भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अवतार में साधारण मानव के रूप में लीला की; इसलिए मनुष्यों की तरह उनका द्विभुज रूप देखने को मिलता है । किंतु श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में उन्होंने अपने चतुर्भुज रूप के दर्शन अर्जुन को कराए हैं ।
कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण के मुख से उनकी विभूतियों को सुनकर अर्जुन को यह दृढ़ विश्वास हो गया कि श्रीकृष्ण साक्षात् परमपिता परमेश्वर हैं और यह मेरा सौभाग्य है कि मैं उनके मानव रूप में दर्शन कर रहा हूँ; किंतु अब जब साक्षात् नारायण मेरे सम्मुख हैं और उनका अनुग्रह भी मुझ पर है तो उनके परम ऐश्वर्यपूर्ण रूप के दर्शन के बिना मुझे संतुष्टि नहीं मिल रही है । अत: अर्जुन ने श्रीकृष्ण से उनके ईश्वरीय रूप को देखने की इच्छा प्रकट की ।
भगवान ने अर्जुन से कहा—‘मेरा यह विराट रूप (विश्वरूप) तुम अपने इन प्राकृत नेत्रों से नहीं देख सकते; इसलिए तुम्हें दिव्य चक्षु (दृष्टि) प्रदान कर रहा हूँ, उनसे समस्त विभूतियों और ब्रह्माण्ड को मुझमें देखो ।’ अर्जुन ने श्रीकृष्ण के विराट रूप में संपूर्ण जगत को भगवान श्रीकृष्ण के शरीर में एक जगह स्थित देखा । ब्रह्मा, विष्णु, शंकर तथा अन्य सभी देवी-देवता, पितर, यक्ष, राक्षस, सिद्ध आदि सभी उस विराट रूप में अर्जुन को दिखाई दिए ।
भगवान के अत्यंत उग्र रूप को देख कर अर्जुन भय के कारण व्याकुल हो गए और भगवान से बोले—‘आपके प्रभाव को न जानते हुए, ‘आप मेरे सखा हैं’—ऐसा मान कर प्रेम से या प्रमाद से जो मैंने ‘हे कृष्ण’ ! ‘हे सखे’ ! ‘हे यादव’ ! इस प्रकार कहा उसके लिए मैं आपसे क्षमा मांगता हूँ । आप भी मेरे अपराध को क्षमा करें और प्रसन्न हों और मुझे अपना चतुर्भुज रूप दिखाइए ।’
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्त्रबाहो भव विश्वमूर्ते ।। (गीता ११।४६)
कैसा है भगवान श्रीकृष्ण का चतुर्भुज विष्णु रूप ?
सशंखचक्रं सकिरीटकुण्डलं सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।
सहारवक्ष:स्थल कौस्तुभश्रियं नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ।।
चतुर्भुज रूप में भगवान शंख-चक्र, गदा-पद्मधारी तथा किरीट और कुण्डलों से शोभायमान, पीताम्बरधारी हैं । सुंदर कमल के समान नेत्रों वाले हैं, वनमाला और कौस्तुभमणि धारण करने वाले हैं ।
भगवान के हाथ में सुशोभित शंख ‘पांचजन्य’ कहलाता है । दूसरे हाथ में वे ‘सुदर्शन चक्र’ धारण करते हैं । भगवान को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति भगवान शिव से हुई । भगवान ‘कौमोदकी गदा’ धारण करते हैं, जिसका निर्माण विश्वकर्मा ने ‘गद’ नामक असुर की हड्डियों से किया था; इसीलिए भगवान ‘आदिगदाधर’ कहलाते हैं । समस्त ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य—इन छ: पदार्थों का नाम ही ‘लीलाकमल’ है, जिसे भगवान अपने हाथ में धारण करते हैं । भगवान की वैजयंतीमाला मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील और हीरक—इन पांच मणियों से बनी है ।
देवरूपिणी देवकी के गर्भ से जब भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का आविर्भाव हुआ, उस समय वसुदेव जी को अनन्त सूर्य-चन्द्रमा के समान प्रकाश दिखाई दिया और उसी प्रकाश में दिखाई दिया एक अद्भुत असाधारण बालक; जिसके बाल-बाल में, (रोम-रोम में) ब्रह्माण्ड रहते हैं, चार भुजा (वे चतुर्भुज रूप में चारों पुरुषार्थ अपने हाथ में लेकर जीवों को बांटने के लिए आते हैं), चार आयुध (शंख, चक्र, गदा और पद्म), कमल-सी उत्फुल्ल-दृष्टि, नीलवर्ण, पीताम्बरधारी, वक्ष:स्थल पर श्रीवत्सचिह्न, गले में कौस्तुभमणि, वैदूर्यमणि के किरीट और कुण्डल, बाजूबंद और कमर में चमचमाती हुई करधनी । कोई भी बालक पैदा होता है तो उसकी आंखें बन्द होती हैं, खुली नहीं होती; लेकिन इनके नेत्र खिले हुए कमल के समान हैं । यह तो आश्चर्यों का खजाना है । ऐसा अद्भुत बालक जिसे कभी किसी ने कहीं नहीं देखा-सुना, वैसे चतुर्भुज रूप के दर्शन भगवान ने अपने माता-पिता को कराए ।
भगवान के चतुर्भुज दिव्य रूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महत्ता
गीता के ग्यारहवे अध्याय में भगवान ने अपने चतुर्भुज दिव्य रूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महत्ता बताते हुए अर्जुन से कहा है—‘मेरे इस रूप के दर्शन बड़े दुर्लभ हैं; मेरे इस रूप के दर्शन की इच्छा देवता भी करते हैं ।
मेरा यह चतुर्भुज रूप न वेद के अध्ययन से, न यज्ञ से, न दान से, न क्रिया से और न ही उग्र तपस्या से देखा जा सकता है । इस रूप के दर्शन उसी को हो सकते हैं जो मेरा अनन्य भक्त है और जिस पर मेरी पूर्ण कृपा है ।’ अनन्य भक्ति क्या होती है ? इसका भी वर्णन करते हुए भगवान कहते हैं—
भगवान में प्रेम होना और अपने तन-मन, इंद्रिय और धन आदि सर्वस्व को भगवान का समझ कर भगवान के लिए उनकी सेवा में सदा के लिए लगा देना—यही अनन्य भक्ति है ।
भगवान के सगुण चतुर्भुज रूप के दर्शन का एकमात्र यही उपाय है ।