श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने पुष्टिमार्ग की स्थापना की । भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना एकमात्र अनन्य आश्रय मानना पुष्टिमार्गीय जीवन-प्रणाली की आवश्यक शर्त है। श्रीमहाप्रभुजी ने कहा–सदा-सर्वदा पति, पुत्र, धन, गृह–सब कुछ श्रीकृष्ण ही हैं– इस भाव से व्रजेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिए, भक्तों का यही धर्म है। इसके अतिरिक्त किसी भी देश, किसी भी वर्ण, किसी भी आश्रम, किसी भी अवस्था में और किसी भी समय अन्य कोई धर्म नहीं है ।
श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने पुष्टिसेवकों के मार्गदर्शन के लिए ‘कृष्णाश्रय’ स्तोत्र की रचना की ।
‘कृष्णाश्रय’ किसे कहते हैं ?
श्रीमहाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी के अनुसार प्रभु श्रीकृष्णचन्द्र को अपने-आपको पूर्ण समर्पण करके उनकी शरण में रहना ही ‘कृष्णाश्रय’ कहलाता है । ‘हम सर्वथा उनके हैं और वे हमारे हैं’ ऐसा मन में पूर्ण विश्वास रख कर अपने-आप को भगवान की कृपा के आश्रय पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाना ही कृष्णाश्रय है । कृष्णाश्रय लेने पर हमारी सारी जिम्मेदारी भगवान संभाल लेते हैं । श्रीमहाप्रभुजी ने अपने जीवन में कभी भी श्रीकृष्णचन्द्र नाम का विस्मरण नहीं किया ।
श्रीमहाप्रभुजी के अनुसार मानव जीवन के चारों पुरुषार्थ श्रीकृष्ण ही हैं—‘साक्षात् परब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्र के प्रति दास्य (सेवा) भाव ही धर्म है । श्रीकृष्ण ही अर्थ अर्थात् सम्पत्ति, निधि और अपने सर्वस्व हैं । प्रभु के दर्शन की इच्छा ही काम है और श्रीकृष्णचन्द्र का हो जाना–उनको ही प्राप्त कर लेना मोक्ष है।
श्रीमद्वल्लभाचार्यजी द्वारा रचित ‘कृष्णाश्रय’ स्तोत्र हिन्दी अर्थ सहित इस प्रकार है—
सर्वमार्गेषु नष्टेषु कलौ च खलधर्मिणि ।
पाखण्डप्रचुरे लोके कृष्ण एव गतिर्मम ।।१।।
अर्थात्—इस दुष्ट धर्म वाले कलियुग में साधन के सभी मार्ग नष्ट हो गये है और लोगों में अत्यंत पाखण्ड फैल गया है, इसलिए श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ।
म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैकनिलयेषु च ।
सत्पीडाव्यग्रलोकेषु कृष्ण एव गतिर्मम ।।२।।
अर्थात्—समस्त देश मलेच्छों (नास्तिकों) के द्वारा आक्रान्त (पीड़ित) हो गये और एकमात्र पाप के निवास-स्थान बन गये; सत्पुरुषों की पीड़ा से लोग व्यग्र हो रहे हैं, इसलिए श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ।
गंगादितीर्थवर्येषु दुष्टैरेवावृतेष्विह ।
तिरोहिताधिदैवेषु कृष्ण एव गतिर्मम ।।३।।
अर्थात्—गंगादि जैसे श्रेष्ठ तीर्थों के अधिष्ठाता देवता तिरोहत हो गये हैं क्योंकि वहां दुष्ट लोगों छाए हुए हैं, इसलिए श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ।
अहंकारविमूढ़ेषु सत्सु पापानुवर्तिषु ।
लाभपूजार्थयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम ।।४।।
अर्थात्—इस समय सत्पुरुष भी अहंकार से विमूढ़ हो चले हैं, वे भी पाप का अनुकरण कर रहे हैं और सांसारिक लाभ व पूजा (मान) प्राप्त करने के प्रयत्न में लग गए हैं; इसलिए श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ।
अपरिज्ञाननष्टेषु मन्त्रेष्वव्रतयोगिषु ।
तिरोहितार्थदेवेषु कृष्ण एव गतिर्मम ।।५।।
अर्थात्—मंत्रों का ज्ञान न होने से वे प्राय: लुप्त हो गये हैं, उनके व्रत और प्रयोग अज्ञात हैं तथा उनके वास्तविक अर्थ और देवता भी तिरोहित हो गए हैं; इस दशा में श्रीकृष्ण ही एकमात्र मेरे आश्रय हैं ।
नानावादविनष्टेषु सर्वकर्मव्रतादिषु ।
पाषण्डैकप्रयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम ।।६।।
अर्थात्—अनेक मताबलम्बियों के कारण समस्त शास्त्रीय कर्म और व्रत आदि का नाश हो गया है, लोग केवल पाखण्ड के लिए प्रयत्नशील हैं; इसलिए श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ।
अजामिलादिदोषाणां नाशकोऽनुभवे स्थित: ।
ज्ञापिताखिलमाहात्म्य: कृष्ण एव गतिर्मम ।।७।।
अर्थात्—अजामिल आदि महापापियों के दोषों का नाश करने वाले आप भक्तों के अनुभव में स्थित हैं । ऐसे अपने समस्त माहात्म्य का ज्ञान कराने वाले श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ।
प्राकृता: सकला देवा गणितानन्दकं बृहत् ।
पूर्णानन्दो हरिस्तस्मात् कृष्ण एव गतिर्मम ।।८।।
अर्थात्—समस्त देवता प्रकृति के अधीन हैं, ब्रह्म (देवताओं) के भी आनन्द की अवधि है अर्थात् पुण्य समाप्त होने पर उन्हें भी मृत्यु लोक में आना पड़ता है । श्रीहरि ही पूर्ण आनन्दमय हैं; इसलिए श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ।
विवेकधैर्यभक्त्यादिरहितस्य विशेषत: ।
पापासक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम ।।९।।
अर्थात्—विवेक, धैर्य और भक्ति आदि से रहित और पाप में विशेष रूप से आसक्त मुझ अत्यन्त दीन के तो श्रीकृष्ण ही रक्षक हैं ।
सर्वसामर्थ्यसहित: सर्वत्रैवाखिलार्थकृत् ।
शरणस्थसमुद्धारं कृष्णं विज्ञापयाम्यहम् ।।१०।।
अर्थात्—सर्वशक्तिमान और दीनों के सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाले तथा शरण में आए हुए जीव मात्र का भली-भांति उद्धार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करता हूँ ।
कृष्णाश्रयमिदं स्तोत्रं य: पठेत् कृष्णसंनिधौ ।
तस्याश्रयो भवेत् कृष्ण इति श्रीवल्लभोऽब्रवीत्।।११।।
अर्थात्—इस कृष्णाश्रय नामक स्तोत्र का श्रीकृष्ण के समीप जो कोई पाठ करे, श्रीकृष्ण उसके आश्रय (रक्षक) हों; इस प्रकार श्रीवल्लभाचार्यजी कहते हैं ।
॥ इति श्रीमद्वल्लभाचार्य विरचितं श्रीकृष्णाश्रय स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥