उन्होंने मुझे अपनी गोद में उठा रखा है—
संकट की प्रत्येक घड़ी में रहते हैं वे मेरे पास ।
हर लेते संकट तत्क्षण ही, जैसे रवि करता तम नाश ।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
▪️ दु:ख के समय का कोई साथी नहीं होता बल्कि लोग तरह-तरह की बातें बनाकर दु:ख को और बढ़ा देते हैं । ऐसी स्थिति में यह याद रखें कि निन्दा करने वाले तो बिना पैसे के धोबी हैं, हमारे अन्दर जरा भी मैल नहीं रहने देना चाहते । ढूंढ़कर हमारे जीवन के एक-एक दाग को साफ करना चाहते हैं । वे तो हमारे बड़े उपकारी हैं जो हमारे पाप का हिस्सा लेने को तैयार हैं ।
अंत में सबसे श्रेष्ठ उपाय भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार के शब्दों में—
रहो सदा प्रभु के शरणागत, प्रभु के लिये करो सब काम ।
रहो अचल सत्पथ पर, ले के रहो सदा श्रीहरि का नाम ।।
प्रभु-आश्रय के साथ रहेगा जहां नित्य सत्कर्मोत्साह ।
विजय, विभूति, कीर्ति, श्री, निश्चित नीति रहेंगी वहां अथाह ।।