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भगवान का ‘मुरारी’ नाम कैसे पड़ा ?

वामन पुराण के अनुसार प्राचीन काल में कश्यप ऋषि का औरस पुत्र ‘मुर’ नाम का एक असुर था । असुरों का स्वभाव होता है देवताओं से लड़ना । असुरों ने कई बार देवताओं से युद्ध किया, परन्तु जीत सदैव देवताओं की हुई; क्योंकि जहां भगवान का आश्रय हो, जीत वहीं होती है । बार-बार हारने से असुर बलहीन हो गए । मुर दैत्य ने सोचा कि कहीं देवता हमें मार ही न दें; इसलिए मरने के डर से भयभीत होकर उसने बहुत काल तक ब्रह्माजी की तपस्या की । उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने को कहा ।

मुर ने कहा—‘जो मैं मांगूं, उसे आप दें तो मैं अपनी बात कहूँ ।’

ब्रह्माजी ने कहा—‘तुम्हारी तपस्या से मैं कृतज्ञ हूँ, तुम जो मांगोगे, वह मैं दूंगा ।’

मुर ने कहा—‘मैं युद्धक्षेत्र में या कहीं भी अपनी हथेली जिसके शरीर पर रख दूँ, वह मर जाए; चाहे वह अमर ही क्यों न हो ?’ 

देवता अमर होते हैं; इसलिए यह बात मुर ने देवताओं के लिए कही थी । असुरों की बुद्धि माया से मोहित होती है, इसलिए वे विनाश ही मांगते हैं । 

ब्रह्माजी ने ‘तथाऽस्तु’ कह दिया । मुर दैत्य वर पाकर त्रिभुवन में घूमा; परन्तु किसी की भी हिम्मत उससे युद्ध करने की नहीं हुई । 

मुर दैत्य ने सोचा—यमराज ही सबको मारने वाला है, अतएव सबसे पहले उसी को मारना चाहिए । सो वह यमराज के पास पहुंचा ।  

यमराज ने बुद्धिमानी से काम लेते हुए कहा—‘मैं तो निर्बल हूँ, मुझसे तुम क्या लड़ोगे ? तुम्हें लड़ना ही है तो मैंने सुन रखा है कि वैकुण्ठ में जो नारायण है, वह बहुत बलवान है । देवताओं को सारा बल वहीं से प्राप्त होता है । उनको तुम समाप्त कर दो, तो तुम्हारी जीत सदा के लिए हो जाएगी ।’

मुर दैत्य को बात समझ आ गई । वह तुरंत वैकुण्ठ लोक पहुंच गया और भगवान नारायण के पास जाकर खड़ा हो गया । 

भगवान ने उससे कहा—‘तुम यहां किस काम से आए हो ?’

मुर दैत्य ने कहा—‘मैं तुमसे युद्ध करने आया हूँ ।’

मुर की बात सुनकर भगवान नारायण ने कहा—‘तुम आए हो मुझसे लड़ने के लिए, परन्तु जैसे किसी को ज्वर हो जाए तो उसका कलेजा कांपता है; उसी प्रकार तुम्हारा कलेजा क्यों कांप रहा है ? मैं तुम्हारे जैसे डरपोक से नहीं लड़ता ।’

मुर दैत्य ने कहा—‘तुम मुझे डरपोक कहते हो, मेरा कलेजा कहां कांप रहा है ?’

भगवान ने कहा—‘तुम हाथ लगाकर देखो, कांप रहा है या नहीं ?’

मुर ने जैसे ही कलेजे पर हाथ रखा, वह जैसे केले की जड़ कट कर गिर जाती है, वैसे ही पृथ्वी पर गिर पड़ा । गिरते ही भगवान ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया । सभी देवता वहां आकर भगवान की जय-जयकार कर कहने लगे—‘आपने सबको बचा लिया, नहीं तो यह दैत्य किसी को छोड़ता नहीं ।’

उस दिन से भगवान का नाम ‘मुरारी’ (मुरारि) हो गया—‘मुरारि’ अर्थात् मुर के शत्रु, मुर को मारने वाले ।

भगवान श्रीकृष्ण को ‘मुरारी’ क्यों कहते हैं ?

यहां यह शंका होनी स्वाभाविक है कि मुरारी तो भगवान नारायण थे; फिर श्रीमद्भागवत के ‘वेणुगीत’ में गोपियों ने श्रीकृष्ण को ‘मुरारी’ क्यों कहा है ? इसके कई कारण हैं—

▪️श्रीकृष्ण के नामकरण संस्कार में गर्गाचार्यजी ने यशोदा माता और नंदबाबा से कहा था कि—‘यह बालक नारायण ही है और यह युग-युग में रंग परिवर्तित करता है । सत्य युग में यह श्वेत वर्ण का और त्रेता युग में रक्त वर्ण का था; किंतु इस समय द्वापर युग में यह मेघश्याम रूप धारण करके आया है । अत: इसका नाम अब ‘कृष्ण’ होगा ।’ यशोदा माता ने गोपियों को यह बात बता दी थी; इसलिए गोपियां वेणुगीत में श्रीकृष्ण को मुरारी नाम से सम्बोधित करती हैं; क्योंकि जिस प्रकार नारायण ने मुर दैत्य का नाश कर देवताओं को निश्चिन्त किया; उसी प्रकार श्रीकृष्ण हमारे मुरों—क्लेश, संताप, कर्मफलभोग आदि का नाश करने वाले हैं । गोपियां कहती हैं—हमारी जो संसार की कामना है जिसके कारण आज हम यहां बंधी हैं; श्रीकृष्ण हमारी उन वासनाओं को, हमारे क्लेश, संताप और विरह-ताप को मिटा दीजिए और अपने ‘मुरारी’ नाम को सार्थक कीजिए ।

▪️भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन को गोपनीय रहस्य बताते हुए कहा—‘हे अर्जुन ! समस्त सृष्टि का आदि कारण मैं ही हूँ । संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मुझसे रहित हो । जगत में जहां-जहां वैभव, तेज, लक्ष्मी दीखती है, वह सब मेरी विभूति का अंश समझो । समस्त ब्रह्माण्ड को मेरे एक अंश ने घेर रखा है (गीता १०। ३९-४१-४२)।’

‘मैं चार स्वरूप धारण करके सदैव समस्त लोकों की रक्षा करता रहता हूँ—

—मेरी एक मूर्ति इस भूमण्डल पर बदरिकाश्रम में नर-नारायणरूप में तपस्या में लीन रहती है ।

—दूसरी परमात्मारूप मूर्ति अच्छे-बुरे कर्म करने वाले जगत को साक्षीरूप में देखती रहती है ।

—तीसरी मूर्ति मनुष्यलोक में अवतरित होकर नाना प्रकार के कर्म करती है ।

—चौथी मूर्ति (विष्णु) सहस्त्रों युगों तक एकार्णव (क्षीरसागर) के जल में शयन करती है । जब मेरा चौथा स्वरूप योग-निद्रा से उठता है, तब भक्तों को अनेक प्रकार के वर प्रदान करता है ।

इन सब कारणों से भगवान नारायण और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है; इसलिए दोनों को ही मुरारी कहा जाता है ।

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