bhagavad gita krishna gyaan to arjun

तन धन सुखिया कोई न देखा, जो देखा सो दुखिया रे ।
चंद्र दुखी है, सूर्य दुखी है, भरमत निसदिन जाया रे ।।
ब्रह्मा और प्रजापति दुखिया, जिन यह जग सिरजाया रे ।
हाटो दुखिया, बाटो दुखिया, क्या गिरस्थ बैरागी रे ।।
शुक्राचार्य जन्म के दुखिया, माया गर्व न त्यागी रे ।
धूत दुखी, अवधूत दुखी हैं, रंक दुखी धन रीता रे ।।
कहै कबीर वोही नर सुखिया, जो यह मन को जीता रे ।।

हमारा मन है हमारी ताकत

आदिशंकराचार्यजी का कहना है—‘मन की जीत मनुष्य की सबसे बड़ी जीत है । जिसने अपने मन को जीत लिया है उसने सारे जगत पर विजय प्राप्त कर ली है ।’

हमारा मन ही हमारे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु है । यही हमें हंसाता है, यही हमें रुलाता है । यही खुशियों के ढेर लगा देता है तो कभी यही दुखों की गहरी खाई में ढकेल देता है । मानव मन अग्नि के समान है जो मनुष्य को बुरे और नकारात्मक विचारों में फंसाकर जीवन में आग लगा सकता है या अच्छे और सकारात्मक विचारों की ज्योति से जीवन को प्रकाशित भी कर सकता है । मन की मजबूती के आगे निर्धनता, दुर्भाग्य, मुसीबतें या बाधाएं टिक ही नहीं सकतीं । मजबूत मन और दृढ़ आत्मविश्वास को कोई नहीं हरा सकता ।

इसीलिए मैथिलीशरण गुप्तजी ने कहा है—‘नर हो, न निराश करो मन को ।’ मन की शक्तियों को कभी कमजोर न पड़ने दें ।

गीता (६।३४) में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं—

चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढ़म् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।

अर्थात्—‘मन बहुत चंचल, उद्दण्ड, बली और हठी है । मन को वश में करना वायु को वश में करने के समान है ।’

इसी आधार पर शास्त्रों में मन की कुछ विशेषताएं बतायी गयीं हैं—

▪️ मन कभी स्थिर नहीं होता; एक सेकण्ड में ही हजारों मील दूर की उड़ान भर लेता है, इसलिए मन को चंचल कहा गया है ।

▪️ मनुष्य का मन सदैव अतृप्त, भूखा रहता है । इच्छित वस्तु की प्राप्ति होने पर कुछ ही देर में उससे मन भर जाता है और फिर मन में किसी नयी वस्तु की भूख पैदा हो जाती है ।

▪️ मन बड़ा मूर्ख है । बार-बार समझाने पर भी समझता नहीं है और राग-द्वेष, ईर्ष्या, अहंकार में डूबा रहता है ।

▪️ मानव मन की एक विशेषता यह है कि यह मैला और दूषित है क्योंकि इसमें बुरे और निम्न श्रेणी के विचार भी जन्म लेते हैं ।

▪️ मानव मन को पागल भी कहा गया है क्योंकि यह इन्द्रियों का दास बनकर विषयों के पीछे दौड़ता रहता है ।

मन के इन्हीं दुर्गणों के कारण इसे ‘मनुष्य का शत्रु’ कहा गया है । मन को मनमानी न करने की सीख देते हुए कहा गया है—‘मन के मते न चालिये, यह सतगुरु की सीख ।’

संसार के सभी प्राणी सुख की खोज में लगे रहते हैं किन्तु स्थायी सुख किसी को प्राप्त नहीं होता है । किसी विद्वान ने कहा है—‘मनुष्य का मन सदा दु:ख और बैचेनी की अवस्था में इधर-से-उधर झूलता रहता है ।’ (‘Human mind swings backward and forward between ennui (dissatisfaction) and pain.’)

मन को वश में करने की साधना

गीता (६।२६) में मन को साधने के लिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—

यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।।

अर्थात्—‘साधक को चाहिए कि मन जहां-जहां जाए, जिस-जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब-जब जाए, उसको वहां-वहां से, उस कारण से, वैसे-वैसे और तब-तब हटाकर परमात्मा में लगाना चाहिए।’

कितने ही साधु-संन्यासी अपने मन को वश में करने के लिए हठयोग को सहारा लेते हैं । इस प्रकार का अभ्यास प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है । जिस चीज पर मन जाए, उससे मन को रोकने के लिए यदि हठ करके अभ्यास किया जाए तो फिर मन उस वस्तु पर नहीं जाता है ।

▪️ स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी ‘टाका माटी’ के खेल का अभ्यास किया करते थे । वे एक हाथ में ‘टाका’ यानी सिक्का और दूसरे में मिट्टी का ढेला लेते और ‘टाका माटी’, ‘टाका माटी’ कहते हुए उन्हें दूर फेंक देते थे । ऐसा अभ्यास वे पैसे के प्रलोभन से बचने के लिए अर्थात् पैसा और मिट्टी को एक बराबर समझने के लिए करते थे ।

▪️ स्वामी रामतीर्थ को सेव बहुत प्रिय थे । किसी भी महत्त्वपूर्ण काम को करते हुए भी उनका मन सेवों की ओर चला जाता था । एक दिन स्वामीजी ने कुछ सेव लाकर सामने बने आले में रख दिए, जिससे कि उनकी नजर सदैव उन सेवों पर पड़े । स्वामी रामतीर्थ का मन बार-बार सेवों की ओर जाता और वे बार-बार खींचकर उसे दूसरी ओर लगाते । इस तरफ उनका अपने मन से आठ दिन तक युद्ध चलता रहा, तब तक सेव सड़ गए और फिर उन्हें फेंक दिया गया । लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि सेवों के प्रति उनके मन में जो कमजोरी थी वह दूर हो गयी और फिर कभी किसी कार्य को करते हुए उनका मन सेवों पर नहीं गया ।

मन से लड़ना व्यर्थ है

मनोविज्ञान के अनुसार मन को गतिहीन करना संभव नहीं । जैसे साइकिल पर चढ़ा व्यक्ति साइकिल को रोककर एक जगह नहीं रह सकता, उसे चलाना ही पड़ता है । हां, यह संभव है कि साइकिल को एक ओर न ले जाकर दूसरी ओर ले जाया जाए । उसी तरह मन को भी वश में करने के लिए उसकी दिशा को मोड़ देना चाहिए । इसके लिए गीता में ‘कर्मयोग’ और ‘भक्तियोग’ का श्रेष्ठ उपाय बतलाया गया है—

▪️ हमें अपने-आपको ऐसा बनाना चाहिए कि जिससे हम अपने मन को संसार के हजारों काम में व्यस्त रख सकें अर्थात् कर्मयोग; और

▪️ जो भी करें वह यह जानकर करें कि यह परमात्मा की पूजा है—

जहँ जहँ जाऊँ सोइ परिक्रमा, जोइ जोइ करूँ सो पूजा ।
सहज समाधि सदा उर राखूँ, भाव मिटा दूँ दूजा ।।

इस तरह हम अपने मन को अपना शत्रु बनाने की बजाय मित्र बना सकते है ।

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