shri krishna

भगवान कितने सुन्दर हैं, यह तो कोई उनके भक्तों से पूछे । एक भक्त कहता है—

जाहिं देखि चाहत नहीं कछु देखन मन मोर ।
बसै सदा मोरे दृगनि सोईं नन्दकिशोर ।।

तो दूसरा भक्त कैसे पीछे रह सकता है । वह भी भगवान के नवीन मेघ की सी अंगकान्ति वाले, द्विभुज, मुरलीमनोहर, गोपवेष रूप को देखकर अपने भाव इस प्रकार व्यक्त करता है—

कन्हैया की आंखें हिरन-सी नशीली ।
कन्हैया की श़ोखी कली-सी रसीली ।।
कन्हैया की छबि दिल उड़ा लेने वाली ।
कन्हैया की सूरत लुभा लेने वाली ।।
कन्हैया की हर बात में एक रस है ।
कन्हैया का दीदार सीमीं क़फ़ है ।। (हजरत ‘नफीस खलीली’)

गोपियां इन सब भक्तों से ऊपर हैं । उन्हें तो श्रीकृष्ण की सुन्दरता देखने के लिए अपने दो नेत्र ही कम पड़ते हैं । वे आपस में कहती हैं—‘जब से यह नंदनंदन की शोभा देखी है तब से विधाता बड़ा ही निष्ठुर दिखाई पड़ रहा है । नंदनंदन के नेत्र, नासिका, वाणी, कान, नख, अंगुली, बाल, ललाट सब इतने सुन्दर हैं कि हमारे प्रत्येक रोम में वह आंखें देता तब कहीं ऐसे सुन्दर श्रीकृष्ण को देखते बनता ।’

राजा जनक जैसे विदेही, जिनका विरागी मन चौबीस घंटे ब्रह्म-समाधि में लीन रहता, वह भी श्रीराम-लक्ष्मण के रूप-सौंदर्य को देखते ही अनुरागी बन गया—

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ।। (राचमा १।२१६।५)

श्रीशुकदेवजी जैसे जन्म के विरागी का हृदय श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी के इस श्लोक को सुनकर ही पिघल गया—

बर्हापीडं नटवरवपु: कर्णयो: कर्णिकारं,
बिभ्रद् वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै-
र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति: ।। (श्रीमद्भागवत १० । २१ । ५)

अर्थात्–श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं । उनके सिर पर मयूरपिच्छ है और कानों पर कनेर के पीले-पीले पुष्प; शरीर पर सुनहला पीताम्बर और गले में पाँच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी वैजयन्ती माला है । रंगमंच पर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नट का-सा क्या ही सुन्दर वेष है । बाँसुरी के छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहे हैं । उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्ति का गान कर रहे हैं । इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिह्नों से और भी रमणीय बन गया है ।

मधुसूदन सरस्वती, नारद आदि और भी न जाने कितने ज्ञानी-ध्यानी बूढ़ों का मन परमात्मा के रूप में ऐसा फंसा कि वे निर्गुण को भूल कर सगुण के उपासक बन गए ।

प्रश्न यह है कि भगवान का रूप इतना सुन्दर क्यों होता है ? क्या भगवान का शरीर भी हम लोगों की भांति पंचभूतों से बना होता है ? जब मनुष्य ईश्वर का अंश है तो हमारा, आपका—संसारिक प्राणियों का ऐसा रूप क्यों नहीं है ? 

इसका उत्तर है कि मानव शरीर माता-पिता के रज-वीर्य से पैदा होता है, वैसे भगवान का शरीर पैदा नहीं होता है । मनुष्य का जो रूप है वह सामान्य पंचभूतों व पंचतन्मात्राओं से पैदा होता है और अनित्य होता है ।

भगवान का चिन्मय स्वरूप

भगवान का जन्म और शरीर दोनों ही दिव्य होते हैं । उनका शरीर पांचभौतिक तत्वों से नहीं बना होता है । भगवान अपने शरीर को धारण करने के लिए लीला-शक्ति से दिव्यातिदिव्य सत्त्वगुणी तन्मात्राओं को उत्पन्न करते हैं । उन्हीं से भगवान अपने श्रीविग्रह को प्रकट करते हैं । उसमें इतना आकर्षण होता है मानो अनन्त आनन्द व साक्षात् दिव्य प्रेम ही मूर्तिमान होकर प्रकट हो गया है । यह रूप ज्ञानियों के मन को भी अपनी ओर खींच लेता है ।

भगवान का शरीर कैसा होता है ? 

सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्तयादि हेतवे ।
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नम: ।। (श्रीमद्भागवत १।१)

भगवान का विग्रह सच्चिदानन्दमय होता है । सत्, चित् और आनंद–ये तीन शब्द हैं । ‘सत्’ का अर्थ है जो सदा से था, सदा है और सदा ही रहेगा । ‘चित्’ माने चेतनस्वरूप, ज्ञानस्वरूप अर्थात् जो सब कुछ जानता है और आनंद अर्थात् जहां आनंद ही आनंद है, अविनाशी सुख है । ‘सत्’ से भगवान का अवतारी शरीर बनता है, ‘चित्’ से उनके शरीर में प्रकाश होता है और ‘आनन्द’ से उनके शरीर में आकर्षण होता है । 

भगवान का शरीर मनुष्यों की तरह हड्डी, मांस, रुधिर आदि का नहीं होता है; बल्कि अवतार की लीला के समय वे अपने चिन्मय शरीर को पांचभौतिक शरीर की तरह दिखा देते हैं । भक्त के भावों के अनुसार भगवान को भूख भी लगती है, प्यास भी लगती है, नींद भी आती है और सर्दी-गर्मी और भय भी लगता है; किन्तु भगवान का विग्रह पाप-पुण्यरहित व रोगरहित होता है ।  वास्तव में भगवान का दिव्य शरीर केवल आनन्दमय होता है; इसीलिए भगवान के आनन्दमय रूप के दर्शन से भक्तों को परमानन्द और शांति प्राप्त होती है । 

परमात्मा श्रीकृष्ण का परमानन्द अवतार

परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परमानन्द-कन्द के रूप में प्रकट हुए । भगवान श्रीकृष्ण का जैसा रूप है, वैसा रूप संसार में किसी का नहीं है । भौतिक दृष्टि से भगवान श्रीकृष्ण का जो शरीर है, उतना सुन्दर, उतना बलिष्ठ, उतना सुगठित शरीर सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक न किसी का हुआ और न आगे किसी का होने की सम्भावना है । शरत्पूर्णिमा के निर्मल, शीतल अमृत की वर्षा करने वाले अगणित चन्द्रमा भी जिनकी अंगकान्ति के सामने फीके हो जाते हैं ऐसे नीलमणि आभा के समान श्रीकृष्ण हैं । उनका मोहन रूप ऋषियों के मन को, गुरुजनों के मन को, भक्तों के मन को, श्रुतियों के, देवकन्याओं के तथा स्वयं ब्रह्मविद्या के मन को एवं संसार की समस्त नारियों के मन को, शत्रुओं के मन को और स्वयं उनके अपने मन को भी मोहित करने वाला है ।

श्रीकृष्ण की सुन्दरता स्वयं उन्हें मोहित कर लेती थी । वे अपने प्रतिबिम्ब को नंदभवन के किसी मणि-स्तम्भ या दर्पण में देख लेते तो अपने रूप पर स्वयं मोहित हो जाते थे । 

ऐसा माना जाता है कि सभी दिव्य गुणों और भूषणों—मुकुट, किरीट, कुण्डल आदि ने युग-युगान्तर, कल्प-कल्पान्तर तक तपस्या कर भगवान को प्रसन्न किया । भगवान बोले—‘वर मांगो।’

गुणों और आभूषणों ने कहा—‘प्रभो ! आप हमें अंगीकार करें और हमें धारण कर लें । यदि आप हमें स्वीकार नहीं करेंगे तो हम ‘गुण’ कहने लायक कहां रह जाएंगे ? आभूषणों ने कहा—‘यदि आप हमें नहीं अपनाएगें तो हम ‘भूषण’ नहीं ‘दूषण’ ही बने रहेंगे ।’ भगवान ने उन सबको अपने विग्रह में धारण कर लिया ।  

मानव गहने-कपड़े इसलिए पहनता है कि वह सुन्दर लगे; परन्तु करोड़ों कामदेवों को भी लजाने वाली सुन्दरता और कमनीयता तो श्रीकृष्ण, श्रीराम के शरीर में पहले से ही है । ये आभूषण तो उनकी सुन्दरता को ढकते ही हैं ।

एक कथा के अनुसार एक बार माता यशोदा श्रीकृष्ण का सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से श्रृंगार कर रहीं थीं । परन्तु वे वस्त्राभूषण पहनावें फिर उतार दें, फिर पहनावें, फिर उतार दें । गोपियों ने यह देखा तो वे मैया से बोली–’क्या तुम आज पगली हो गयी हो, जो बार-बार कन्हैया को वस्त्र-आभूषण पहनाती हो और बार-बार उतार देती हो ।’ 

माता यशोदा ने गोपियों से कहा—‘जब मैं इन वस्त्र-आभूषणों को कन्हैया को पहनाती हूँ तो मेरे नीलमणि की सुन्दरता घट जाती है । बिना कुछ पहनाए कन्हैया सुन्दर दिखता है–‘सुन्दरता को पार न पावति रूप देखि महतारी ।’

गोपियों ने कहा–’कन्हैया को कपड़े पहनाओ, ठीक है परन्तु यह तो भूषण का भूषण है, अलंकार का अलंकार है, शोभा की भी शोभा है । किसी चीज से इसकी शोभा हो जाए यह ऐसा नहीं है ।’ 

श्रीकृष्ण के सौन्दर्य को देखकर मथुरा की स्त्रियां आपस में कहती हैं–’भगवान श्रीकृष्ण का रूप सम्पूर्ण सौन्दर्य व लावण्य का सार है । सृष्टि में किसी का भी रूप इनके रूप के समान नहीं हैं; फिर बढ़कर होने की तो बात ही क्या है ! इनका रूप किसी के संवारने-सजाने अथवा गहने-कपड़ों से नहीं, वरन् स्वयंसिद्ध है । इस रूप को देखते तृप्ति भी नहीं होती; क्योंकि यह नित्य नवीन ही रहता है । सारा यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इसी के आश्रित है ।’ (श्रीमद्भागवत १०।४४।१४)

इस संसार में जितना भी सौंदर्य है, वह सब भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर विग्रह में से ही निकला है । स्वधाम-गमन के समय भगवान सबके नेत्र और चित्त चुरा कर ले गए और यहां अपनी मूर्ति की स्थापना कर दी जिससे कि लोग उनके अंतर्ध्यान होने के बाद भी उनके रूप व लीला का दर्शन कर सकें ।

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