mahabharat karan arjun

एक प्रसिद्ध कहावत है कि ‘स्त्रियों के पेट में कोई बात नहीं पचती है ।’ यह केवल कहावत नहीं है वरन् सच्चाई है जिसका वर्णन महाभारत के शान्तिपर्व में है ।

कुन्ती, कर्ण और युधिष्ठिर से है इस कहावत का सम्बन्ध

महाभारत युद्ध के समाप्त होने पर युद्ध में मारे गये सभी स्वजनों को धर्मराज युधिष्ठिर तिलांजलि दे रहे थे । रोती हुई माता कुन्ती ने उनसे अनुरोध किया—‘बेटा ! कर्ण को भी जलांजलि दो ।’

युधिष्ठिर ने मां की विनती अस्वीकार करते हुए कहा—‘मां ! वह सूतपुत्र सदा हमसे द्वेष करता रहा । वह हमारे गोत्र का भी नहीं है, हम उसे जल (तर्पण) नहीं देंगे ।’ 

यह सुनकर कुन्ती के सब्र का बांध टूट गया । उन्होंने युधिष्ठिर को कर्ण के जन्म का परिचय देते हुए कहा—‘तुम नहीं जानते, वे तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता थे ।’

यह सुन कर युधिष्ठिर अत्यन्त शोकाकुल हो गये और रुंधे गले से बोले—‘हाय ! यह बात हम पहले जानते तो इतना अनर्थ क्यों होता ? हम उनके चरणों में हस्तिनापुर का सिंहासन निवेदित करके स्वयं सेवक बन जाते । हमने अपने ही ज्येष्ठ भ्राता को मार डाला । मां ! तूने यह बात मुझसे पहले क्यों नहीं कही ?’ 

शोक से व्याकुल कुन्ती युधिष्ठिर को समझाते हुए बोली—‘युद्ध आरम्भ होने से पहले मैं सूर्यपुत्र कर्ण के पास गयी थी । वे उस समय जल में खड़े होकर सन्ध्या कर रहे थे । 

आहट पाकर जब ध्यान कर्ण ने खोला,
कुन्ती को सम्मुख देख वितन हो बोला,
पद पर अन्तर का भक्ति-भाव धरता हूँ,
राधा का सुत मैं, देवि ! नमन करता हूँ ।

कर्ण ने अपने को ‘राधेय’ (पालने वाली मां राधा का पुत्र) और ‘अधिरथनन्दन’ (पालने वाले पिता सारथी अधिरथ का पुत्र) कहकर मुझे प्रणाम किया । मैंने कर्ण को बताया कि वह मेरा (कुन्ती) और सूर्य का पुत्र है । भगवान सूर्य ने भी स्पष्ट बोल कर कहा कि वह सूर्य और कुन्ती का पुत्र है, लेकिन कर्ण ने पिता अधिरथ के उपकारों को याद करके इस सत्य को मानने से इन्कार कर दिया और स्पष्ट कह दिया—

जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी  ।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर ।
क्या तुम्हें कर्ण से काम ? सुत है वह तो,
माता के तन का मल, अपूत है वह तो ।
तुम बड़े वंश की बेटी, ठकुरानी हो,
अर्जुन की माता, कुरूकुल की रानी हो ।
मैं नाम-गोत्र से हीन, दीन, खोटा हूँ,
सारथीपुत्र हूँ मनुज बड़ा छोटा हूँ ।
ठकुरानी ! क्या लेकर तुम मुझे करोगी ?
मल को पवित्र गोदी में कहाँ धरोगी ?
है कथा जन्म की ज्ञात, न बात बढ़ाओ,
मन छेड़-छेड़ न मेरी पीड़ा उकसाओ ।
हूँ खूब जानता, किसने मुझे जना था,
किसके प्राणों पर मैं दुर्भार बना था ।
सो धन्य हुईं तुम देवि ! सभी कुछ पा कर,
कुछ भी न गँवाया तुमने मुझे गँवा कर ।

माता कुन्ती युधिष्ठिर को बताती हैं कि मैंने कर्ण से अनुरोध किया कि वे पाण्डवों के पक्ष में आ जाए परन्तु कर्ण ने स्पष्ट कहा—

है वृथा यत्न हे देवि ! मुझे पाने का,
मैं नहीं वंश में फिर वापस जाने का ।
दी बिता आयु सारी कुलहीन कहा कर,
क्या पाऊँगा अब उसे आज अपना कर ?
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
मैने हिम्मत से काम लिया ।
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे ढूँडने आया है ।

साथ ही कर्ण ने किसी भी प्रकार दुर्योधन का पक्ष छोड़ने से इन्कार करते हुए कहा—

कुरूपति का मेरे रोम-रोम पर ऋण है,
आसान न होना उससे कभी उऋण है ।
मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब उसे तोल सकता है धन ।
धरती की तो है क्या बिसात ?
आ जाय अगर बैकुण्ठ हाथ,
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ ।

कुन्तीजी आगे कहती हैं कि कर्ण ने मुझसे वचन ले लिया था कि मैं इस बात को छिपाये रहूंगी—

मेरी यह जन्मकथा गोपन,
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए ।
जैसे हो इसे छिपा रहिए,
वे इसे जान यदि पाएँगे ।
सिंहासन को ठुकराएँगे,
साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे ।
सारी संपत्ति मुझे देंगे,
मैं भी ना उसे रख पाऊँगा ।
दुर्योधन को दे जाऊँगा,
पांडव वंचित रह जाएँगे ।
दुख से न छूट वे पाएँगे ।।

माता कुन्ती का आदर करने के लिए कर्ण ने प्रतिज्ञा की कि युद्ध में अर्जुन के अतिरिक्त किसी और पाण्डव को मारने में समर्थ होकर भी वह उन्हें नहीं मारेगा, इसीलिए उसने अपनी प्रतिज्ञा का अंत तक निर्वाह किया ।’

धर्मराज युधिष्ठिर ने संसार की समस्त स्त्रियों को दिया शाप

माता कुन्ती की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर के नेत्रों में आंसू भर आये फिर उन्होंने दु:खी होकर कहा—

‘मां ! तुमने यह बात छिपा कर हमारे हाथों बहुत बड़ा अनर्थ करा डाला । मैं संसार की सब स्त्रियों को शाप देते हुए कहता हूँ कि अाज से संसार में कोई भी स्त्री गुप्त बात छिपा कर नहीं रख सकेगी ।’ 

इसके बाद युधिष्ठिर ने विधिवत् कर्ण की अन्त्येष्टि क्रिया की ।

नोट : कुन्ती और कर्ण के प्रसंग का बहुत सुन्दर वर्णन महान कवि श्रीरामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपने खण्डकाव्य ‘रश्मिरथी’ में किया है । अत: लेख को और भावपूर्ण बनाने के लिए इसके पद्य का भाग ‘रश्मिरथी काव्य-संग्रह’ से लिया गया है ।

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