‘मुरली! कौन तप तैं कियो’
श्रीकृष्ण अवतारी पूर्ण पुरुष हैं। श्रीकृष्ण के साथ नाद या शब्द अथवा ध्वनि का पूर्ण अवतार उनके वेणु रूप में हुआ। श्रीकृष्ण की वंशी का मधुर निनाद ही नादावतार था। इसी वंशी ध्वनि ने ब्रज में जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कर दिया। इस वंशी-ध्वनि ने न केवल मनुष्यों को, अपितु ब्रह्मा, विष्णु और महेश को भी प्रभावित किया।
वंशी को बांसुरी, मुरली और संस्कृत में वेणु भी कहते हैं। ‘व’ अर्थात ब्रह्म, ‘इ’ अर्थात सुख तथा ‘णु’ अर्थात् अणु, अर्थात जिसके स्वर के सम्मुख ब्रह्मसुख भी तुच्छ प्रतीत हो, वह है वेणु।
श्रीकृष्ण को वंशी इतनी प्रिय क्यों है?
श्रीकृष्ण और वंशी की इतनी अभिन्नता है कि कृष्ण के नाम के पहले वंशी का नाम जुड़ा है। जहां वंशी है वहां वंशीधर हैं, जहां मुरली है वहां मुरलीमनोहर, मुरलीधर हैं, जहां वेणु है वहां वेणुगोपाल हैं। यह वंशी उनकी संगिनी है, सहचरी है। वे इससे एक क्षण भी विलग नहीं होते हैं।
श्रीमद्भागवत के अनुसार, वृन्दावन निवास में श्रीकृष्ण कभी वंशी से अलग नहीं हुए। गौचारण के समय या वन भोजन के समय में भी वंशी या तो उनके अधरों पर रही या उनके कमरबंध में रहती थी।
गोपियों को आश्चर्य हुआ कि इस वेणु ने कौन-सा व्रत, जप, उपवास किया है कि पुरुष जाति (बांस) का होकर भी श्रीकृष्ण के अधरसुधारस का पान स्वयं ही करता है, हमारे लिये कुछ भी नहीं बचेगा। यह सौत जैसा व्यवहार कर रहा है। सौत तो नारी होती है पर यह पुरुष जाति की सौत है। एक गोपी ने कहा–
मुरली हम कौं सौति भई।
नैकु न होति अधर तैं न्यारी, जैसैं तृषा डई।।
गोपियों को मुरली से सौतिया डाह उत्पन्न हो गया है। वे मुरली की तानाशाही से दुखी हैं। यह मुरली कृष्ण के अधरों की शय्या पर लेटकर हमारे श्यामसुंदर से अपने पैर पलोटवाती है। गोपियां कहती हैं–
अब कान्ह भये बस बाँसुरिके, अब कौन सखि! हमकों चहिहैं।
वह रात दिना सँग लागी रहै, यह सौत को शासन को सहिहै।।जिन मोह लियौ मन मोहनकौ, रसखानि सु क्यों न हमें दहिहै।
मिलि आओ सबै कहुँ भाजि चलें, अब तो ब्रज में बँसुरी रहिहै।।
गोपियां कहती हैं–यह मुरली बहुत ठगनी है, पर एक उपाय है, ना रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी–
‘करिये उपाय बाँस डारिए कटाय, नाही उपजैगो बाँस नाहि बाजेगी बासुँरी।’
गोपियाँ यहां तक कहतीं हैं कि बंशी का पूरा जीवन ही विरोधाभासी है। जैसे–बांस के वंश में पैदा होकर भी हमें हमारे वंश से दूर कर देती है (बंशी की मधुर तान सुनकर गोपियां सम्मोहित हो जाती हैं और घर के सब काम छोड़कर श्रीकृष्ण से मिलने चली जाती हैं, जिससे उनके पति नाराज हो जाते हैं)। यह नदी के तीर पर पैदा होकर भी तीर-सी ताने रहती है। इसको वेधा गया (इसमें छेद किये गये) पर यह हमारे हृदय को बेधती रहती है। इसकी हरियारी सूख गयी है पर इसने हरि (कृष्ण) की यारी नहीं छोड़ी है। स्वयं हरि की होकर हमारे प्राण सुखाती रहती है। अधरामृत पीकर भी विष ही बोरना जानती है।
गोपियां कृष्ण को धमकी देती हैं–
हम ब्रज बसिहें तो बांसुरी बसे ना ब्रज।
बांसुरी बसावों तो कान्ह हमें विदा कीजिये।।
एक दिन गोपियों ने मुरली से पूछ ही लिया–
मुरली! कौन तप तैं कियो।
रहत गिरधर मुखहि लागी, अधर को रस पियो।।नंदनंदन पानि परसे तोहि तन मन दियो।
सूर श्रीगोपाल बस किय, जगत में जस लियो।।मुरली कौन तप तैं कियो।
अब मुरली ने भी कहा–गोपियो! तुम हमारी तपस्या को नहीं समझती। मैंने तप, बलिदान, समर्पण, हृदय की शून्यता सब कुछ सहा है। मैं कठोर कुठार से काटी गयी, आरी से छाँटी गयी, एक नहीं सात-आठ छिद्र किये गये। मैं एक पोली बांस हूँ, अन्दर कोई भी गांठ नहीं है। मेरे से जो राग रागिनी का मधुर स्वर निकलता है, वह सब भगवान के मुख से स्फुरित होकर निकलता है। उनकी प्रेरणा के बिना मैं शुष्क बांस की जड़ नली हूँ। मैं पूर्णत: अहंशून्य हूँ इसीलिए श्रीकृष्ण का मुझपर अभेद प्रेम है।यह था वेणु का समर्पण।
तप हम बहुत भाँति करयो।
हेम बरिखा सही सिर पर घाम तनहिं जरयो।।काटि बेधी सप्त सुरसों हियो छूछो करयो।
तुमहि बेगि बुलायबे को लाल अधरन धरयो।।इतने तप मैं किये तबही लाल गिरधर बरयो।
सूर श्रीगोपाल सेवत सकल कारज सरयो।।
मुरली से हमें यही शिक्षा मिलती है कि मनुष्य को अंहकार छोड़कर श्रीकृष्ण के चरणों की शरणागति लेनी चाहिए।
very good
आपका ब्लाग आपकी प्रभु श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति की गहराई की असीमता को दर्शाता है मन को प्रफ्फुलित कर देता है ऐसा लगता है कि प्रभु श्री की लीला आंको के सामने चल रही हो, इस ब्लॉग को पढ़ना मेरे लिए सौभाग्य की बात है आपका सादर धन्यवाद।
वैभव अग्रवाल
ठाकुर हमरे रमण बिहारी हम है रमण बिहारी के कोईही भला कहे चाहे बुरा कहे हम तो रमण बिहारी के