वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाणे रे।
पर दु:खे उपकार करे तोय, मन अभिमान न आणे रे।।
‘वैष्णव जन तो तेने कहिये’ गुजरात के संत कवि नरसी मेहता द्वारा रचित भजन है जो महात्मा गाँधी को बहुत प्रिय था। नरसीजी का कथन है कि वैष्णव वही है जिसका चित्त परदु:ख से द्रवित हो जाता है। दूसरों के दु:ख दूर करने के लिए वह कुछ भी कर सकता हैं परन्तु उनके मन में इस बात का जरा भी अभिमान नहीं होता है।
वैष्णव शब्द का सम्बन्ध भगवान विष्णु से है
नारायण: परं ब्रह्म सखं नारायण: परम्।
नारायण: परं ज्योतिरात्मा नारायण: पर:।।
वैष्णव शब्द का सम्बन्ध भगवान विष्णु से है। भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) ही वैष्णव धर्म के आराध्य और उपास्य भी हैं। वैष्णवजन अपने आराध्य को ठाकुरजी या प्रभुजी कहकर सम्बोधित करते हैं।
वैष्णव कहलाने के लिए वैष्णव संस्कार चाहिए, जैसे—
वैष्णव का जीवन भगवदीय होता है। उसका मन, बुद्धि और चित्त सब ठाकुरजी में लग जाता है, इसलिए वैष्णव को किसी सुख की अभिलाषा नहीं रह जाती क्योंकि ठाकुरजी को घर में पधराकर ‘हम तो सेवक हैं, घर के मालिक ठाकुरजी हैं और उनकी सेवा में जो सुख है उसकी तुलना में सभी सुख व्यर्थ हैं’—इस भावना से वह अपने मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर को भगवान की सेवा में लगा देता है। वह हर समय भगवान का स्मरण करता है और उसके हर श्वांस में भगवान का विश्वास बढ़ता है। सूरदासजी ने कहा है—
यामें कहा घटैगो तेरो।
नन्द नन्दन कर घर कौ ठाकुर अपुन ह्वै रह चेरो।।
वैष्णव अपने आहार की शुद्धि का बहुत ध्यान रखता है। दु:खों से विचलित नहीं होता और सुख में आपे से बाहर नहीं होता है। भगवान ही मेरे रक्षक व सर्वस्य हैं—इस प्रकार के दैन्यभाव को धारणकर वह भगवान के चरणों में आत्मसमर्पण कर देता है।
वह भगवान से कुछ याचना नहीं करता। प्रारब्ध को वह भगवान का प्रसाद समझकर भोगता है। विषयों में उसको कोई राग नहीं होता लेकिन भगवान और उनके भक्तों से अनुराग होता है। मृत्यु को वह अपना प्रिय अतिथि मानता है। वैष्णव की दृष्टि सदैव चौथे पुरुषार्थ मोक्ष पर होती है। मोक्ष से उसका तात्पर्य संसार के आवागमन से मुक्ति नहीं वरन् ब्रह्मानन्द को अनुभव करना है। भगवान उसका योगक्षेम वहन करते, उसे स्मरण रखते और उसे परम पद प्रदान करते हैं।
कर्म करते समय वैष्णव सोचता है कि भगवान ही अपने लिए, अपनी प्रसन्नता के लिए इस कर्म को करा रहे हैं और कर्म पूरा हो जाने पर वह सोचता है कि भगवान ने ही अपने लिए, अपनी प्रसन्नता के लिए स्वयं ही यह कर्म करा लिया।
विनम्रता ही है सच्चे वैष्णव की पहचान
एक वैष्णव तीर्थयात्रा करता हुआ वृन्दावन जा रहा था। रास्ते में संध्या होने पर उसने एक गांव में रात बितानी चाही । वह सिवाय वैष्णव के किसी और के घर ठहरना नहीं चाहता था । उसे मालूम हुआ कि इस गांव में सभी वैष्णव रहते हैं । उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने गांव में जाकर एक गृहस्थ का दरवाजा खटखटाया । अंदर से एक व्यक्ति आया तो यात्री ने कहा—‘भाई! मैं वैष्णव हूँ, सुना है कि इस गांव में सभी वैष्णव रहते हैं । मैं एक रात यहां ठहरना चाहता हूँ ।’
गृहस्थ ने कहा—‘मैं तो अधम हूँ, मेरे सिवाय इस गांव में और सब वैष्णव हैं । हां, आप कृपा करके मुझे आतिथ्य करने का अवसर दें तो मैं अपने को धन्य समझूंगा ।’ यात्री ने सोचा—मुझे तो वैष्णव के घर ठहरना हैं, इसलिए उसने दूसरे व्यक्ति के दरवाजे पर जाकर पूछा । वहां भी रहने वाले व्यक्ति ने बड़ी नम्रता के साथ यह कहते हुए अपने यहां ठहरने की प्रार्थना की कि ‘भाई! मैं तो अत्यन्त नीच हूँ । मुझे छोड़कर यहां अन्य सभी वैष्णव हैं ।’
इस तरह वह यात्री पूरे गांव में भटका परन्तु किसी ने भी अपने को वैष्णव नहीं बताया बल्कि सभी ने बड़ी ही नम्रता से अपने को दीन-हीन व तुच्छ कहा । सभी गांववालों की ऐसी विनम्रता देखकर उसकी आंखें खुल गईं और वैष्णवता का झूठा चोला पहनने का उसका भ्रम दूर हो गया।
वैष्णवता का अभिमान करने से ही कोई वैष्णव नहीं होता
उसे समझ में आ गया कि वैष्णवता का अभिमान करने से ही कोई वैष्णव नहीं होता । वैष्णव तो वही है जो भगवान विष्णु की तरह अत्यन्त विनम्र है । भगवान विष्णु के हृदय पर भृगुरेखा ही उनकी विनम्रता की पहचान है । उसकी मन की आंखें खुल गईं और उसने अपने को सबसे नीचा समझकर एक वैष्णव के घर रात्रि विश्राम किया ।
भगवान विष्णु के हृदय पर भृगुरेखा
एक बार भृगु ऋषि देवों की परीक्षा करने के लिए भगवान नारायण के पास आए। भगवान नारायण शेषशय्या पर सोये हुए थे । लक्ष्मीजी सेवा कर रही थीं। भृगु ऋषि को क्रोध आ गया। सोचने लगे कि ये तो सारा दिन सोते ही रहते हैं । उन्होंने नारायण की छाती पर लात मार दी। नारायण जागे । प्रभु ने भृगु ऋषि से कहा–‘आपके कोमल चरणों को आघात लगा होगा, लाइए आपकी सेवा करूँ।’ प्रभु ने भृगु-लांछन-चिह्न छाती में धारण कर लिया।
छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।
लक्ष्मीजी ने कहा–‘इस ब्राह्मण को सजा दीजिए।’ पर प्रभु ने तो भृगु ऋषि की सेवा करनी शुरू कर दी । लक्ष्मीजी नाराज हो गयीं। लक्ष्मीजी ने नारायण से कहा–‘विद्या बढ़ती है तो साथ में अभिमान भी बढ़ता है जिससे विद्या और तप का विनाश हो जाता है; इसलिए इन्हें सजा दीजिए ।’ पर प्रभु ने इन्कार कर दिया। नाराज होकर लक्ष्मीजी वैकुण्ठ छोड़कर कोल्हापुर में जाकर रहीं ।
सच्चे वैष्णव के लक्षण
किसी गृहस्थ के दो पुत्र थे । एक पुत्र सवेरे ब्राह्ममुहुर्त में उठकर स्नान आदि करके पूजा करता और दूसरा पुत्र सुबह सात बजे सोकर उठता । सुबह जल्दी उठकर पूजा करने वाले को घमण्ड हो गया कि मैं बड़ा वैष्णव हूँ और ये तो बड़ा ही मूर्ख है जो सोता रहता है ।
उसने इसकी शिकायत अपने पिता से की। पिता ने कहा—‘चाहे वह मूर्ख है किन्तु वह किसी की निंदा तो नहीं करता । तुम जल्दी उठकर उसकी बुराई करने में लग जाते हो, उसका तिरस्कार करने में आनन्द अनुभव करते हो। यह सच्चे वैष्णव का लक्षण नहीं है ।’
किसी भी प्राणी के प्रति दुर्भावना रखना परमात्मा के प्रति बुरी भावना रखने के समान
पूर्वभाषी प्रसन्नात्मा सर्वेषां वीतमत्सर:।
अनसूयो गुणग्राही धार्मिको वैष्णव: स्मृत:।। (वैष्णवस्मृति)
- सभी मनुष्यों से प्रसन्न होकर पहले बोलने वाला,
- प्रसन्नहृदय, ईर्ष्यारहित,
- किसी में भी दोष न देखने वाला,
- अच्छी बातों को ग्रहण करने वाला,
- धार्मिक और सभी कर्मों को भगवान को अर्पण करने वाला,
- काम-क्रोध-लोभ रहित,
- कृष्णसेवा और कृष्णकथारस में ही रत रहने वाला,
- जो सब में ईश्वर के दर्शन करे,
- जिससे कोई उद्विग्न न हो,
- जिसे यह चिन्ता रहे कि मुझसे किसी का नुकसान न हो जाए, वही सच्चा वैष्णव है ।
समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, पर स्त्री जेने मात रे।
जिहृवा थकी असत्य न बोले, पर धन नव झाले हाथ रे।।